Monday, May 8, 2017

सिसकती नदियों की तुरपाई करती सरकारें

बीते 11 मार्च को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद क्रमशः  18 एवं 19 मार्च को उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश  में सरकारें सत्तासीन हुईं। जाहिर है जिस कूबत के साथ इन प्रान्तों में सरकारों का उदय हुआ उससे भी साफ था कि इनसे उम्मीदें भी गगनचुम्भी होंगी और सुनिष्चित मापदण्डों में जनहित को साधने वाली नीतियों के भी अम्बार लगेंगे। तमाम उम्मीदों से अटीं और परिपूर्ण यूपी व उत्तराखण्ड की सरकारों को तमाम कृत्यों के साथ सिसक रही नदियों को लेकर भी कुछ कदम उठाने थे। ऐसे में बरसों से कूड़े-कचरे का ढ़ेर बन चुकी और नदी से नालों में तब्दील हो चुकी नदियों की चिंता भी फिलहाल इनमें देखी जा सकती है। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीते 7 मई को औच्चक आगरा का दौरा किया और अस्पताल के निरीक्षण के साथ ताज नगरी में बह रही यमुना की हालत भी देखी। स्थिति देखकर नाराज़गी भी प्रकट की। जाहिर है यमुना की हालत किसी से छुपी नहीं है। यमुना एक्षन प्लान की खराब अवस्था को लेकर अधिकारियों की जम कर योगी ने क्लास ली। नदी में गंदा पानी न जाय इसके लिए तीन नये सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के निर्देष भी जारी किये। दुनिया के आठ अजूबों में एक ताजमहल को योगी ने कुछ और चीजों से भी जतन करने की बात कही। ताज को धूल, बालू से बचाने के उपाय करने को लेकर न केवल चेताया बल्कि नदी को नाले की षक्ल में देख जल निगम अधिकारियों को भी लताड़ा। 14 सौ किलामीटर की उत्तराखण्ड के यमुनोत्री से यात्रा करने वाली यमुना दिल्ली, आगरा समेत इलाहाबाद तक कई छोटे-बड़े षहरों से गुजरती है जिसके होने से जिन्दगी चलती है पर यमुना स्वयं खतरे से गुजर रही है इसे लेकर आखिर कौन फिक्रमंद है। योगी ने यमुना को स्वच्छ बनाने के लिए और जल स्तर बढ़ाने के लिए सिंचाई विभाग की 281 करोड़ रूपए की रबड़ डैम परियोजना को तेजी से बढ़ाने के निर्देष भी दिये।
सबको पता है कि गंगा की सहायक यमुना नदी जिस हाल में है इसी हाल से कमोबेष गंगा भी गुजर रही है। गौरतलब है कि हाल ही में उत्तराखण्ड के उच्च न्यायालय ने बीते 20 मार्च को देष की इन दो बेषकीमती नदियों को जीवित मानव का दर्जा दिया है। यही दर्जा यमुनोत्री एवं गंगोत्री ग्लेषियर को बीते 31 मार्च को दिया गया। गौरतलब है कि न्यूज़ीलैण्ड की वांगनुई को ऐसा दर्जा पहले दिया जा चुका है। गंगा, यमुना को जीवित मानव का दर्जा देने के पीछे संवेदनषील एवं सकारात्मक धारणा का परिप्रेक्ष्य निहित है बावजूद इसके क्या गंगा, यमुना अपने पुराने अस्तित्व को हासिल कर पायेंगी। दषकों से चल रहे सफाई अभियान को देखें तो निराषा ही हाथ लगती है। रही बात इनसे भिन्न नदियों की तो उनकी तो दुर्दषा ही हो गयी है। हालात इस कदर बिगड़े हैं कि उत्तर प्रदेष से उत्तराखण्ड तक अब सरकारें बची-खुची नदियों में उनका जीवन खोजती दिख रहीं हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून के बीचो-बीच रिस्पना और बिंदाल नामक नदियां गुजरती हैं साथ ही सुसवा नदी भी यहां की पहचान रही है पर बेरहम वक्त की षिकार ये भी खूब हुई है। हालात यह है कि ये नदियां षहर के कूड़ों के निपटान के केन्द्र हैं और इसमें अगर कुछ भी षेश है तो आवाजाही के बचे हुए पुल। न इसमें पानी है न प्रवाह है और न ही इसे लेकर आम षहरी की चिंता। रही बात सरकार की तो वह भी रस्म अदायगी में वक्त बिता रही है। बीते दिनों मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने रिस्पना नदी के साफ-सफाई को लेकर अपने आला अफसरों के साथ एकजुटता दिखाई पर एक दिन से भला क्या होता है। गौरतलब है कि यह वही नदी है जिसे लेकर देहरादून की बारहवीं कक्षा की एक छात्रा गायत्री ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी थी और मोदी के मन की बात से इसकी जानकारी दुनिया को मिली थी। जब मामला खुला तब सिंचाई विभाग, नगर निगम, षहरी विकास मंत्रालय समेत मुख्यमंत्री को इसकी सुध आई जबकि इसी सिसकती नदी के किनारे उत्तराखण्ड का विधानसभा भी बना है। इससे बड़ी सच्चाई यह भी है कि विधानसभा का कुछ हिस्सा नदी की जमीन पर बना हुआ भी बताया जाता है। नदी के अवषेश हैं पर नदी नहीं हैं। सरकारों में भगीरथ बनने की तमन्ना तो है पर नीयत में खोट है। इतना ही नहीं निजी और सरकारी सभी संस्थाओं में नदी की जमीन पर खूब कब्जा किया है और इसकी चैड़ाई नाले की तरह ही रह गयी। अब तो इसके अंदर सीवर लाइन भी डाली जा रही है। रही सही कसर इससे पूरी हो गयी। 
कभी संसाधनों का बहाना तो कभी स्वयं की सीमाओं की आड़ में इससे पल्ला झाड़ना आम रहा है। इसी क्रम में जब उत्तराखण्ड के देहरादून की ही सुसवा नदी की बारी आई जहां एक बार फिर प्रषासन, पुलिस, छात्र यहां का प्राधिकरण और नगर निगम समेत सरकार के तमाम आला अफसर जुटे तो लगा कि हाषिये पर जा चुकी यह नदी भी जीवित होगी। सबके बावजूद क्या इस बात के आधार पर उक्त को आंकना सही होगा कि तीन दषक से गंगा सफाई करते-करते टनों का मलबा गंगा में और धकेल दिया गया जो गंगा देष के पचास करोड़ लोगों की जीवनदायनी है उसकी सुध लेने में और उसे साफ-सुथरा रखने में साथ ही उसके रख-रखाव को लेकर सरकार समेत आम जन इतना बेरूख हुआ हो क्या वही ऐसी छोटी नदियों के मोल समझ पायेंगे। मन तो यही कहता है कि जवाब न ही में समझा जाय पर संवेदनषीलता को एक कोने लगा दिया जाय तो नियोजन को बल देने वालों ने प्रवाहषील नदियों को कभी अपनी विचारधारा का हिस्सा ही नहीं बनाया। जिस तरह नदी में धारा नहीं है वैसे ही सरकार समेत आम जनमानस के विचार में षायद विचार में आज धारा का लोप हो गया है। 
उत्तराखण्ड की नदी सूखने का मतलब उत्तर प्रदेष के प्रवाह का सूखना है। पर्यावरण में हो रहा बदलाव नदियों के निगलने का पूरा इंतजाम है। यमुनोत्री और गंगोत्री ग्लेषियर भी सिकुड़ रहे हैं। आईपीसीसी की 2007 में आई रिपोर्ट पहले ही आगाह कर चुकी है पर इसके प्रति चिंता का आभाव आज भी बना हुआ है। गरमी के कारण ग्लेषियर तेजी से पिघल रहे हैं। उत्तराखण्ड भी तुलनात्मक पहले से अधिक गरम जलवायु वाला प्रदेष बनता जा रहा है। वैज्ञानिक रिसर्च भी यह इषारा करते हैं कि ग्लेषियर पहले जैसे नहीं रहे, बर्फ की मात्रा में कमी आई है। जाहिर है नदियों में पानी भी घट रहा है। ऐसे में गंगा हो या यमुना यदि उसे और दूशित किया गया और हो रही दुर्दषा पर लगाम नहीं लगा तो सभ्यता बचाना मुष्किल हो जायेगा। योगी ने आगरा में यमुना को देखकर जो महसूस किया और मोदी नमामि गंगे से जो अविरलपन गंगा में लाना चाहते हैं वह सब नदियों के बचाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि देष की आधी आबादी को बनाये रखने की जद्दोजहद भी है षायद सत्ता भी। उत्तराखण्ड सरकार लुप्त हो रही नदियों को लेकर जो सक्रियता दिखा रही है वह भी भविश्य को सुरक्षित रखने और जल संसाधन की दिषा में उठाया गया कदम ही है पर इन्हीं सरकारों से कोई पूछे कि कूड़े निपटान के लिए जगह कहां है। नदियों की जमीन पर कब्जा करने वालों को मौन स्वीकृति कौन देता है। गौरतलब है दिल्ली में भी यमुना के किनारे दर्जनों किलोमीटर में स्लम बस्ती बसी हुई है। ये सिलसिले हर नदियों के साथ जुड़े हैं। सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि एक-दो दिन की सक्रियता से क्या पूरा काम होगा। षायद यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायाल भी गंगा सफाई योजना से अप्रसन्न है इतना ही नहीं लाखों करदाताओं की करोड़ों की गाढ़ी कमाई पानी में बहाने वाली सरकारें आखिर नदियों को साफ क्यों नहीं कर पा रही हैं। उनके अस्तित्व को क्यों नहीं पुराना रूप दे पा रही हैं जाहिर है तुरपाई करने से अब काम नहीं चलेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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