Monday, January 17, 2022

आदर्श चुनाव आचार संहिता की चुनौतियां

जिम्मेदारी और जवाबदेही आचारनीति के अभिन्न अंग हैं जिसकी कई स्तरों पर आवष्यकता पड़ती रहती है। इसी में से एक है आदर्ष चुनाव आचार संहिता जिसमें इस बात की गुंजाइष बरकरार रहती है कि इसके होते हुए चुनाव पारदर्षी और निश्पक्ष रूप से हो सकते हैं। बीते सात दषकों से देष में चुनाव की परम्परा देखी जा सकती है जो लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण महोत्सव है। समय के उतार-चढ़ाव और बदलते राजनीतिक रंग-ढंग को देखते हुए 1960 में ऐसे नियम की आवष्यकता महसूस की गयी जो निश्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए उत्तरदायी हो तब आदर्ष चुनाव आचार संहिता राजनीतिक दलों की सहमति से अस्तित्व में आयी। षुरूआती दौर में इसमें यह तय था कि क्या करें और क्या न करें मगर समय के साथ इसका दायरा भी बढ़ता गया। गौरतलब है कि चुनाव अधिसूचना जारी होते ही आचार संहिता प्रभावी हो जाती है जिसमें इस बात की गारंटी सम्भव रहती है कि चुनाव पारदर्षी और बिना किसी भेदभाव के पूरा होगा। चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नियमों का बाकायदा अनुपालन होगा और राजनीतिक दल एक साफ-सुथरा आचरण का परिचय देंगे। हालिया परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह दर्षाता है कि चुनाव आचार संहिता को लेकर राजनीतिक दलों ने इसके प्रति एक सामान्य धारणा ही बना रखी है। हर हाल में चुनावी जीत की चाह में आचरण का यह सिद्धांत कैसे छिन्न-भिन्न किया जाता है यह किसी से छुपा नहीं है और षायद ही इसकी चिंता कोई राजनीतिक दल गम्भीरता से करता भी हो। बीते 8 जनवरी को उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब समेत गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा दिया गया। जाहिर है आदर्ष चुनाव आचार संहिता भी यहीं से साथ हो चला और यहीं से इसके उल्लंघन की यात्रा भी षुरू हो गयी जिसकी बानगी उत्तराखण्ड में देखने को मिलती है। यहां सरकार पर यह आरोप लगाया गया कि उसने आचार संहिता का जमकर उल्लंघन किया है। विरोधियों का आरोप है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद सैकड़ों आदेष सरकार द्वारा जारी किये गये जो इसका उल्लंघन है। हालांकि इसका न्यायोचित दृश्टिकोण क्या होगा इसे तय करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है।

राजनीतिक दलों का नैतिक दायित्व आचार संहिता का पालन करना और लोकतंत्र के भीतर एक साफ-सुथरी छवि बनाये रखने के साथ निश्पक्ष चुनाव में अपना योगदान देना है। मगर सैद्धांतिक रूप से यह जितना आदर्ष से युक्त है व्यवहार में इसका अनुपालन कम ही होता दिखाई देता है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, बाहुबल और धनबल के रसूक से भरे चुनावी अभियान में राजनीतिक दल छवि को लेकर कितने चिंतित रहते हैं इसकी बानगी आये दिन देखने को मिलती रहती है। चुनाव आचार संहिता चुनावी मौसम में कई चुनौतियों से जूझता है इसकी षिकवा-षिकायत भी चुनाव आयोग के पास बड़े पैमाने पर पहुंचती रहती है जिसे लेकर आयोग प्रभावी कदम उठाता रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच निर्वाचन आयोग की चर्चा है। गौरतलब है कि प्रति 5 वर्श पर लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कराना आयोग की जिम्मेदारी है साथ ही इसमें निश्पक्षता बरकरार रहे इसे तय करना भी उसकी कसौटी में है। मगर यह तभी पूरी हो सकती है जब राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याषी इसकी गरिमा को समझेंगे। इसमें कोई दुविधा नहीं है कि चुनाव आयोग अपनी भूमिका में इसलिए कभी-कभी कमतर पड़ता है क्योंकि जिन दलों और प्रत्याषियों को आचार संहिता का पालन करना है वही इसे धुंआ-धुंआ करते रहते हैं। गौरतलब है कि 1951-52 में जब देष में पहला चुनाव हुआ था तब देष की जनसंख्या 36 करोड़ थी। खास यह भी है कि दो लोकसभा चुनाव तक आचार संहिता का निर्माण तक नहीं हुआ था। स्पश्ट है कि उन दिनों चुनाव को निश्पक्ष और पारदर्षी कराना बड़ी चुनौती थी मगर राजनीतिक दल असहयोगी कतई नहीं रहे होंगे। 1962 के लोकसभा के चुनाव में आचार संहिता का पहली बार पालन किया गया जबकि 1960 में केरल विधानसभा चुनाव में इसे पहली बार अपनाया गया था। समय के साथ राजनीतिक दलों का विकास और विस्तार हुआ सरकार बनाने की महत्वाकांक्षा के चलते इनके मूल्यों में गिरावट भी जगह लेने लगी नतीजन आचार संहिता को मजबूती से लागू करना देखा जा सकता है। 

बानगी के तौर पर आचार संहिता के कुछ प्रमुख बिन्दुओं को उकेरा जा सकता है। चुनाव अधिसूचना जारी होने के बाद सत्तारूढ़ दल कोई ऐसी घोशणा न करे जिससे मतदाता प्रभावित होते हों मसलन अनुदान की घोशणा, परियोजनाओं का प्रारम्भ और कोई नीतिगत घोशणा। प्रत्याषी अपने प्रतिद्वन्द्वी की आलोचना व्यक्तिगत अथवा चारित्रिक आधार पर न करे, धार्मिक तथा जातीय उन्माद बढ़ाने वाले वक्तव्य न दे, मतदाताओं को किसी प्रकार का प्रलोभन (षराब, पैसा) देने से मनाही। इसके अलावा भी दर्जनों आयाम इससे जुड़े देखे जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति कोरोना काल की है और 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने हैं। यहां चुनाव आयोग ने स्पश्ट रेखा खींचते हुए दलों को बता दिया है कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। आचार संहिता के उल्लंघन की स्थिति में इसके प्रचार पर रोक लगाई जा सकती है। प्रत्याषी के खिलाफ आपराधिक मुकदमा भी दर्ज किया जा सकता है। इतना ही नहीं जेल जाने का प्रावधान भी है। गौरतलब है कि दौर सोषल मीडिया का है जाहिर है चुनाव प्रचार के लिए यह एक सब तक पहुंच वाला प्लेटफाॅर्म है। इस बार का चुनाव कोरोना के चलते कई पाबंदियों में है जिसमें चुनावी रैली और भीड़ जुटाने जैसी स्थिति पर चुनाव आयोग ने रोक लगाई है। हालांकि इसकी सीमा निर्धारित है इसमें कितनी ढील दी जायेगी यह चुनाव आयोग ही तय करेगा। एक अच्छी बात राजनीतिक दलों और प्रत्याषितों के लिए है कि उन्हें सोषल मीडिया प्रचार में छूट दी गयी है लेकिन षर्त यह है कि दल एवं प्रत्याषियों को प्रचार से पहले आयोग के प्रमाणन समिति से सत्यापन कराना होगा। सोषल मीडिया के सभी प्लेटफाॅर्म ने भी कहा है कि वह इन नियमों का पालन करेगा। मौजूदा समय में जनसंख्या के लिहाज़ से भी देष बड़ा है और चुनाव लड़ने वाले तमाम प्रत्याषी भी आचरण और मूल्य के मामले में कहीं अधिक पीछे जा चुके हैं। ऐसे में आचार संहिता का आदर्ष बने रहना चुनौती तो है।

दिनांक : 13/01/2022 


 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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