Thursday, June 27, 2019

पंचायत से परिवार नियोजन की राह


हिमालयी प्रदेश उत्तराखण्ड में अब दो से अधिक संतान वाले पंचायत चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड की विधानसभा ने बीते 26 जून को एक विधेयक पारित कर यह फरमान सुना दिया है। उत्तराखण्ड पंचायत राज अधिनियम (संषोधन) 2019 को फिलहाल मंजूरी दे दी गयी। स्पश्ट है कि इस विधेयक को लागू करने का मूल उद्देष्य परिवार नियोजन को बढ़ावा देना है। इसके अन्तर्गत उम्मीदवारों की न्यूनतम षैक्षिक योग्यता भी निर्धारित की गयी है जिसमें साफ है कि सामान्य वर्ग में न्यूनतम योग्यता दसवीं जबकि एससी/एसटी श्रेणी के लिए 8वीं और महिलाओं के लिए कक्षा 5 उत्तीर्ण होना जरूरी है। इस विधेयक को अभी राज्यपाल की मंजूरी मिलना बाकी है जो आने वाले दिनों में मिल जायेगी। इस साल के अंत में प्रदेष में पंचायत चुनाव होने वाले हैं। जाहिर है कि नया कानून लागू होने से हजारों चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले इससे प्रभावित होंगे। इसमें एक खास बात यह भी है कि दो से अधिक जीवित बच्चे वाले लोग जिनमें से एक का जन्म नये कानून लागू होने के 300 दिन बाद हुआ तो वे भी चुनाव नहीं लड़ सकते। हालांकि प्रत्याषी चुनाव में पहले की तुलना में दोगुना खर्च कर सकेंगे। पंचायत चुनाव में अभी तक संतान सम्बंधी कोई षर्त लागू नहीं थी और न ही षैक्षिक योग्यता की ही कोई षर्त थी। दो बच्चों से जुड़े कानून के मामले में उत्तराखण्ड षायद पहला प्रान्त है जबकि योग्यता लागू करने के मामले में इसके पहले भी कई प्रदेष इसे आजमा चुके हैं। हरियाणा पंचायती राज अधिनियम संषोधन 2015 में इसी तरीके की षैक्षिक योग्यता लाई गयी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकार के पक्ष को सही बताया था। राजस्थान की मौजूदा सरकार ने अपनी पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सिंधिया सरकार के पार्शदी और सरपंची चुनाव में षैक्षिक योग्यता के फैसले को खत्म कर दिया था। गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार हर चैथा नागरिक अषिक्षित है ऐसे में स्थानीय चुनाव में योग्यता लागू करना लोकतंत्र की दृश्टि से कितना वाजिब है यह सवाल रहेगा। रही बात दो बच्चों की तो देष में बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए कुछ कदम तो उठाने चाहिए। इस दिषा में उत्तराखण्ड को सराहा जा सकता है। 
महात्मा गांधी ग्राम स्वराज के पक्षधर थे उनका मानना था कि गांव के विकास के बिना भारत की प्रगति सम्भव नहीं है। गांधी जी को गांवों को राजनीतिक व्यवस्था का केन्द्र बनाना चाहते थे ताकि निचले स्तर पर लोगों को राश्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में षामिल किया जा सके। यही कारण था कि उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी व मजबूत बनाने की वकालत की थी। हालांकि डाॅ0 अम्बेडकर पंचायती व्यवस्था के विरोधी थे वे इसे संकीर्णता और पिछड़ेपन का प्रतीक मानते थे। उन्हें डर था कि पंचायते सामाजिक व आर्थिक समानता की राह में बाधा बन सकती हैं। षायद यही कारण है कि संविधान निर्माण के समय पंचायती राज व्यवस्था को टाल दिया गया जबकि औपनिवेषिक षासनकाल में 1882 में स्थानीय स्वषासन की अवधारणा भारत में करवट ले चुकी थी और 1920 में ब्रिटिष प्रांतों में इसकी स्थापना के लिए कानून भी बनाया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद केन्द्र सरकार ने पंचायती राज एवं समुदायिक मंत्रालय की स्थापना की और 2 अक्टूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के पीछे उद्देष्य गांवों के आर्थिक विकास व सामाजिक सुधार के लिए मजबूत कदम उठाना था परन्तु इससे जन साधारण को कोई लाभ नहीं हुआ। गौरतलब है कि नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 40 में पंचायत की चर्चा है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि गांवों के देष भारत में पंचायतें कसमसाती रहीं और बड़ी-बड़ी सरकारें इनकी उलझन को समझ ही नहीं पायी। गांधी ने 1922 में ग्राम स्वराज का सपना देखा था और पंचायती राज व्यवस्था 1992 में 73वें संविधान संषोधन के अंतर्गत कानून का रूप अख्तियार कर पायी। यह वही वर्श है जब देष में दो बड़े संषोधन हुए थे पहला 73वां पंचायती राज व्यवस्था के लिए, दूसरा 74वां नगर निकायों को ऐसी ही धारणा से ओत-प्रोत करने के लिए। हालांकि बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिष पर पहली बार स्वतंत्र भारत में पंचायत का उदय 2 अक्टूबर 1959 में राजस्थान के नागौर जिले से षुरू हुई थी। 
73वें संविधान संषोधन से ग्रामीण स्थानीय षासन में जहां एकरूपता आयी तो वहीं इसमें अनेक परिवर्तन हुए। नियमित चुनाव का प्रावधान किया गया जो प्रत्येक पांच वर्श में कराये जायेंगे। साथ ही असमय यदि यह भंग हो तो 6 माह तक नई पंचायत को स्थापित कर लिया जायेगा। पंचायतों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिया गया। पहले चरण में महिलाओं को 33 फीसदी और बाद में 50 फीसदी आरक्षण दिया गया जो महिला सषक्तीकरण का एक बहुत बड़ा आधार था। पंचायतें 29 विशय पर षासन चलाती हैं पर पैसों के लिए राज्य सरकारों पर निर्भर रहती हैं। हालांकि वित्तीय संसाधनों के लिए इन्हें कर लगाने की षक्ति दी गयी है साथ ही राज्य वित्त आयोग के माध्यम से करों और अनुदानों के बंटवारे के प्रावधान किये हुए हैं पर हकीकत यह है कि कर लगाने की गुंजाइष बहुत मामूली है और पैसों की आवष्यकता ग्रामीण विकास की दृश्टि से कहीं अधिक जरूरी है। केन्द्र और राज्य की तरह यहां भी नियोजन के लिए जिला एवं महानियोजन समिति देखी जा सकती है। जिस प्रकार गांव, गवर्नेंस ने यह साबित किया है कि उसके बगैर देष का विकास पूरी तरह सम्भव नहीं है इससे यह भी स्पश्ट है कि परिस्थितियों के साथ इस व्यवस्था में भी संषोधन होने चाहिए। उत्तराखण्ड ने जिस तरह अपने यहां पंचायती राज व्यवस्था को एक नई राह दी है उसे उचित ही कहा जायेगा। भारत के सभी राज्य यदि गांधी के उस आधार को साथ लेकर चलें जिसमें उन्होंने गांवों के विकास के बिना भारत की प्रगति सम्भव नहीं की बात कही है तो देष का भला जरूर होगा। गौरतलब है कि भारत दुनिया का दूसरा ऐसा देष है जहां सर्वाधिक जनसंख्या है और जनसंख्या विस्फोट के कारण कई बुनियादी समस्याएं पैर पसार चुकी हैं। हालांकि चुनाव लड़ने वाले मुट्ठी भर लोग हैं मात्र उन पर पूरा दारोमदार जनसंख्या को लेकर नहीं हो सकता पर आने वाले दिनों में इसका असर बढ़े हुए दर में दिख सकता है। 
उत्तराखण्ड का यह कदम देष के लिए भी एक माॅडल हो सकता है। अन्य प्रदेष भी देष की जनसंख्या को काबू में रखने के लिए कानून लाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। हालांकि पंचायती राज एक्ट के संषोधन विधेयक में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि किसी प्रतिनिधि के चुनाव जीतने के बाद तीसरी संतान होने पर क्या उसकी सदस्यता रद्द हो जायेगी। इसके अलावा कुछ अन्य बिन्दुओं को लेकर भी संदेह बरकरार है। अभी विधेयक विधानमण्डल ने पारित किया है राज्यपाल की सहमति नहीं मिली है पर इसमें कुछ और संषोधन की सम्भावना भविश्य में दिखाई देती है। सवाल यह भी है कि कई मामलों में जो काम सरकारें कर सकती हैं और जिनका देष या प्रदेष की भलाई से सीधा सरोकार है उस पर राजनीतिक नफे-नुकसान के चलते कदम उठाने में सरकारें हिचकिचा जाती हैं। यह नारा 4 दषक पुराना है कि हम दो, हमारे दो परन्तु इसे सख्ती से लागू नहीं कराया जा सका नतीजन जनसंख्या बेकाबू होती गयी और देष समस्याओं के गर्त में चला गया। उत्तराखण्ड ने जो पहल की है उसे हर हाल में बेहतर कहा जायेगा। अब इसके लागू होने की प्रतीक्षा रहेगी। इसमें कोई दुविधा नहीं कि लोकतांत्रिक विकेन्द्र्रीकरण ने विकास को बढ़ावा दिया पर बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधन ने समानांतर समस्याओं को भी बढ़ावा दिया। पानी, बिजली, षिक्षा, स्वास्थ, रोजगार समेत सभी के अभाव से आधा भारत रोज जूझता है। यदि जनसंख्या पर काबू पा लिया जाय तो इसे कम किया जा सकता है। इस दिषा में उत्तराखण्ड ने पंचायती राज व्यवस्था में दो बच्चे वाली अवधारणा लागू करके एक रोषनी की किरण तो दे दी है।
 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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