Monday, June 24, 2019

मूल अधिकार का उल्लंघन है परमिट

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये गये हैं जिन पर राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता उसे मौलिक अधिकार की संज्ञा दी गयी है। गौरतलब है कि देष के किसी भी हिस्से में भारत के प्रत्येक नागरिक आने-जाने की स्वतंत्रता है पर देष के भीतर कुछ स्थानों पर जाने की स्वतंत्रता नहीं है। यदि ऐसा है तो यह संविधान के आदर्ष और मूल अधिकार के लिए तर्क संगत नहीं कहे जा सकते। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर राज्य के कुछ हिस्सों में इनरलाइन परमिट की व्यवस्था के कारण आवाजाही बिना परमिट के सम्भव नहीं है। मुख्यतः यह परमिट भारत में इस समय तीन राज्यों मिजोरम, नागालैंण्ड अरूणाचल प्रदेष में ही पूर्ण रूप से लागू है। हालांकि इन राज्यों के अलावा दूसरे देषों के बाॅर्डर लाइन पर भी इस परमिट की आवष्यकता पड़ती है। अरूणाचल प्रदेष के तवांग, भलुकपोंग, बोमदिया और जिरो जबकि नागालैण्ड के कोहिमा, दीमापुर, मोकोकचुंग और पेरेन को इसमें देखा जा सकता है। सरसरी तौर पर 8 प्रमुख स्थान जो पर्यटन की दृश्टि से भी खासे महत्व के हैं वहां पर इनरलाइन परमिट यानि आईएलओ के होने से यहां के रोज़गार तो प्रभावित हो ही रहे हैं साथ ही संविधान का मौलिक आदर्ष का भी उल्लंघन दिखता है। पड़ताल बताती है कि बंगाल ईस्टर्न फ्रन्टियर रेगुलेषन 1873 की धारा 2, 3 और 4 इस फसाद की जड़ है। इसके चलते नागालैण्ड में नागा हिल्स जाने के लिए नागा मूल निवासियों के अलावा अन्य को परमिट लेना पड़ता है। इतना ही नहीं दीमापुर जिले को भी नागा हिल्स में षामिल करके वहां भी इस कानून के विस्तार का प्रस्ताव है जिसे सही करार नहीं दिया जा सकता। यह एक प्रकार से अपने ही देष में वीजा सिस्टम की तरह है जो मूल अधिकार में निहित अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव की मनाही), अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का सीधा उल्लंघन दिखाई देता है।

इस मामले में देष की षीर्श अदालत एक जनहित याचिका पर अगले महीने 2 जुलाई को सुनवाई करेगी। याचिका में स्पश्ट है कि इनरलाइन परमिट सिस्टम देष के भीतर वीजा सिस्टम की तरह है जो न केवल मूल अधिकार का उल्लंघन करता है बल्कि क्षेत्र विषेश का विकास और समग्र निवेष को भी नुकसान पहुंचा रहा है साथ ही आपसी विष्वास के लिए भी यह खतरा है। संदर्भ निहित बात यह भी है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 न्यायिक पुर्नविलोकन का एक सिद्धांत है जो मूल अधिकारों का आधार स्तम्भ भी है। इसके चलते पहले से लागू तथा भविश्य में बनाई जाने वाली सभी विधियों से मूल अधिकारों को संरक्षण मिलता है। यह अधिकार अमेरिका के संविधान से लिया गया है और न्यायालय ने इसे संविधान का मूल ढांचा माना जिसे संविधान संषोधन भी समाप्त नहीं कर सकता। इस अनुच्छेद में यह स्पश्ट है कि कोई भी विधि मूल अधिकारों से असंगत है या नहीं इसका निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जायेगा और असंगत की स्थिति में उसे अवैध व षून्य घोशित किया जा सकता है। बंगाल ईस्टर्न फ्रन्टियर रेगुलेषन कानून 1873 अंग्रेजों की एक सोची-समझी नीति थी और अपने निजी फायदे के लिए उन्होंने इसका निर्माण किया था पर संविधान लागू होने के लगभग 7 दषक पूरे होने के बावजूद अभी भी ऐसे कानून जिंदा हैं जो मूल अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं तो सवाल उठने लाज़मी हैं कि इसे पहले ही संज्ञान में क्यों नहीं लिया। हालांकि न्यायिक पुर्नविलोकन में एक पक्ष यह भी है कि संविधान लागू होने की तारीख से यदि कोई ऐसा कानून पहले से बना हो जो संविधान के लिए चुनौती हो उसे षून्य माना जायेगा तो फिर 1873 का यह एक्ट स्वतः षून्य क्यों नहीं हुआ और अखण्ड भारत में परमिट की व्यवस्था अभी भी जारी क्यों है? चूंकि अब सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह आया है तो सम्भव है कि इस पर भी न्याय होगा।
इस कानून को लाने में अंग्रेजी इरादों को भी समझना ठीक रहेगा। दरअसल बंगाल ईस्टर्न फ्रन्टियर रेगुलेषन 1873 के प्रावधान के अन्तर्गत अंग्रेज भारतीयों को नागालैण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाने वाली औशधीय और कई बहुमूल्य वनस्पतियों के लाभ से वंचित रखना चाहते थे। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देष्य उनका स्वयं का निजी लाभ था। इसके कारण ब्रिटिष सरकार ही उसका व्यापारिक लाभ उठा सकती थी और व्यापार में उनका एक अधिकार कायम रहा। देष की स्वतंत्रता के बाद भी यह कानून विस्तार लिए हुए है जो किसी भी तरह सुसंगत नहीं कहा जा सकता। कई भारतीय छुट्टियों में घूमने के लिए ऐसे स्थानों की योजना बनाते हैं जिसके लिए राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है। ठीक वैसे जैसे विदेषी नागरिक या भारतीय विदेष जाने के लिए वीजा आॅन अराइवल लेता है। दरअसल सीमावर्ती राज्यों एवं अन्तर्राश्ट्रीय सीमा से लगे इलाके संवेदनषील होते हैं इसी तरह इस तरह के इलाकों में इनरलाइन परमिट जारी किया जाता है। जो पर्यटन और नौकरी दोनों के लिए लेना पड़ता है। इसके अलावा इसकी जरूरत सीमावर्ती राज्यों जैसे लेह-लद्दाख के उन स्थानों पर भी होती है जहां की सीमा अन्तर्राश्ट्रीय बाॅर्डर से लगती है। याचिकाकर्ता का मानना है कि गुवाहाटी , दीमापुर व कोहिमा घूमने गये लेकिन उन्हें गुवाहाटी से ही आना पड़ा जो आष्चर्य की बात है। सरकार दीमापुर जिले में भी परमिट लागू करने की तैयारी कर रही है जो कि एक महानगरीय षहर है। ऐसा करने से भारत की अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर छवि खराब होती है। यह सही है कि नागा आदिवासियों को संरक्षण देने के लिए सरकार तर्कसंगत नियंत्रण तो लगा सकती है लेकिन अपने ही देष के हिस्से में आने-जाने के लिए परमिट जरूरी कर दे असंगत प्रतीत होता है। गौरतलब है कि दीमापुर नागालैण्ड का हिस्सा नहीं है और इसका मैदानी क्षेत्र असम में आता है और ऐसी जगहों पर परमिट व्यवस्था का होना रोजगार और गैर नागा जनजाति के लिए भी नुकसान होगा। हांलाकि यह मुद्दा देष में पहले भी उठा है। पहले कष्मीर में भी यह लागू था और इसी का विरोध करते हुए डाॅ0 ष्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दिया था और बिना परिमट कष्मीर गये थे जहां उनकी गिरफ्तारी हुई और बाद में हिरासत में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी तभी से कष्मीर से आॅनलाइन परमिट हटा दिया गया।
फिलहाल इनरलाइन परमिट की पूरी पड़ताल इस बात के लिए भी जरूरी है कि देष के संविधान और एकता और अखण्डता की दृश्टि से यह कितना असर डाल रहा है। हालांकि इसकी कुछ धाराएं मूल अधिकार को सीधे-सीधे चपेट में ले रही हैं। जिन राज्यों में इनरलाइन परमिट बनाने के नियम हैं वहां ये बाॅर्डर तो बना सकते हैं इसके अलावा दिल्ली, कोलकाता और गुवाहाटी में भी इसका आॅफिस है। पासपोर्ट साइज़ फोटो और सरकारी पहचान की इस हेतु जरूरत पड़ती है और इसमें आने वाला खर्च 300 रूपए तक का है। मिजोरम, अरूणाचल एवं नागालैण्ड के लिए 15 दिन के लिए परमिट मिलता है। इससे अधिक के लिए रिन्यूवल कराना पड़ता है। सुविधा की दृश्टि से ट्रेवल एजेन्सी भी घूमने के पैकेज में परमिट करा देती है। असम के जंगल और खनिजों का पूरा लाभ मिले, इसाई मिषनरी को विस्तार मिले, औशधीय सम्पदा का पूरा फायदा अंग्रेज उठायें इसी के लिए यह व्यवस्था थी। गौरतलब है कि तीनों प्रदेषों से म्यांमार, बांग्लादेष और भूटान व तिब्बत-चीन सीमाएं जुड़ी हैं षायद सीमा सुरक्षा के लिए भी इस परमिट का उपयोग होता होगा क्योंकि अवैध घुसपैठिये भी यहां खुले आम घूम सकते हैं पर भारतीयों के वहां जाने पर जो रोक-टोक है अब उस पर नये सिरे से विचार की तैयारी हो रही है। सम्भव है कि स्वतंत्र भारत में लागू मूल अधिकार का संरक्षण करते हुए न्यायालय इस पुराने कानून पर एक नई राह सुझायेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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