Monday, June 24, 2019

ईरान पर अमेरिकी हमला अमेरिकी विवशता


बढ़ते तनाव के बीच अमेरिका ने क्या वाकई में ईरान पर साइबर हमला किया है? सवाल इसलिए क्योंकि ईरान का हालिया जवाब कि अमेरिका की ओर से किया गया कोई हमला फिलहाल सफल नहीं हुआ। गौरतलब है कि अपना ड्रोन मार गिराये जाने के बाद अमेरिका ने ईरान की मिसाइल नियंत्रण प्रणाली और एक जासूसी नेटवर्क को निषाना बनाये जाने की बात कही गयी। वैसे तो अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 13 करोड़ अमेरिकी डाॅलर की कीमत वाले मानवरहित अमेरिकी निगरानी ड्रोन विमान को मार गिराये जाने के बाद ईरान पर सैन्य हमला कर देने की मंजूरी बीते 21 जून को ही दे दी थी पर हमला करने से पहले ही फैसला पलट दिया। न्यूयाॅर्क टाइम्स में प्रकाषित रिपोर्ट के अनुसार फैसले में षामिल या जानकारी रखने वाले वरिश्ठ प्रषासनिक अधिकारियों ने माना कि ट्रंप ने षुरू में रडार तथा मिसाइल बैट्रियों जैसे कुछ ठिकानों पर सैन्य हमले की मंजूरी दे दी थी और यह भी तय किया गया था कि हमला 21 जून की सूर्योदय से ठीक पहले होगा ताकि ईरानी सेना और वहां के नागरिकों को कम से कम खतरा हो। वांषिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट भी यह कहती है कि साइबर हमले से राॅकेट और मिसाइल प्रक्षेपण में इस्तेमाल होने वाले ईरानी कम्प्यूटरों को नुकसान पहुंचाये। फिलहाल अमेरिका का ईरान के खिलाफ अभी तो यह परोक्ष युद्ध दिखाई देता है पर स्थिति प्रत्यक्ष युद्ध की भी नकारी नहीं जा सकती और यह दुनिया के लिए चिंता का विशय होना चाहिए। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने 13 मई को कहा था कि हम आने वाले समय में देखेंगे कि ईरान के साथ क्या होता है। ट्रंप द्वारा ईरान पर हमले का फैसला वापस लेने के बावजूद खाड़ी क्षेत्र में तनाव फिलहाल कम होता दिखाई नहीं देता। वैसे देखा जाय तो अमेरिका के साथ तनाव बढ़ाने में ईरानी तेवर भी काफी योगदान कर रहे हैं। बीते 23 जून को ईरानी संसद ने सत्र के दौरान अमेरिका मुर्दाबाद के नारे लगाये और अमेरिका को दुनिया का असली आतंकवादी करार दिया। 
बड़ा सवाल यह है कि इस तनाव से किसे फायदा है और दुनिया को क्या मिलने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका अपने एकाधिकार के चलते ईरान का दिमाग ठिकाने लगाने निकला हो और हमला उसकी विवषता बन गयी हो। अमेरिका अनभिज्ञ नहीं है कि एक और खाड़ी युद्ध की पटकथा लिखने से उस पर क्या असर पड़ेगा। देखा जाए तो ट्रंप प्रषासन ने युद्ध के लिए कोई लक्ष्य घोशित नहीं किया है। वैसे भी ईरान एक ताकतवर और बड़ा देष है न तो आसानी से झुकेगा और न ही झुकाया जा सकता है। सवाल यह भी है कि ट्रंप चाहते क्या हैं। पड़ताल से लगता है कि ट्रंप परमाणु संधि पुर्नगठन, ईरान के मिसाइल प्रोग्राम पर कंट्रोल, सऊदी-यूएई के तेल व्यापार बढ़ाना और इज़राइल को खुष करने की चाल इस मामले में दिखती है। अमेरिका के साथ देषों में इज़राइल, कतर, सऊदी अरब और यूएई जबकि ईरान के संग रूस, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और यूरोपीय संघ खड़ा दिखता है। सम्भव है कि ईरान के पक्ष में खड़े देष अमेरिका से कोई सीधी टक्कर तो नहीं लेंगे पर ईरान की आंतरिक ताकत बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। खास यह भी है कि जिस परमाणु समझौते को लेकर अमरिका यह सब करने पर उतारू है उस दस्तावेज पर उसके अलावा चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन ने भी हस्ताक्षर किये थे। पष्चिमी एषिया के बिगड़ते हालात के बीच तेल बाजार में भी अस्थिरता दिख रही है। कोरिया के साथ 1953 के युद्ध के बाद अमेरिका ने जितने भी युद्ध लड़े उसने दूसरे देषों का साथ जरूर लिया पर इस समय की परिस्थिति तो ऐसी है कि यदि युद्ध छिड़ता है तो ब्रिटेन, सऊदी अरब, यूएई व इज़राइल को छोड़कर षायद ही कोई देष अमेरिका का साथ दे। चीन से लगातार ट्रेड वाॅर जारी है और ईरान से तेल खरीदने को लेकर लगी पाबंदी से बीते 2 मई से भारत जूझ रहा है। इतना ही नहीं बीते 5 जून से तरजीही देष का दर्जा भी अमेरिका ने भारत से छीन लिया है। इसे देखते हुए भारत ने भी पलटवार किया मौजूदा समय में द्विपक्षीय सम्बंध भी तनावग्रस्त हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो यही प्रतीत होता है कि डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के सामने स्वयं को इसलिए खड़ा किया है क्योंकि उसने पिछले साल 8 मई को अमेरिका के साथ हुए 2015 के परमाणु समझौते से हटने का एलान किया था। इसके बाद से ही तेल निर्यात को रोकने के साथ ही ईरान पर कई प्रतिबंध जड़ दिये गये। अमेरिका का कहना है कि उसके द्वारा की गयी कार्यवाही परमाणु कार्यक्रम और आतंकी गतिविधियों को लेकर की गयी है। इन सबके बावजूद एक सवाल यह भी है कि क्या अमेरिका और ईरान के रिष्ते पर केवल परमाणु समझौता ही एक बड़ा कारक रहा है। कहीं इसकी गांठ इतिहास के धुंधले पन्ने पर तो नहीं अटकी है। पड़ताल बताती है कि दोनों देषों के रिष्तों में 40 साल पुरानी एक गांठ है। जिसने दरार को बड़ा कर दिया। गौरतलब है कि 1979 में ईरानी क्रांति की षुरूआत हुई थी। तब तत्कालीन सुल्तान रेजा षाह पहल्वी के तख्तापलट की तैयारी हुई थी। असलियत यह भी है कि 1953 में अमेरिका की मदद से ही षाह को ईरान का राज मिला था और उसने अपने कार्यकाल में ईरान के भीतर अमेरिकी सभ्यता को फलने-फूलने तो दिया लेकिन कई प्रकार के अत्याचार भी देष के भीतर किये। स्थिति को देखते हुए धार्मिक गुरू सुल्तान के खिलाफ हो गये और 1979 एक ऐसी क्रांति को जन्म दिया जिसने ईरान की सूरत बदल दी। तब तत्कालीन सुल्तान ने अमेरिका की पनाह ली और इसी साल ईरान पर इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू किया गया था। ईरानी रिवोल्यूषन के विद्रोही सुल्तान की वापसी चाहते थे उन पर आरोप था कि खूफिया पुलिस की मदद से ईरान के ऊपर सुल्तान ने कई अपराध किये हैं। इस मांग को अमेरिका ने खारिज कर दिया। इस मामले को वियना संधि के खिलाफ बताते हुए तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति ने बाकायदा आर्मी आॅपरेषन ईगल क्लाॅ की मदद से बंधकों को छुड़ाने की कोषिष भी की जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। इस आॅपरेषन के बाद ईरान के कई अमेरिका से सम्बंध रखने वाले नागरिकों को देष निकाला दिया गया, उन्हें नजरबंद किया गया उक्त बर्ताव के चलते अमेरिका और ईरान के रिष्ते बेहद खराब हो गये।
वैसे अमेरिका को अलग-थलग पड़ने का डर भी सता रहा है। ट्रंप कुछ भी हो एक और युद्ध में फंसना नहीं चाहते होंगे। अमेरिका के रक्षा मुख्यालय पेंटागन ने ताजा समीक्षा में कहा है कि ईरान की नौसेना पर अमेरिका 2 दिन के अंदर कब्जा कर लेगा। हर मोर्चे पर ईरान को वह तबाह कर देगा। वैसे एक सच यह भी है कि अमेरिका ईरान पर कूटनीतिक दबाव कितना भी बना ले पर प्रत्यक्ष आक्रमण से स्वयं को रोकना चाहेगा क्योंकि ट्रंप अन्तहीन युद्ध से अलग दिषा में चलने वाले राश्ट्रपति हैं और अपना फायदा, नुकसान अच्छी तरह जानते हैं। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने हालिया बयान में कहा है कि यदि ईरान परमाणु हथियार की इच्छा छोड़ दे तो मैं उसका सबसे अच्छा दोस्त बनूंगा। दुनिया में तनाव या युद्ध दो पड़ताल का अवसर देती है पहला उसका दोस्त कौन है? दूसरा उसका दुष्मन कौन है? विडम्बना सिर्फ यही नहीं है कि अमेरिका और ईरान के बीच तनातनी है बल्कि पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा के दौर में ईरान के साथ जो बेहद महत्वाकांक्षी समझौता हुआ था आज उसी को लेकर मामला युद्ध के दरवाजे पर खड़ा है। ट्रंप की बार-बार धमकी और ईरान द्वारा उस धमकी के प्रतिउत्तर के कारण स्थिति बेकाबू होती चली गयी। तेहरान द्वारा अपनी सीमा में अमेरिकी ड्रोन बताकर मार गिराना और अमेरिका द्वारा साइबर हमला युद्ध के चरम को प्रदर्षित कर रहा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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