Tuesday, August 8, 2017

कांग्रेस विहीन भारत का मतलब

जब सितम्बर, 2013 में भाजपा के तत्कालीन राश्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर कार्यरत् नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव हेतु प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में भारतीय लोकतंत्र में परोसा तब मोदी ने अपने साख और कूबत को समूचे देष में प्रासंगिक बनाने के लिए कांग्रेस विहीन नारे को इजाद किया। छः करोड़ गुजरातियों के बीच सत्ता की हैट्रिक लगाने वाले मोदी अपनी पार्टी में सबसे अधिक कूबत वाले नेता के तौर पर न केवल उभरे बल्कि 2014 में उम्मीद से अधिक नतीजे भी दिये। 70 साल के इतिहास में 55 साल कांग्रेस तो बाकी समय की सरकार कमोबेष विपक्ष के हिस्से में ही रही है। मोरारजी देसाई से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक और अब स्वयं मोदी की सरकार इस श्रेणी में आती है। सूत्र वाक्य यह है कि 2014 के लोकसभा के चुनाव के पहले किसी भी विरोधी में न तो ऐसी कूबत थी न ही ऐसी सोच कि देष को कांग्रेस विहीन कहने की हिम्मत दिखाये पर मोदी दोनों काम करते दिख रहे हैं कांग्रेस विहीन नारे को बुलंद भी कर रहे हैं और इसके लिए जान भी लड़ा रहे हैं। गौरतलब है कि मोदी के प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के साथ ही एनडीए के घटक दलों में तोड़फोड़ हुई थी। बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीष उसी समय अलग हुए थे जो पखवाड़े भर पहले एक बार फिर उसी में समा गये। फिलहाल इस मुद्दे से आगे बढ़ते हुए इस प्रसंग को समझना है कि क्यों मोदी कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं। क्या इसके पीछे उनकी मंषा बिना विपक्ष की सत्ता चलाने से है या फिर विपक्ष को अपाहिज करके मैस्लो के उस सिद्धान्त की ओर जाना चाहते हैं जिसे ‘सेल्फ एक्चुलाइजेषन‘ कहा जाता है। 
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने माना कि कांग्रेस विहीन भारत वाली मोदी की चाहत को वो गम्भीरता से लेते हैं पर उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस के विचार की षुरूआत क्यों हुई उस पर भी गौर करने की जरूरत है। गौरतलब है कि कांग्रेस की षुरूआत 1885 में भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में हुई थी जब देष औपनिवेषिक सत्ता से जकड़ा हुआ था। जिस कांग्रेस को मोदी समाप्त करना चाहते हैं उसी कांग्रेस की छतरी तले गांधी ने भी अंग्रेजों की दषकों लानत-मलानत की। अफ्रीका से जब गांधी 1915 में भारत आये और पहले सत्याग्रह में बिहार के चम्पारण गये जिसका 100वां वर्श फिलहाल चल रहा है। उस समय भी देष में विस्तृत कांग्रेस की विचारधारा से वे वाकिफ थे। असहयोग आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन या अंग्रेजी वायसरायों के साथ बैठकर समझौता करने की बात रही हो बिना कांग्रेस के भारत का पक्ष कभी पूरा नहीं हुआ। यहां तक कि 1923 में बनी स्वराज पार्टी भी कांग्रेस का दाहिना हाथ ही थी। 1929 में लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेषन के दौरान रावी नदी के तट पर 26 जनवरी 1930 को झण्डा लहरा कर पूर्ण आजादी की कसम खाई गयी थी। आज इसी दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है और यही भारतीय संविधान लागू होने का दिन भी है। लंदन के तीन गोलमेज सम्मेलन में इतिहास उसी सम्मेलन को भारत के नेतृत्व के तौर पर मानता है जिसमें कांग्रेस की उपस्थिति थी। जाहिर है द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से गांधी षामिल हुए थे। दो टूक यह भी है कि राश्ट्रवादियों ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर देष की आजादी के लिए हर मौके पर स्वयं को खड़ा किया पर इस झुण्ड को एकीकृत करने में गांधी समेत कई अन्य नेता और कांग्रेस को ही इतिहास में दर्षाया गया है। विरोधाभास तो यह भी है कि महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद एवं पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के बगैर मोदी की दिनचर्या अधूरी रहती है जबकि 1924 में बेलगाव के कांग्रेस अधिवेषन की अध्यक्षता स्वयं महात्मा गांधी ने की थी। यदि कहा जाय कि जिस गांधी के बगैर मोदी के सपने अधूरे हैं उस गांधी ने देष की आजादी के लिए कांग्रेस के सपनों के साथ हर कदम पर साथ रहे और यही बात कांग्रेस की गांधी के साथ लागू होती है पर यह बड़ा विरोधाभास है कि मोदी को केवल गांधी चाहिए कांग्रेस नहीं।
हांलाकि एक सच यह भी है कि गांधी स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को बनाये रखने के पक्ष में नहीं थे पर इन बातों से ऊपर उठकर देखा जाय तो कांग्रेस लोकतंत्र से सत्ता हथियाई थी न कि कोई छीना-झपटी की थी। 70 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में इस बात का मंतव्य कांग्रेस में कितना रहा है कि विपक्ष हो ही न यह कह पाना मुष्किल है। नेहरू का यह वक्तव्य कि उनके नीतियों की भी आलोचना हो ताकि व्यवस्था समूचित रहे। इस बात का पुख्ता सबूत है कि विपक्ष विहीन सोच कांग्रेस नहीं रखती थी। बाद के कालों में इसकी गुंजाइष बनी है पर विपक्ष के बगैर देष न तो लोकतांत्रिक हो सकता है और न ही जनहित में। ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस विहीन भारत के पीछे मोदी का इरादा देष को विपक्ष विहीन करना तो नहीं है या फिर कांग्रेस रूपी विपक्ष मात्र से छुटकारा पाना है। हालांकि यह सब बातें जनता पर टिकी हैं पर जिस कदर मोदी कांग्रेस विहीन भारत की अवधारणा को लेकर जनमानस को उकसाया है मौजूदा स्थिति में उसे लेकर लगातार कामयाब भी हो रहे हैं।
राहुल गांधी 2013 से कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं जबकि सोनिया लगातार कई वर्शों से अध्यक्ष हैं। खास यह भी है कि 1998 में बिना किसी सदन के सदस्यता के बगैर सोनिया गांधी को ठीक उसी तर्ज पर कांग्रेस पार्लियामेंटरी कमेटी का चेयरमैन चुना गया जैसे 1970 में इन्दिरा गांधी चुनी गयी थी। राजीव गांधी की हत्या के 6 साल बाद जब उनका राजनीति में आगमन हुआ तो पार्टी में सत्ता के दो केन्द्र बनने लगे थे। यहीं से कांग्रेस का आन्तरिक लोकतंत्र एक बार फिर खानदानी मिजाज से ग्रस्त हुआ। हालांकि 2004 के चुनाव में वाजपेयी को पटकनी देते हुए कांग्रेस वामपंथियों के साथ मिलकर सत्ता में वापसी कर ली पर हो रहे नुकसान पर लगाम नहीं लगा पाये और यूपीए-2 में तो भ्रश्टाचार का पुलिंदा इतना मोटा हो गया कि मोदी को कांग्रेस विहीन भारत कहने में कोई गुरेज नहीं हुआ। राहुल गांधी को आगामी प्रधानमंत्री के रूप में परोसने की फिराक में भी कांग्रेस को काफी नुकसान हुआ है। मोदी जानते हैं कि कांग्रेस संरचनात्मक और कार्यात्मक दृश्टि से देष के कोने-कोने में है और मुकाबले में भी कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाय तो कांग्रेस ही है। हालांकि अब कांग्रेस का किला बहुत ढह चुका है पर चुनौतियां तो अभी भी बाकी हैं। वैसे मोदी कांग्रेस विहीन के साथ विपक्ष विहीन की अवधारणा पर भी कदम बढ़ा चुके हैं। बिहार में बदली सियासी दांव-पेंच में बिना किसी खास प्रयास के सत्ता उनकी गोद में आकर बैठ गई और लगभग दो साल पुरानी हार बिना किसी खास प्रयास के जीत में बदल गयी। सुगबुगाहट यह भी है कि तमिलनाडु की सरकार चला रहे एआईडीएमके एनडीए का हिस्सा बनेंगे। जाहिर है दक्षिण का यह राज्य भी उन्हीं के प्रभाव में आने वाला है। पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और मोदी के बीच 36 के आंकड़े में रत्ती भर की कमी नहीं आई है। जाहिर है आगामी चुनाव में देर-सवेर बड़े वार से पष्चिम बंगाल भी नहीं बचेगा। गुजरात में चुनाव होने वाला है और कांग्रेस वहां भी पतझड़ की अवस्था में है चुनाव से पहले उत्तराखण्ड में भी कांग्रेस टूटी थी और हश्र इतना बुरा हुआ कि 70 के मुकाबले 11 सीटों पर ही सिमट गई। खास यह भी है कि कुछ महीने पहले मिजोरम और गोवा में कांग्रेस से कम सीट जीतने वाली भाजपा सत्ता में आई। बीते 20 जुलाई एवं 5 अगस्त को रामनाथ कोविंद राश्ट्रपति एवं वैंकेया नायडू उपराश्ट्रपति के लिए चुने गये जो एनडीए से ही सम्बन्धित रहे हैं। प्रधानमंत्री एवं लोकसभा स्पीकर समेत ये सभी चारों संवैधानिक पद पर ऐसा पहली बार हुआ है जब कांग्रेस विहीन व्यक्तित्व विराजमान हुए हैं। फिलहाल कांग्रेस पर से जनता का उठता विष्वास और मोदी के प्रगाढ़ होते रिष्ते भी कांग्रेस विहीन भारत की अवधारणा को बलवती कर रहा है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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