Monday, August 14, 2017

सत्तर साल की स्वाधीन ऊर्जा


आज पूरे देश में आजादी की 70वीं वर्षगांठ को लेकर ख़ुशी की लहर दौड़ रही है और यह होना भी चाहिए आखिरकार सैकड़ों वर्षों की गुलामी और इतने ही वर्शों के संघर्श का नतीजा आज की हमारी स्वतंत्रता है। अब तक 70 बार स्वतंत्रता दिवस मनाने का अवसर मिल चुका है पर हर बार जब यह लेखा-जोखा होता है कि अंतिम पंक्ति में खड़े कमजोर षरीर और धुंधली रोषनी वालों के लिए इस आजादी के क्या मायने हैं तब अनायास ही मन में कई सवाल पनप जाते हैं। जितने बड़े सपनों से भारत को सींच कर पाला-पोसा गया क्या वाकई में पैदावार भी उसी दर्जे की हुई है इस सवाल के उत्तर की फिराक में सत्तर साल का भारत आज भी दो-चार होता है। पहली बार भारत में जब पहली लोकसभा के चुनाव 1952 में हुए तब 17 करोड़ लोगों ने वोट डाला था और तब के राजनेताओं ने उन्हें यह सपना दिखाया था कि वास्तव में हम आपके लिए जमीन पर वह सबकुछ उतारेंगे जिसकी चाह में आपका जीवन ठहरा हुआ है। दषकों बीत गये चुनाव दर चुनाव होते गये और सपनों का अम्बार भी लगा। क्रमिक तौर पर अन्ततः 16वीं लोकसभा का चुनाव भी मई 2014 में आखिरकार उन्हीं तमाम सपनों और उम्मीदों के साथ सम्पन्न हुआ तब मतदाता 80 करोड़ के आसपास थे। अन्तर मात्र इतने का है कि जब लोकतंत्र उशाकाल में था तब मौजूदा समय के अनुपात में सपने बोये गये थे और अब जब लोकतंत्र सात दषक की यात्रा तय कर चुका है तब भी दौर के अनुपात में जनमानस की आंखों में सपने भरने का सिलसिला बादस्तूर जारी है। राग वही है, सुर-ताल वही है कि वर्गों में बंटे समाज और हाषिये पर जा पहुंचा जनमानस वाकई में स्वाधीनता के इस 70 साल की खुषी को स्वयं में रचा-बसा पा रहा है।
पीले पड़ गये पन्नों को उधेड़ा जाय तो इतनी बढ़ी स्वाधीनता की यात्रा को समझना कोई दुरूह कार्य नहीं है। देष स्वाधीनता को लेकर जितना पुराना होता गया जनमानस की भावना को उतना ही उकसाता भी गया। समय के साथ देष की जनसंख्या बढ़ी साथ ही ज्ञान-विज्ञान और तकनीक में भी बढ़ोत्तरी हुई, जीवन स्तर को ऊंचा उठाने को लेकर एड़ी-चोटी का जोर भी लगाया गया। बावजूद इसके बुनियादी खामियों का रोना बंद नहीं हुआ। 1951 की पहली जनगणना में 36 करोड़ की जनसंख्या और 18 फीसदी से थोड़ी ही ज्यादा साक्षरता थी। 2011 में यही जनसंख्या 121 करोड़ और साक्षरता 75 फीसदी के आसपास हो गई। ताजे आंकड़ों पर भी गौर करें तो पांचवीं पंचवर्शीय योजना से गरीबी उन्मूलन को लेकर उठाया गया कदम आज भी हांफता दिखाई देता है। हर चैथा व्यक्ति आज भी गरीबी से जूझ रहा है। यह तब है जब आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेष किया जाता है। यदि विष्व बैंक के आंकड़ों पर गौर करें तो मामला दोगुने के आस-पास है। फिलहाल बदलते दौर के अनुपात में संसाधन जुटाने और उसके अनुप्रयोग को लेकर हर सत्ताधारी ने साफगोही से अपना-अपना पक्ष रखा पर टीस इस बात की है कि हालत फिर भी इतनी खराब क्यों है। दक्षता बढ़ी है जीवन इंटरनेट, फेसबुक, व्हाट्सअप सहित अनेक तकनीकों के चलते हाईटैक हुआ है। कहें तो बोतल बंद पानी की प्रथा भी देष में खूब प्रचलित हो चुकी है ये बात और है कि साढ़े छः लाख से अधिक गांव से भरे भारत में अभी भी दो लाख गांव बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। षहरी और ग्रामीण जीवन का अंतर भी बीते 70 सालों में काफी ऊंच-नीच के साथ रच-बस गया है। षहरों का बाजारवाद और संरचनात्मक विकास ने लोगों के मूल्य एवं मानव होने के एहसास में मानो चैगुना वृद्धि कर दिया हो जबकि खेती किसानी वाले तीन लाख से अधिक लोग बीते तीन दषकों से स्वाधीन भारत में स्वेच्छा से जीवन त्याग चुके हैं। कहने के लिए तो यह अन्नदाता हैं पर दुनिया को रोटी देने वाले स्वयं ही दो निवाले के लिए तरस गये और फांसी लगाना उनके लिए आसान काज बना। जिस कदर अन्नदाताओं ने मौत को गले लगाया है उससे साफ है कि उन्होंने अपना मूल्य सिफर और मोल दो कौड़ी का समझा। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि चमक सबकी आंखों में है पर चमकती चीज देखने का अवसर 70 सालों के बाद अभी भी सभी के लिए नहीं है।
हमारे पास प्राकृतिक संसाधन हैं क्योंकि हमारी पिछली पीढ़ियों ने इसको संजो कर रखा है। हमें भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा ही करना होगा। यह बात प्रधानमंत्री मोदी ने इसी माह के षुरू में कही थी। दुनिया को आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन से अधिक खतरा है। यह भी इक्कसवीं सदी की मूल चिंता में षामिल है। आजादी सत्तर साल की तो समस्या भी सात सौ से अधिक होगी ही। हालांकि कई राजनेता यह दावा करते दिख जायेंगे कि सत्तर सालों में वो नहीं हुआ जो तीन सालों में मोदी सरकार ने कर दिखाया बेषक प्रधानमंत्री मोदी के क्रियाकलापों से बेहतरी के सारे आयाम विकसित होते हों पर सच्चाई तो यह है कि इनके कार्यकाल में भी स्वाधीनता का स्वाद कईयों के लिए कसैला ही रहा। गरीबी, अषिक्षा, बेरोजगारी एवं चिकित्सा समेत बुनियादी संरचना को लेकर अभी भी कवायद जारी है पर मंजिल दूर है। आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास की थी। इसका उल्लेख इसलिए क्योंकि इसके ठीक पहले 1991 में देष उदारीकरण की राह पकड़ी थी। इसके माध्यम से न केवल समस्याओं से निजात पाना था बल्कि आर्थिक व तकनीकी दक्षता को अपनाकर ऊर्जा से स्वयं को भरना भी था। दो टूक यह भी है कि स्वाधीनता का पूरा अर्थ उर्जा उन्मुख होना ही है पर इस सवाल के साथ दुविधा बढ़ी है कि क्या सत्तर साल की स्वाधीनता देष को उर्जावान बनाया है। आखिर इसे प्राप्त करने के लिए जिन लक्ष्यों की पूर्ति करनी थी उस पर खरे उतरे हैं। 
स्वाधीनता के मायने कई अर्थों में हो सकते हैं जो स्त्री-पुरूश समेत सभी वर्गों में भिन्न स्थान रखते हैं। इसी स्वतंत्रता के अंतर्गत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता की भी लौ जलती है पर कईयों का यहां चिराग भी बुझा है। गोरखपुर के एक अस्पताल में 50 से अधिक बच्चों की मौत इसलिए हो गयी क्योंकि 69 लाख बकाये के चलते आॅक्सीजन की आपूर्ति रोक दी गयी और यह 70वीं स्वाधीनता दिवस के ठीक पांच दिन पहले हुआ। क्या ऐसी घटनाओं के साथ स्वाधीनता ऊर्जावान कही जायेगी। गरीबी, बीमारी समेत बिगड़े कानून-व्यवस्था व अन्य मानकों को स्पर्ष करें तो नतीजा बहुत संतोशजनक नहीं है परन्तु अंतरिक्ष समेत दूसरे ग्रहों मसलन मंगल तक की पहुंच इस बात का द्योतक है कि रेस में हम पीछे भी नहीं हैं। क्रमिक तौर पर देखें तो कुछ उदाहरण उर्जा से देष को ओत-प्रोत करते हैं। स्वाधीनता के तुरन्त बाद 1948 में लंदन ओलम्पिक में भारतीय हाॅकी टीम ने अपना पहला गोल्ड मेडल जीता। 1954 में अटाॅमिक एनर्जी प्रोग्राम लाॅच करने वाला भारत पहला देष बना। 1961 में गुटनिरपेक्ष देषों की पहली बैठक का भारत नेतृत्व किया। 1971 में बांग्लादेष को पाकिस्तान से मुक्त कराकर दुनिया को लोकतंत्र की ताकत दिखाई। 1976 में बंधुआ मजदूर प्रथा बंद करना, 1980 में चेचक से मुक्ति और 1982 में एषियन गेम्स की मेज़बानी करके खेल की दुनिया में भी धमक बढ़ाई। 1983 में क्रिकेट का वल्र्डकप जीता और ठीक एक साल बाद अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले देषों में भारत भी षुमार हुआ। तत्पष्चात् उदारीकरण, वैष्वीकरण और पष्चिमीकरण के फलस्वरूप दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ देष को दुविधा से निकालते हुए उसी दुनिया की चुनौतियों के लिए भारत को सषक्त किया गया। सबके बावजूद खामियां अभी भी हैं पर इस बात की तसल्ली और खुषी होनी ही चाहिए कि आज स्वतंत्रता का 70वां सालगिरह मना रहे हैं।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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