Saturday, February 11, 2017

उत्तर और दक्षिण की राजनीति


इन दिनों देष में पांच विधानसभा में चुनावों की तपिष देखी जा सकती है और यह इस कदर बढ़ी है कि देष का सियासी पारा उम्मीद से कहीं ऊपर चला गया है। उत्तर में चुनाव की सरगर्मी जोरों पर है तो दक्षिण में जयललिता के बाद कुर्सी की छीना-झपटी के चलते तमिलनाडु का तापमान भी बढ़ा हुआ है। हालांकि गोवा विधानसभा का चुनाव भी दक्षिण की सियासत को कुछ गर्म किए हुए है जबकि मणिपुर पूर्वाेत्तर की सियासत को। उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड  और पंजाब में कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी सहित कईयों की सरकार बचाने की कवायद भी सियासी पारे को ऊंचाई दिये हुए है। रही सही कसर दिल्ली की सियासत में प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी कर दी। दरअसल राजसभा में बीते दिन प्रधानमंत्री मोदी के उस कथन से सियासी लोगों की भवें तब तन गई जब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निषाने पर लेते हुए यह कह डाला कि रेनकोट पहनकर नहाने की कला तो कोई डाक्टर साहब से सीखे । देखा जाए तो यह आम है कि यूपीए-2 के षासनकाल वर्श 2009 और 2014 के बीच कई घोटालों का खुलासा हुआ था जिसे लेकर उक्त बयान मोदी की ओर से आया था। एक तरफ उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब तथा गोवा समेत मणिपुर में विधानसभा चुनाव मुहाने पर है तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में जो हो रहा है वो तो हो ही रहा है। इसके अलावा वे लोकसभा और राज्यसभा में भी कुछ हद तक वे चुनावी रैली के अंदाज में ही बात करते देखे गए है। इसका पुख्ता सबूत यह कि जब उन्होंने बीते दिन लोकसभा में स्पीकर महोदया कहने की बजाय भाईयों और बहनों कह दिया। राजनीति और उससे प्राप्त होने वाले रसूक को लेकर राजनेता कहीं पर भी चूक नहीं करना चाहते। मौका अच्छा था  कांग्रेसियों ने लपक लिया और मोदी की लानत-मलानत षुरू हो गई। हालांकि अन्यों को भी यह अखरा है कि बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाने की अवधारणा जैसे वक्तव्य प्रधानमंत्री कद के व्यक्ति को षोभा नहीं देता है। आलोचना के लिए वैकल्पिक षब्द खोजे जा सकते थे पर मोदी बड़बोलेपन के कारण कुछ ऐसा कर जाते है जो विरोधियों को ही नहीं अखरता बल्कि स्वयं के लिए भी मुष्किल बढ़ा लेते है। 
जाहिर है जब चुनावी समर हो तो सब कुछ ठीक नहीं चलता और उथल-पुथल ऐसे दिनों में प्रभावी रहते है। बड़े से बड़ा नेतृत्व भी बारीक गलतियां करने से चूक नहीं करता है। तर्क तो यह भी दिया जाता है कि एक करिष्मागार नेता वह है जिसके पास चूक की गुंजाइष नहीं बल्कि अपने संदेषों से जनता को आकर्शित कर लेता है पर इन दिनों  वह भी चूक कर बैठता है। नेतृत्व के कई उपबंध होते है ऐसे में कई भूले-बिसरे नायक भी रसूक बढ़ाने की फिराक में रहते है। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों तरीके से सेंधमारी का डर भी बना रहता है। चुनावों के दिन राजनेता अपने राजनीतिक उद्यम को दूसरे के मुकाबले काफी मुनाफे वाला तो पेष करते है पर जनता के सामने कहीं अधिक मजबूर व कमजोर बने रहते है। लोकतंत्र की यहीं परिपाटी रही है कि चुनावी महोत्सव में जनता सषक्त और कोर में होती है भले ही चुनाव के बाद उसकी सुध लेना वाला कोई न हो।  उत्तर प्रदेष को जीतने की जद् में भारतीय जनता पार्टी अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है जबकि उत्तराखण्ड उसके नाक की लड़ाई बनी हुई है। स्थिति को भांपते हुए अखिलेष ने अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए राहुल गांधी का साथ लिया। दूसरे षब्दों में कहे तो कांग्रेस अपने वाजूद को बचाने के लिये समाजवादी पार्टी को अंगीकृत किया है। इसका एक तीसरा अर्थ यह भी है कि दोनों  वक्त की नजाकत को देखते हुए एक दूसरे की जरूरत बन गए है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेष का साथ पाकर राहुल काफी इत्मिनान महसूस कर रहे है। ठीक उसी तर्ज पर जैसे बिहार में नीतीष और लालू के साथ अपने वाजूद को कायम रखने में सफल रहे है। गठबंधन की राजनीति भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वैसे तो तीन दषक पुरानी है पर इसकी बिसात कहीं बिछती है, कहीं बिछानी पड़ती है और कुछ को इसकी जरूरत नहीं पड़ती जैसे इन दिनो भाजपा को और उन दिनों कांग्रेस को। 
चुनाव के पूर्व आंकड़ें इस बात पर जोर दे रहे है कि पंजाब में कांग्रेस की वापसी हो रही है। यदि पूरी पड़ताल पर थोड़ा भी विष्वास किया जाए तो दुनिया जीतने का मांदा रखने वाली भाजपा पंजाब में अकाली दल के साथ तीसरे नम्बर की पार्टी हो सकती है। हालांकि परिणाम आने तक कुछ कह पाना पूरी तरह संभव नहीं है। गोवा और मणिपुर 40-40 सीटों वाले विधानसभा से युक्त प्रदेष है। यहां की हार-जीत फिलहाल देष की सियासत पर कोई भूचाल लाने में किसी प्रकार का स्थान नहीं घेर पाती। ऐसे में वार-पलटवार की सियासत का राश्ट्रीय राजनीति में इसका स्थान गौण ही कहा जाएगा। इन दिनों दक्षिण की राजनीति भी बूते के बाहर जा रही है, सत्ता की चाहत में चीजंे अस्त-व्यस्त हुई है। जयललिता के उत्तराधिकारी मुखिया बनने की चक्कर में दो-दो हाथ कर रहे है। देखा जाए तो  तमिलनाडु भी भरभरा है, यहां जारी राजनीतिक अनिष्चिता सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के साथ ही भारतीय राजनीति का भी संकट है। यदि यहां उत्पन्न संकट का समाधान मूल्यों और मर्यादाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया गया तो लोकतंत्र के इतिहास में एक और उपहास देखने को मिल सकता है। इस संभावना मात्र से आष्चर्य होता है कि जिस महिला ने कभी लोकतंत्र की ढिहरी भी न लांघी हो, जिसका सार्वजनिक जीवन न हो तथा उसमें किसी प्रकार का योगदान न रहा हो और वह तमिलनाडु जैसे बड़े प्रांत की मुखिया बनना चाहे तो अपने आप में लोकतांत्रिक त्रासदी सा प्रतीत होता है। जयललिता के करीबी षषिकला सत्ता हथियाने को लेकर इतनी उतावली है यह भी हैरान करने वाली बात है। तत्कालीन मुख्यमंत्री पन्नीर सेल्वम ने इस्तीफा तो दे दिया पर अब उन्हें भी एहसास हुआ है कि उत्तराधिकार के मामले में वहीं बेहतर विकल्प है। 130 विधायकों के समर्थन का दावा करने वाली षषिकला का इस तरह मुख्यमंत्री बनने की लालसा कईयों को अखर रहा है। सरकार के लिये दावा पेष करने वाली षषिकला जयललिता के असली उत्तराधिकारी स्वंय को समझती है पर षायद वह यह नही समझ पा रही है कि सरकार जनता के समर्थन से चलती है उत्तराधिकार से नहीं। हालांकि विधायकों की सूची यह संकेत करती है कि जनता उनके साथ है पर दो टूक यह भी है कि दक्षिण की राजनीति उफान पर है और तमिलनाडु संकट में है।
बिखरी व्यवस्थाओं को समेटना और तिनका-तिनका जुटा कर सियासत को हांकने की कला सब में नहीं होती है। नेतृत्व और प्रबंधन के मामले में जो पिछड़ता है उसका राजनीतिक रसूक भी रसातल मंे चला जाता है। देखा जाए तो इन दिनों प्रदेषों के चुनाव में दो कदम आगे चल रही भाजपा भारत के कोने-कोने में कमल खिलाना चाहती है पर मोदी के चेहरे के भरोसे। यह हतप्रभ करने वाली बात है कि भाजपा राश्ट्रीय दलों में बेषुमार रसूक रखती है। केन्द्र समेत 14 राज्यों में इस समय सरकार पर काबिज है। पार्टी कैडर इतना विस्तृत होने के बाद चेहरा परोसने में फिलहाल उसे नाकामयाब ही कहा जाएगा। उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड के विधानसभा को जीत कर राजसभा का मार्ग सुनिष्चित करने की इच्छा रखने वाली भाजपा यहां मुख्यमंत्री के दर्जनों नाम तो गिना देगी पर चेहरा किसी का आगे नहीं है। फिलहाल देष की सियासत में तापमान सातवें आसमन पर है । उत्तर के साथ दक्षिण में सियासी हलचलें जोरों पर है, कुछ को सरकार बनानी है, कुछ को बचानी है पर जिसके बूते पर यह सब होगा उसकी सुध लेने की मामले में यह कितने गंभीर होते है इससे भी षायद ही कोई वाकिफ न हो ।

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