Wednesday, February 8, 2017

गुड गवर्नेंस को चाहिए गुड पॉलिटिक्स

लोकतंत्र केवल एक षासन पद्धति नहीं बल्कि एक जीवन्त प्रणाली है। ऐसे में इसके आदर्षों को केवल राजनीतिक क्षेत्रों तक सीमित रखना  षायद पूरी तरह तर्कसंगत नहीं है। यह सत्य है कि जब तक जनता में सामाजिक और राजनीतिक चेतना उत्पन्न नहीं हो जाती तब तक लोकतांत्रिक पद्धति की सफलता संभव नहीं है। जब हम कहते है कि समाज के आर्थिक ढांचे के बुनियाद पर ही मनुश्य की अन्य सभी क्षेत्रों की प्रणाली का ढ़ाचा खड़ा होता है तो इसके लिये आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा को उद्घाटित करना ही होता है जो गुड पाॅलटिक्स थ्योरी के अभाव में बीते 7 दषकों से भारत में पूरी तरह विस्तार नहीं ले पायी है। जब हम यह सोचते है कि गुड गर्वनेंस आने से या इसके देष भर में फैलाव होने से जनता सषक्तिकरण की ओर चली जाएगी तब भी हमें गुड पाॅलटिक्स की ही दरकार रहती है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते है कि जिस जमाने में आज का भारत है वहां विकास की विवेचना करते हुए विद्वानों की पूरी श्रृंखला मिल जाएगी। बावजूद इसके सब कुछ पाॅलटिक्स में रचने-बसने के कारण या तो समस्या खतरें के निषान के ऊपर है या फिर समाधान भविश्य के खतरें से अंजान है। जिससे गुड गर्वनेंस का पूरा  ताना-बाना रस्म अदायगी तक ही रह जाता है। इन दिनों देष में राजनीति गर्म है साथ ही चर्चा-परिचर्चा भी गर्माहट  लिये है। राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ है कि छल-बल-धन जैसे भी हो सत्ता की जिम्मेदारी उन्हीं को मिले। हालांकि आदर्ष आचार संहिता उत्तर प्रदेष उत्तराखण्ड से लेकर पंजाब, गोवा और मणिपुर तक पसरा है फिर भी नियतिवाद और नवनियतिवाद के खेल में राजनीतिज्ञ बेहतर खिलाड़ी की फिराक में  इसकी धज्जियां भी उड़ा रहे है। सैंकड़ों प्रत्याषी ऐसे मिल जाएगें जो विधायिका में पहुंचना तो चाहते है पर अनगिनत दागों से मुक्त नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनीतिक सत्ताओं के द्वारा ही गुड गर्वनेंस को ऊंचाई मिलती है पर क्या गुड पाॅलटिक्स भी देष में होती है इस पर विचार होना दौर के अनुपात में लाजमी प्रतीत होता है। 
हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि जब साम्राज्यवाद जनता का षोशण करके पनपता है तो लोकतंत्र में जनविकास न देकर राजनीतिक रोटियां सेंकना आखिर किस तंत्र का परिचायक है। कांग्रेस से देष को बहुत बड़ी आषा रही है। 67 सालों के सरकारों के इतिहास में मोरार जी देसाई, वीपी सिंह, चन्द्रषेखर, देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल समेत अटल बिहारी वाजपेयी  जैसे  सरकार संचालकों को छोड़ दिया जाए तो प्रथम आम चुनाव 1951-52 से लेकर वर्श 2014 तक लगभग 55 साल तक कांग्रेस  की सरकार रही है जिसमें जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार चलाने वालों में षुमार थे। हालांकि अंतरिम सरकार के तौर पर नेहरू जी को देखा जाए तो उनका कार्यकाल सितम्बर 1946 से ही षुरू  हो जाता है ऐसे में कांग्रेस पूरे 6 दषक सत्ता के लिए जाना जाता है। मौजूदा परिस्थिति में एक अलग धारा के साथ नरेन्द्र मोदी सत्ता चला रहे है। निहित मापदंडों में इस बात का ख्याल हमेषा रखा जाता रहा है कि देष की फलक पर गांधी के सपने तैरते है। जिसे पूरी करने की जिम्मेदारी उपरोक्त सत्ताधारियों की थी। जिस सपने से गांधी जीवन भर उलझते रहे, देखा जाए तो उसके कोर में गरीब से गरीब व्यक्ति था। गांधी उस कार्य को प्राथमिकता देते थे जिसके करने से अंतिम व्यक्ति को लाभ पहुंचता हो। क्या इस दौर की सियासत में उक्त बातों का कोई मोल है? यदि है तो दूसरा सवाल कितना है । राजनेताओं को सिंहासन चाहिए और जनता को वहीं पुरानी स्क्रिप्ट जिसे बीते 7 दषकों से दोहराया जा रहा है, रोटी, कपड़ा, मकान, दुकान, सुरक्षा-संरक्षा और हो सके तो वर्तमान जीवन से थोड़ा ऊपर का जीवन पर गुड पाॅलटिक्स के अभाव में गुड गर्वनेंस से जुड़े ये  क्रियाकलाप आज भी सिसक रहे है। 
दो टूक यह भी समझ लेना जरूरी है कि जन सषक्तिकरण के बगैर जन सरकारों का सरोकार बेमानी ही कहा जाएगा। इसी देष में जन जाग्रति का पुर्नजन्म भी हुआ है और भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के इतिहास से देष पटा भी है साथ ही वामपंथ, समाजवाद, से लेकर पंूजीवाद की रोपाई भी यहां खूब हुई है । यहीं कारण है कि देष मिश्रित व्यवस्थाओं का स्वरूप है। इसमें भी कोई षक नहीं कि वक्त के साथ हमारा आदर्ष और उद्देष्य भी मार्ग से कहीं न कहीं भटका है परंतु आषा इस बात की हमेषा रही कि सरकारें जरूर जनसाधारण के लिये माई-बाप बनी रहेगी। देष में पाॅलटिक्स का परिधान पहले की तुलना में ज्यादा चकमक तो हुआ है परंतु इस सच्चाई से बेफिक्र कि देष में गुड गर्वनेंस की हालत पतली है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि गुड गर्वनेंस का सीधा नाता जनता के सषक्तिकरण से है, लोकतंत्र की मजबूती से है, न्याय और समता की उच्चस्था से है न कि राजनीतिक दलों या सरकारों  के बड़बोलेपन से । जिस मोदी सरकार को प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता का अवसर मिला है उनका पूरा ध्यान इन दिनों चुनावी गुणा-भाग पर भी है। ऐसा पहले नहीं देखा गया कि प्रदेष के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री का चेहरा आगे हुआ हो। उत्तराखण्ड में तो यह भी आम है कि मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगें कमोबेष उत्तर प्रदेष में भी यही स्थिति दिखाई देती है। चुनाव में जात-पात, धार्मिक भेद-भाव और ऊंच-नीच का बर्ताव भी बीते कुछ दषक से बेझिझक  इस्तेमाल होने लगा है। चुनाव के समय विज़न डाॅक्युमेंट तथा घोशणा पत्र के माध्यम से जनता को लुभाने का नायाब तरीका भी परोसा जाता है। उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी राज्य में यह नारा आम हो गया है कि अटल जी ने बनाया है, मोदी जी संवारेंगे । गौरतलब है कि सबका साथ, सबका विकास मोदी सरकार का नारा है परंतु जब तक देहरादून और दिल्ली का इंजन एक ही पार्टी का नहीं होगा तब तक उत्तराखण्ड का विकास नहीं होगा ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते  है। 
कोई भी दावें से नहीं कह सकता कि सत्ता तक पहुंचने के लिए उसने राजनीति के आदर्ष भाव को ही स्थान दिया है। कहा जाए तो जोड़-तोड़ चुनावी प्रदेषों में इन दिनों खूब हावी है। मुसलमानों का वोट अपनी ओर आकर्शित करने के लिए बहुजन समाज पार्टी की ओर से 403 सीटों के मुकाबलें 97 मुस्लिम प्रत्याषियों को मैदान में उतारा गया है और भारतीय जनता पार्टी ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है, इसे धर्म पर आधारित राजनीति भी कह दे तो क्या गलत है जिसमें एक दल का भरोसा अटूट है तो दूसरा भरोसे के लायक नहीं समझता। कांग्रेस से गठबंधन करके समाजवादी पार्टी ने यह जता दिया कि दषकों से जिसके विरूद्ध थी सत्ता के लिये आज उन्हीं के साथ जनता के बीच है। समाजवादी पार्टी के मुखिया षायद अब नहीं पर मुलायम सिंह यादव को भी इस साथ से एतराज तो था। सियासत की पैठ में चीजें ऐसे ही बनती -बिगड़ती रही है। यहीं कारण है कि गुड गर्वनेंस से जनता दूर होती रही। कांग्रेस आज केन्द्र में गैर मान्यता प्राप्त पार्टी के साथ विपक्ष में षोर करने के काम आती है। भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों की मजबूती और कमजोरी दोनों को एक साथ देखना हो तो कांगे्रस में झांका जा सकता है। समाजवादी से साथ लेकर उत्तर प्रदेष में इन दिनों कांग्रेस को वाजूद तलाषते हुए भी देखा जा सकता है। जनता को तो किसी न किसी को मत देना ही है परंतु सच्चाई यह है कि जो उनकी आंखों में ज्यादा सपने भरेगा षायद वहीं बाजी मारेगा पर इसका मतलब यह नहीं कि सत्ता हथियाने वाला गुड पाॅलटिक्स की अवधारणा को भी अंगीकृत  करेगा जाहिर है कि जब तक इसका अभाव रहेगा तब तक गुड गर्वनेंस का प्रभाव षायद ही देखने को मिले। 
सुशील कुमार सिंह


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