Wednesday, December 21, 2016

रिज़र्व बैंक की तिजोरी और जनता की जेब

जब सरकार यह कहती है कि रिज़र्व बैंक नोटबंदी के बाद पैदा हुए नोटों की कमी से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है तब यह प्रष्न अनायास ही मन में उठता है कि रिज़र्व बैंक की इतनी तैयारी के बावजूद स्थिति काबू में क्यों नहीं है। इस अनुमान में कि 30 दिसम्बर के बाद इन जैसी समस्यायें नहीं रहेंगी मात्र सम्भावनाओं का खेल नजर आता है। 30 दिसम्बर में जमा कुछ ही दिन बाकी हैं पर जनता एटीएम और बैंक के सामने अभी भी डटी हुई है। कई पैसे की बाट जोहते-जोहते पूरा दिन बैंक की चैखट पर ही गुजार रहे हैं बावजूद इसके खाली जेब घर वापस जाना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल है कि जब राजनीतिक और रणनीतिक तौर पर सरकार का रूख सही है, आरबीआई की तिजोरी भी नोटों से भरी है तो फिर जनता की जेब खाली क्यों है। इतना ही नहीं रिज़र्व बैंक द्वारा इन दिनों जिस तर्ज पर निर्णय लिए जा रहे हैं वह भी हतप्रभ करने वाले हैं। जिस देष में बैंकिंग पद्धति का प्रयोग और अनुप्रयोग अभी भी जटिल हो जहां इंटरनेट बैंकिंग से लेनदेन के मामले पूरी तरह विस्तारित न हो पाये हों और बैंक के अर्थषास्त्र से भारी-भरकम जनसंख्या नासमझ हो उसी देष में बैंकों का बैंक रिज़र्व बैंक औसत से अधिक स्पीड में नित नये फैसले ले रहा हो इसे कितना वाजिब कहा जायेगा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने षायद इसी को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोलते हुए कहा कि नोटबंदी पर रिज़र्व बैंक के नियम उसी तरह बदल रहे हैं जिस तरह पीएम अपने कपड़े बदलते हैं। बीते 8 नवम्बर से अब तक नोटबंदी से जुड़े छोटे-बड़े फैसलों की संख्या 60 से अधिक हो गयी है। षायद सरकार और रिज़र्व बैंक भी इस गिनती से अनभिज्ञ हो पर असलियत यह है कि फायदे का सौदा नोटबंदी फिलहाल सरकार के गले की हड्डी भी बना हुआ है।
जब जनता के चिंतक और अर्थषास्त्र के विचारक ही भ्रमात्मक निर्णय में उलझ जायेंगे और अपने ही फैसले को लेकर संदेह में फंस जायेंगे तो देष के समाजषास्त्र को कैसे दिषा दी जायेगी। नोटबंदी के बाद 12 लाख करोड़ रूपए से अधिक नकद बैंको में जमा हो चुके हैं जो अनुमान से कहीं अधिक है बावजूद इसके रिज़र्व बैंक ने अपने सैद्धान्तिक नीतियों में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं किया है मसलन रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट आदि। उम्मीद की जा रही थी कि रिज़र्व बैंक ब्याज दर में गिरावट लायेगा पर ऐसा नहीं हुआ। षायद इससे आरबीआई दीर्घकालिक रणनीति और नोटबंदी से बेअसर होने का संदेष दे रही हो पर कांटा तो आरबीआई को भी खूब चुभा है। अभी भी मांग के अनुपात में दो हजार और पांच सौ के नोट पहुंचाने में रिज़र्व बैंक हांफ रहा है। सारे जुगत भिड़ाने के बाद भी जनता की मुसीबत नहीं घट रही है। इतना ही नहीं नये फरमानों से सरकार और रिज़र्व बैंक की विष्वसनीयता भी कटघरे में जाती दिखाई दे रही है। रोचक यह भी है कि 30 दिसम्बर तक बैंक में नोट जमा करने का फरमान सरकार द्वारा पहले दिन ही सुनाया गया था जिस पर बीच में ही ब्रेक लगाते हुए एक नया फरमान जारी किया गया जिसके तहत 5 हजार से अधिक जमा करने पर जमाकत्र्ता को लिखित कारण बताने होंगे कि देरी की वजह क्या है? यह न केवल जनता के लिए मुसीबत है बल्कि चरमराई बैंकिंग व्यवस्था को एक और बोझ डालने जैसा है। हालांकि इस नियम में भी सरकार की तरफ से कुछ सफाई आ चुकी है और इसमें भी फेरबदल हो गया है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने नये साल में नोट की किल्लत नहीं होगी की बात कह रहे हैं और इसके लिए भी आष्वस्त कर रहे हैं कि मुद्रा की आपूर्ति के लिए रिज़र्व बैंक पूरी तरह तैयार है। सवाल है कि जब रिज़र्व बैंक इतना ही तैयार है तो किल्लत की सूरत क्यों नहीं बदल रही। 
इस बात पर भी गौर करने की आवष्यकता है कि बीते कई दषकों से एक हजार और पांच सौ के नये नोट को करेंसी कल्चर में इतने बड़े पैमाने पर विस्तार दिया गया कि बाकी सभी नोट और सिक्के कुल मुद्रा के मात्र 14 फीसदी रह गये। देखा जाय तो छः दषक से अधिक की सत्ता पर कांग्रेस काबिज रही है। जाहिर है कि नोटों का असंतुलन इन्हीं के कार्यकाल में कहीं अधिक व्याप्त हुआ है। हालांकि इससे सीधा सरोकार रिज़र्व बैंक का है पर षायद इस पर ध्यान नहीं गया या फिर यह समझने में चूक हुई कि आने वाले दिनों में कभी भी विमुद्रीकरण से जुड़े निर्णय लिए जायेंगे तो इसका क्या असर होगा। बड़े पैमाने पर बड़े नोटों को छापना और औसतन छोटी मुद्राओं को अनुपात से पीछे रखना भी आज रिज़र्व बैंक के लिए एक चुनौती बना हुआ है। यदि इस बात का ध्यान रखा गया होता कि छोटे-बड़े सभी प्रकार की मुद्राओं का अपना एक अनुपात होगा तो षायद ये परेषानी इतनी न होती। गौरतलब है कि दो प्रकार के नोट मात्र की बंदी से पूरी 86 फीसदी मुद्रा बाजार और लोगों के जीवन से बाहर हो गयी। इस बात से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है कि एक हजार, पांच सौ के नोटों में काला धन छुपा था परन्तु साढ़े चैदह लाख करोड़ के इन दोनों करेंसी के एवज़ में 12 लाख करोड़ से अधिक रूपए बैंकों की तिजोरी में जमा हो जाना इसे पूरी तरह पुख्ता करार नहीं दिया जा सकता। फिलहाल अभी भी जनता की जेब खाली है भले ही रिज़र्व बैंक की तिजोरी क्यों न भरी हो। कुछ तो दर-दर की ठोकर खा रहे हैं फिर भी सरकार के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं। 
नोटबंदी के बाद बीते दिनों दिसंबर माह में ही मौद्रिक नीति की समीक्षा के दौरान आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने बताया था कि नोटबंदी के बाद आरबीआई ने क्या किया और इससे क्या प्रभाव पड़ेगा तब तक 4 लाख करोड़ की नई करेंसी भी जारी हो चुकी थी अब यह छः लाख से अधिक बताई जा रही है। आरबीआई ने यह भी साफ किया था कि निर्णय जल्दबाजी में नहीं लिया गया था। उन्होंने यह भी कहा था कि इस फैसले से काले धन, फर्जी करेंसी और आतंकवाद के खात्मे में मदद मिलेगी। समीक्षात्मक टिप्पणी के दौरान उनका यह मानना था कि नोटबंदी का असर आरबीआई की बैलेंस षीट पर नहीं पड़ेगा। साफ है कि रिज़र्व बैंक के मजबूत मनोबल और वित्तीय नीति में कोई असमंजस नहीं है पर यह कितना सच है ये तो वही जानते हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री समेत कई और मंत्रालय के सदस्य नोटबंदी को लगातार बेअसर करार दे रहे हैं और जनता को सियासी तौर पर अपने से जुड़ा हुआ अभी भी मानते हैं। बीते 20 दिसंबर को पंजाब में हुए स्थानीय निकाय के 26 सीटों के नतीजों में 20 पर अपनी जीत पक्का करने के चलते सरकार इसे और पुख्ता करार दे रही है। यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि नोटबंदी से मचे अफरा-तफरी से सरकार काफी चिन्तित है और इसे षीघ्र हल करना चाहती है। इसके पीछे एक बड़ी वजह उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का होना भी है पर इस सच्चाई से षायद ही किसी को गुरेज हो कि नोटबंदी के चलते तमाम अच्छे काज के बीच आम जनता काफी पिसी है साथ ही मुष्किल में रहते हुए भी सरकार की पीठ थपथपाई है। सबके बावजूद इस सवाल का जवाब कौन देगा कि जब रिज़र्व बैंक की रणनीति भी सही है और उसकी तिजोरी भी भरी है तो जनता की जेब खाली क्यों है?

सुशील कुमार सिंह


No comments:

Post a Comment