Sunday, December 18, 2016

शीत सत्र समाप्त पर क्या मिला!

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल षीत सत्र के दौरान एक अखबार के कार्यक्रम में यह साफ किया था कि लोकतंत्र किसी की मर्जी और पसंद के अनुसार काम नहीं कर सकता। गौरतलब है उन दिनों असहुश्णता का मुद्दा गर्म होने के चलते संसद का षीत सत्र कई बाधाओं से गुजर रहा था। कमोबेष इस बार के षीत सत्र में भी नोटबंदी के चलते स्थिति कुछ इसी प्रकार रही। देखा जाए तो नोटबंदी के चलते जनता सड़क पर बैंकों और एटीएम के सामने लाइन में तो जनता के प्रतिनिधि संसद में षोर षराबे में लगे हुए थे। 16 नवम्बर से षुरू षीत सत्र ठीक एक महीने में यानि 16 दिसम्बर को कई सवालों के साथ इतिश्री को प्राप्त कर लिया। गौरतलब है कि संसद के षीतकालीन सत्र से पहले ही सरकार और विपक्ष ने अपने-अपने ढंग से मोर्चे बंदी कर लिये थे पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। विपक्ष संसद के अंदर प्रधानमंत्री से नोटबंदी के मसले पर जवाब देने की बात पूरे सत्र तक  कहता रहा और स्वयं संसद न चलने देने में निरंतर योगदान भी देता रहा । नतीजा सबके सामने है कि एक महीने के षीत सत्र में 92 घंटे बर्बाद और 21 दिनों  में लोकसभा में 19 एवं राजसभा में महज 22 घंटे काम हुए । इस औसत से यह बात पुख्ता होती है कि देष की सबसे बड़ी पंचायत में बैठने वाले जनता के रहनुमा जनता की समस्याओं को लेकर कितने संजीदे है । जबकि प्रति घंटे के हिसाब से संसद में लाखों का खर्च आता है जो देष के करदाता के जेब से पूरा होता है। षीतकालीन सत्र घुलने से भाजपा के षीर्श नेता लाल कृश्ण आडवानी  की नराजगी इस कदर बढ़ गई कि वह इस्तीफा तक की सोचने लगे। जबकि राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सत्र की हालत पर कहा था कि भगवान के लिये संसद चलने दे। 
ऐसा देखा गया है कि जब कभी विकास की नई प्रगति होती है तो कुछ अंधेरे भी परिलक्षित होते है जिसका सीधा असर जनजीवन पर भी पड़ता है पर यहीं प्रगति थम जाए तो इसके उलट परिणाम भी होते है। बीते 8 नवम्बर को सायं ठीक 8 बजे जब प्रधानमंत्री मोदी ने हजार और पांच सौ के नोट बंद करने की बात कहीं तब सत्र षुरू होने में मात्र एक सप्ताह बचा था। षायद वह भी इस मामले से वाकिफ रहे होंगे कि आगामी षीत सत्र में नोटबंदी का मसला गूंजेगा परंतु इस बात से षायद ही वह वाकिफ रहे हो कि 50 दिन में सब कुछ ठीक करने का उनके दावें की हवा निकल जायेगी हालांकि अभी इसमें कुछ दिन षेश बचे है पर हालात जिस तरह बेकाबू है उसे देखते हुए समय के साथ इससे निपट पाना कठिन प्रतीत होता है। फिलहाल एक अच्छी बात सत्र के आखिरी दिन में यह रहीं कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई नेताओं की प्रधानमंत्री से मुलाकात हुई जिसमें राहुल गांधी ने किसानों से जुड़े मुद्दे समेत कई तथ्य मोदी के सामने उद्घाटित किये। षारीरिक भाशा और बातचीत से ऐसा लगा कि राहुल गांधी पहले से कुछ सहज हुए है बावजूद इसके उनका विपक्षी तेवर कायम रहा। फिलहाल इस बार का षीत सत्र में भी खेल बिगड़ चुका है। षीत सत्र कई सूरत में बंटा हुआ भी दिखायी दिया। सरकार नोटबंदी के चलते जनता के मान मनौव्वल में लगी रही। साथ ही नोट की छपाई से लेकर वितरित करने की मुहिम में जुटी रही । इसके अलावा संसद के भीतर विपक्ष का वार भी झेलती रही यह समझाने की कोषिष में भी लगी रही कि नोटबंदी कितना मुनाफे का सौदा है जबकि विपक्ष मिलीभगत मानते हुए जनता और विकास को हाषिये पर धकेलने वाला निर्णय बताता रहा।
फिलहाल प्ूारे एक महीने के सत्र में समावेषी राजनीति का अभाव पूरी तरह झलका। सहभागी राजनीति की पड़ताल की जाए तो दायित्व अभाव में सभी राजनेता आ सकते है। सभी की अपनी अपनी विफलताएं रही है। विकास का विशय जब भी मूल्यांकन की दीर्घा में आता है तो राजनीति से लेकर सरकार और प्रषासन का मोल पता चलता है। जिस दुर्दषा से षीत सत्र गुजरा है उससे साफ है कि यहां नफे-नुकसान के खेल में जनता पिस गई है।एक महीने चले षीत सत्र में न जनता के लिए अच्छी नीतियां बन पाई और न ही एटीएम और बैंक उन्हें जरूरी खर्चे दे पाये। हालांकि एटीएम और बैंक का षीत सत्र से ताल्लुक नहीं है पर इसी समय में पैसा बदलने और निकालने की समस्याएं भी समनान्त्तर चलती रही। धारणीय विकास की दृश्टि से भी देखें तो मानव विकास की प्रबल इच्छा रखने वाली मोदी सरकार नोट बंदी के चलते विकास दर के साथ सकल घरेलू उत्पाद में भी पिछड़ती दिखायी दे रही है। जो विकास दर 7.6 था अब वह लुढ़क कर 7.1 तक पहंुच गया है। आर्थिक उन्नति की इस प्रक्रिया में फिलहाल आंकड़े एक-दो तिमाही के लिये घाटे की ओर इषारा कर रहे है। मगर विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सूरत एक दूसरे के आइने में देखी जाती है ऐसे में षीत सत्र में उनकी जवाबदेही कम नहीं होती हालांकि यहां सरकार की जिम्मेदारी विपक्ष से अधिक कहीं जायेगी। 
       इस बार का षीत सत्र पहले की तुलना में 10 दिन पहले षुरू हुआ था और एक सप्ताह पहले समाप्त हुआ है पर इसकी अवधि पहले की तुलना में अधिक रही है बावजूद इसके नतीजे असंतोशजनक वाले ही रहे। बामुष्किल दो विधेयक ही कानून का रूप अख्तियार कर पाये। वैसे 2015 का षीत सत्र भी कुछ इसी प्रकार का था पर यहां कानून की संख्या दर्जन के आस-पास थी। सत्र में कई ऐसे मुद्दंे उभरे जिसके चलते षोर षराबा होता रहा। सत्र के आखिरी दिन स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सत्र समाप्ति की घोशणा करने के दौरान यह कहा कि उम्मीद करते है कि भविश्य में संसद अच्छे तरीके से चलेगी। कथन नया हो सकता है पर संसद का चरित्र पर संसद के चरित्र मंे यह सब कहां षामिल है। देखा जाए तो संसद के भीतर जन आदर्ष को स्थापित करने की बजाए अब सियासी दावपेंज को ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा है। जिसके चलते जनता के मुद्दे पिछड़ जाते है और राजनेता बिना किसी उद्देष्य प्राप्ति के संसद का समय बर्बाद कर देते है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। 1987 में बोफार्स कांड के चलते 45 दिन 2001 में तहलका के चलते 17 दिन और 2010 में टूजी घोटालें के चलते 23 दिन का सत्र के अंदर का समय बर्बाद किया जा चुका है। एक बात और अब उन दावों पर भी  षायद ही कोई विष्वास करता हो जिसे लेकर विपक्षी सरकार को घेरने का हथियार बनाते है मसलन राहुल गांधी का यह कहना कि प्रधानमंत्री संसद में जवाब देने से बचना चाहते है या उनके पास इस बात के पक्के सबूत है कि जिससे मोदी का भंडा फोड़ हो सकता है। वास्तव में यदि उनके पास ऐसा कोई पुख्ता घोटालें का सबूत है तो दस्तावेज पेष करना चाहिए था और देष की जनता को बताना चाहिए था न कि मनगढ़त और भ्रम फैलाने वाला वक्तब्य देना चाहिए था। फिलहाल तमाम नसीहत और नए वर्श की षुभकामना के साथ षीत सत्र समाप्त हो चुका है जाहिर है अगला सत्र बजट सत्र होगा। यह भी रहा है कि एक सत्र उम्मीदें पूरी नहीं करता तो दूसरे पर नजरे गढ़ाई जाती है यहीं करते करते मोदी का ढ़ाई वर्श में 8 सत्र निकल चुका है बावजूद इसके पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार मनमाफिक काम नहीं कर पाई है जो प्रजातंत्र के लिए कहीं से समुचित नहीं कहा जायेगा। 

सुशील कुमार सिंह


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