Monday, January 2, 2017

इससे बेहतर समाजवाद कहाँ मिलेगा !

आचार्य नरेन्द्र देव की एक पुस्तक ‘राष्ट्रीयता और समाजवाद‘ के तीसरे अध्याय के शीर्षक ‘समाजवाद की ओर‘ में यह लिखा है कि हम समाजवादियों को लेनिन की यह बात बराबर याद रखनी चाहिए कि सामाजिक स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई बहुत जरूरी है। समाजवादी अगर राजनीतिक लड़ाई में पूरा-पूरा भाग नहीं लेते हैं तो सामाजिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने की नौबत ही नहीं आयेगी। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर प्रदेष में समाजवादी पार्टी जिस मुकाम पर इन दिनों पहुंची है उसके पीछे 20 करोड़ से अधिक प्रेदेषवासियों की सामाजिकता को उभारने की कोषिष है। कई समाचारपत्रों के प्रथम पृश्ठ पर यह छपा है कि समाजवादी पार्टी में तख्तापलट हुआ है। यह बात कितनी सही है यह पड़ताल का विशय है पर इतना जरूर हो गया है कि लोग अपने को समाजवादी कहने से इन दिनों थोड़ा घबरायेंगे। महात्मा गांधी भी अपने को समाजवादी कहने से गुरेज नहीं करते थे पर क्या समाजवादी की पहचान मात्र बातों से हो सकती है या उनके क्रियाकलापों में इसका परिदृष्य दिखाई देना चाहिए। महात्मा गांधी अनुप्रयोगवादी थे जाहिर है अच्छे और खोटे समाजवाद की उन्हें परख थी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि संगठन की कमजोरी या उसके गठिया रोग से समाजवाद की नवचेतना धूमिल पड़ती है। ऐसा होता है तो सामाजिक लड़ाई का कमजोर होना स्वाभाविक है जो समाजवाद के दावे पर टिकी होती है। जाहिर है उत्तर प्रदेष में जो हुआ है उस समाजवाद में पिता-पुत्र केन्द्र में है। एक ने समाजवाद को बनाया है तो दूसरे ने उसी में स्कूली षिक्षा लेकर हेडमास्टरी की है पर यह सवाल जवाब की तलाष में रहेगा कि मुलायम सिंह का समाजवाद किस श्रेणी में आता है। फिलहाल उत्तर-प्रदेष के सियासी चक्रव्यूह को राजनीतिक महत्वाकांक्षा कहें या विचलन से भरे समाज को राह देने की कोषिष। इस प्रष्न के एवज में उत्तर की तलाष रहेगी। जो भी हो एक बात तो तय है कि उत्तर प्रदेष की समाजवादी पार्टी महत्वाकांक्षा की षिकार हुई है साथ ही पुराने और नये विचारों के बीच भी फंसी है। 
समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। यह मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। हम आदर्ष और संस्कृति से भरे सच्चे और अच्छे समाजवाद को रफ्तार देने की कोषिष कर रहे हैं न कि अपने ढंग से समाजवाद को तोड़-मरोड़कर पेष कर रहे हैं। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री अखिलेष यादव को अक्सर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हम समाजवादी जनता की समस्याओं को सही तरीके से समझते हैं और उन्हें हल करना जानते हैं।  उनका मन्तव्य गलत नहीं है और न ही उनका समाजवाद गफलत में है इसके अलावा न ही उनके पिता मुलायम सिंह यादव का समाजवाद संदेह से भरा रहा है। इन बातों को सिरे से स्वीकार भी कर लिया जाय तो भी यह सवाल उठता है कि आखिर फिर गड़बड़ी कहां हुई है। चाचा-भतीजे के गहरे विवाद में समाजवादी पार्टी का असली मालिक कौन होगा यह भी सवाल आज अहम बना हुआ है। मुलायम-षिवपाल बनाम अखिलेष-राम गोपाल ये समाजवाद के दो सिरे हो गये हैं। खुद को असली समाजवादी पार्टी साबित करना अब इनकी जिद में है। साइकिल एक है और चलाने वाले अब दो हैं पर कौन चलायेगा षायद यह चुनाव आयोग द्वारा ही तय हो पायेगा। मुलायम और अखिलेष के बीच तमाम रंजिष और उतार-चढ़ाव के बावजूद सुलह भी खूब हुई। हालिया स्थिति यह है कि राम गोपाल और मुख्यमंत्री अखिलेष का निश्कासन करने और निश्कासन रद्द करने में मात्र 20 घण्टे का अन्तर था पर कुछ घण्टे बाद ही ऐसा क्या हुआ कि मुलायम को हटाकर अखिलेष सपा के सुप्रीमो बन गये। फिलहाल मुलायम सिंह सुप्रीमो नहीं हैं और षिवपाल प्रदेष अध्यक्ष नहीं है। इस बीच समाजवादी भी इस गफलत में होंगे कि आखिर वे कौन से समाजवादी हैं। गौरतलब है कि समाजवाद में यदि राजनीतिक लड़ाई सामाजिक स्वतंत्रता के लिए की जाती है तो जाहिर है यह लड़ाई जनता के काम जरूर आयेगी पर यह निजी महत्वाकांक्षा के चलते हो रही है तो जनता ही पिसेगी। 
इस बात को भी षिद्दत से समझना ठीक रहेगा कि जब बीते 30 दिसम्बर को अखिलेष सपा से बर्खास्त हुए थे तो इनके समर्थन में देर रात तक प्रदर्षन हुए। निषाने पर मुलायम, षिवपाल दोनों थे यहां तक कि अखिलेष प्रेम के चलते कुछ समर्थकों ने आत्मदाह की कोषिष भी की। परिवार की लड़ाई में संयम खोते समर्थक को अभी भी फिलहाल सिरा नहीं मिला है। हालांकि अखिलेष का पलड़ा काफी भारी है और समर्थकों के झुकाव को देखते हुए साफ है कि अखिलेष ही समाजवाद को उत्तर प्रदेष में गतिमान करेंगे। कुछ भी हो इस झगड़े में इस बात की भी नापतौल हुई है कि समय के साथ कद कैसे गिरता और उठता है। इन झगड़ों के बीच इस प्रसंग को भी उद्घाटित किया जाना जरूरी है कि यह सब किस लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। देखें तो समाजवाद का ध्येय वर्गविहीन समाज की स्थापना है पर उत्तर प्रदेष में पनपा समाजवाद घराने तक सीमित रहा और सत्ता की चाषनी में डूबा रहा। इसके असल पक्ष वर्गविहीन को लेकर काम हुआ है इस पर पूरे षिद्दत से कह पाना थोड़ा असमंजस है। यहां पर कुछ लोग यह प्रष्न कर सकते हैं कि इतने दावे से बात क्यों कही जा रही है। आज जब हम कहते हैं कि स्वतंत्रता और समता जैसे आदर्षों को हम सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं तो कईयों के आलोचना के षिकार होते हैं। कई सियासी दल को यह अखरता है कि उन्हें वर्गविहीन क्यों नहीं कहा जाता। सवाल है कि जब जाति, धर्म और वर्ग की आड़ में राजनीतिक दल जनता को बांटकर वोट बंटोरना चाहेंगे तो स्वतंत्रता और समता का आदर्ष विकसित करने की बात किस मुंह से कहेंगे। भारत में राश्ट्रीयता और समाजवाद का जन्म कोई क्षणिक घटना नहीं थी इसके पीछे बरसों का इतिहास रहा है जिसे समझने के लिए राजनीतिक तौर पर ही नहीं सामाजिक तौर पर भी परिपक्व होना होगा।
उत्तर प्रदेष मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेष यादव आगामी विधानसभा चुनाव जीतकर पिता को तोहफा देना चाहते हैं और इस बात को भी दोहरा रहे हैं कि राजनीतिक बिलगाव है न कि पिता से अलगाव। समाजवादी पार्टी को कहां से सावधान रहने की जरूरत है और इस तोड़फोड़ के बीच कौन फायदा ले सकता है इस पर भी गौर करें तो उसकी सियासी सेहत ठीक रहेगी। सपा के ताजा घटनाक्रम के बाद अब चुनाव आयोग की तरफ निगाहें घूम गयी हैं। विधान और संविधान की बारीक पड़ताल कहती है कि अभी मुलायम ही सपा के सुप्रीमो हैं। देखा जाय तो अखिलेष यादव जिस धमक के साथ नवचेतना और नये होने का रंग विकसित किया है उससे उनके प्रति सहानुभूति की लहर भी पनपी है। राम गोपाल और अखिलेष के नये वर्श के पहले दिन के विषेश अधिवेषन पर सपा ने प्रस्ताव पास कर कहा है कि कुछ लोग भाजपा को लाभ पहुंचाने की साजिष कर रहे हैं। दो टूक यह भी समझ लेना चाहिए कि समाजवादी पार्टी के टूटने से मृत पार्टियों को जरूर लाभ मिलेगा मसलन कांग्रेस मगर सहानुभूति यदि अखिलेष के साथ हुई तो भाजपा और बसपा जो सत्ता के दावेदार हैं नुकसान में जा सकते हैं। कई इस अन्तर्कलह को एक पूर्व नियोजित घटना बता रहे हैं पर यह बात पचती नहीं है। होषियारी सभी दिखा रहे हैं पर यह भूल गये हैं कि लड़ाई कुनबे की है और समाजवादियों के इस गृहयुद्ध में कोई जीत कर भी जीता नहीं कहलायेगा और कोई हार कर भी परास्त नहीं माना जायेगा। षायद ही इससे बेहतर समाजवाद कहीं मिलता हो। 

सुशील कुमार सिंह


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