Wednesday, December 14, 2016

जीरो डिग्री पर घूमता चीन

किसी भी देष की भौगोलिक स्थिति को समुचित तरीके से समझने में अक्षांष और देषान्तर सटीक एवं कारगर उपाय हमेषा से रहे हैं पर देष विषेश की प्रकृति और प्रवृत्ति को इसके माध्यम से तब आंका जाना दुरूह हो जाता है जब देष ज़ीरो डिग्री पर ही घूम रहा हो। एनएसजी और मसूद अजहर के मामले में चीन का हालिया बयान इस बात को पुख्ता करता है। रोचक यह भी है कि ग्लोब का दो-तिहाई हिस्सा जलमग्न और एक-चैथाई में दुनिया बसी है और कुछ देष क्षेत्रफल के मामले में बेषुमार तो कई दीन-हीन भी हैं। विकास की बड़ी-बड़ी पाठषालायें चलाने वाले भी सीधे रास्ते पर चलने में आज भी कतरा रहे हैं। कुछ इसी प्रकार की अवधारणा से चीन भी ओत-प्रोत है। चीन ने एक बार फिर भारत की राह में अड़ंगा लगाने का काम किया है। एनएसजी की सदस्यता हासिल करने और जैष-ए-मौहम्मद के प्रमुख आतंकी मसूद अजहर को संयुक्त राश्ट्र द्वारा आतंकी घोशित कराने के मामले में चीन ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि इन दोनों मामले में उसकी राय अभी जस की तस है अर्थात् जीरो डिग्री एक्षन और जीरो डिग्री रिएक्षन। इसके चलते भारत की कूटनीति एनएसजी के मामले में सिमटती नज़र आ रही है। हांलाकि उन दिनों यह चर्चा जोरों पर रही कि एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में उपस्थिति दर्ज करा कर भारत ने बड़ी कामयाबी हासिल की है और चीन को भी यह संकेत दे दिया है कि एनएसजी के मामले में सौदेबाजी के लिए भारत का दावा मजबूत हो सकता है। गौरतलब है कि चीन एनएसजी का सदस्य देष है जबकि एमटीसीआर की सदस्यता से बाहर है। ऐसे में एक दूसरे की सौदेबाजी से भरी कूटनीति परस्पर सदस्यता के मामले में कारगर उपाय हो सकती थी पर चीन के अड़ियल रवैये से यह साफ हो गया है कि एनएसजी के मामले में भारत की राह इतनी आसान नहीं है। गौरतलब है कि मौजूदा समय में 48 देष एनएसजी के सदस्य हैं जिसमें से यदि एक भी देष यदि अडंगा लगाता है तो कोई अन्य देष इसका सदस्य नहीं बन सकता।
पुराने अनुभवों के आधार पर यह भी आंकलन है कि पहले भी भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोषिष की जाती रही है। वर्श 1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण के चलते भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया था। इतना ही नहीं 1981-82 के दौर में भी भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिली तब भी भारत पर पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया गया। फिलहाल बीते कुछ दषकों से यह भी देखने को मिला कि वैष्विक समूह में भारत की उपस्थिति बढ़त बनाने लगी है और मोदी षासनकाल में भारत के प्रति बदली वैष्विक कूटनीति से यह और आसान हुई है। नतीजे के तौर पर बीते जून में एमटीसीआर में भारत की एंट्री इसका पुख्ता सबूत है पर एनएसजी में उसका प्रवेष न हो पाना बड़ी कूटनीतिक असफलता भी कही जा सकती है जबकि अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा एनएसजी में भारत की एंट्री को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक राय रखते हैं। गौरतलब है कि एमटीसीआर की सदस्यता के लिए चीन पिछले 12 वर्शों से प्रयास कर रहा है। एनएसजी के मामले में अडंगा लगाने वाला चीन लगातार मानो इस बात पर कायम है कि वह पाकिस्तान के आतंकियों का संरक्षणकत्र्ता बना रहेगा। संयुक्त राश्ट्र संघ द्वारा जब-जब मसूद अज़हर को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने की भारत ने कोषिष की है तब-तब चीन ने रूकावटें पैदा की है। कूटनीति के क्रम में भारत इस प्रकार की मजबूती रखता है कि उसके बगैर चाहे चीन एमटीसीआर का सदस्य नहीं बन सकता पर एनएसजी पर चीन जिस तरीके का रूख रखता है उससे भी साफ है कि एमटीसीआर में अपनी एंट्री को लेकर बहुत संवेदनषील नहीं है। चीन के अड़ियल रवैया यह भी संकेत करता है कि उसके सोचने और समझने की सीमा पाकिस्तान से होकर गुजरती है जिसके कोर में आतंकी और उसके संगठन आते हैं। चीन का यह कहना कि उसके लिए एनएसजी और अज़हर दोनों ही जरूरी है उसकी खराब मानसिकता का ही परिचायक है। देखा जाय तो पाकिस्तानी आतंकियों का जो कहर भारत ने सहा है उससे चीन नासमझ नहीं है पर प्रतिस्पर्धा के चलते उसे भारत के लिए समतल राह बनाना हमेषा कठिन रहा है। 
वैष्विक सियासत का रूप-रंग भी आने वाले दिनों में बदलेगा ऐसा व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के होने के चलते होगा। डोनाल्ड ट्रंप पहले भी कह चुके हैं कि आतंकी देषों की खैर नहीं। पाकिस्तान के मामले में भी उनकी राय इस मामले में काफी सघन देखने को मिली है। भारत के प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों से वे कहीं अधिक प्रभावित भी रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि चुनाव जीतने के बाद मोदी की नीतियों को लागू करेंगे। हांलाकि यह सब मसले राश्ट्रपति बनने से पहले के हैं। आगामी 20 जनवरी को दुनिया के सबसे ताकतवर देष अमेरिका को चलाने का जिम्मा डोनाल्ड ट्रंप लेंगे तब की सियासत क्या होगी उस दौर में ही पता चल पायेगा पर ट्रंप के राश्ट्रपति का चुनाव जीतने और दिये गये बयानों से अमेरिका की दिषा और दषा क्या होगी इसका भी अंदाजा लगाया जा रहा है। चीन ने भी ट्रंप से कहा है कि चीन की नीति से समझौता करने पर सम्बंध प्रभावित होंगे। इसमें चीन की बहुत बड़ी कूटनीति छुपी हुई है। दरअसल चीन चाहता है कि उसे संतुलित करने की कोषिष अमेरिका कतई न करे और इस षर्त पर तो बिल्कुल नहीं कि वह भारत को बढ़ावा दे और पाकिस्तान को धौंस दिखाये। 
आगामी 16 दिसम्बर को वियना में होने जा रही न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी की बैठक में क्या होगा यह चीन के बीते 12 दिसम्बर के बयान से साफ हो जाता है। चीन कहता रहा है कि भारत की एनएसजी सदस्यता पर विचार तभी मुमकिन है जब एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं करने वाले देषों को षामिल करने के लिए नियम तय कर दिये जायें। गौरतलब है कि भारत ने एनपीटी और सीटीबीटी पर हस्ताक्षर नहीं किया है। दरअसल चीन एनपीटी के बहाने भारत को एनएसजी से रोकने का रास्ता ढूंढ रहा है जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया का 40 फीसदी यूरेनियम रखने वाला आॅस्ट्रेलिया भारत से एक बरस पहले ही इसकी सप्लाई को लेकर समझौता कर लिया है। ध्यानतव्य हो कि 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद पूरी दुनिया ने भारत से नाता तोड़ लिया था। भारत की सकारात्मक स्थिति को देखते हुए अमेरिका ने पहल की तब भी आॅस्ट्रेलिया झुकने के लिए तैयार नहीं था। मनमोहन काल से यूरेनियम का अटका समझौता मोदी काल में पूरा हुआ तब भी चीन को झटका लगा था क्योंकि चीन भी आॅस्ट्रेलिया से ही यूरेनियम खरीदता है। रोचक यह भी है कि एनपीटी पर तो पाकिस्तान ने भी हस्ताक्षर नहीं किया है पर चीन उसके मामले में भारत जैसा रवैया नहीं रखता है। फिलहाल ये माना जा रहा है कि जिस रूख पर चीन कायम है उससे एनएसजी का रास्ता भारत के लिए चिकना तो नहीं होने वाला और न ही वह इस मामले में कोई भावुक कदम उठायेगा। गौरतलब है कि 48 सदस्यीय एनएसजी की दो दिवसीय बैठक में भारत का मुद्दा छाया रहेगा पर खाली हाथ रहने की सम्भावना इसलिए बनी रहेगी क्योंकि चीन पहले जैसे अभी भी जीरो डिग्री पर ही घूम रहा है।

सुशील कुमार सिंह


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