Monday, April 3, 2023

बदलाव से बढ़ेगा आकर्षण

गर्मी, बारिष और सर्दी तथा दिन, महीने और साल कब, कैसे गुजर जाते हैं इसे समझना हो तो सिविल सेवा का सपना पाले उन तमाम अभ्यर्थियों की आंखों और चेहरों पर एक नजर डाल कर कुछ हद तक समझा जा सकता है। इस सपने की उधेड़-बुन में न जाने कितने मानसिक तनाव, आर्थिक दबाव, अवसाद और बढ़ती उम्र और घटते अवसर की तमाम सम्भावनायें भी इसी के साथ पथ गमन करती रहती हैं। ऐसे में इस परीक्षा और युवाओं को ध्यान में रखकर सम्भावित विचार समय-समय पर होना स्वाभाविक भी है। षायद यही कारण है कि इन दिनों सिविल सेवा परीक्षा को लेकर एक बार चर्चा फिर फलक पर है। इसकी मुख्य वजह में सिविल सेवा भर्ती की लम्बी प्रक्रिया के चलते समय की बर्बादी समेत कई बिन्दुओं को लेकर है। हालांकि समय की बर्बादी षब्द कहना उतना उचित नहीं है जितना यह कहना कि इस परीक्षा की भर्ती अवधि लम्बी है। विदित हो कि कार्मिक एवं प्रषिक्षण मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने स्पश्ट किया है कि सिविल सेवा भर्ती को लेकर 15 महीने चलने वाली लम्बी प्रक्रिया उम्मीदवारों का समय बर्बाद करती है साथ ही षारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। उक्त समेत कई संदर्भों को ध्यान में रखते हुए समिति ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) से इसकी भर्ती प्रक्रिया में लगने वाली अवधि को घटाने के लिए कहा है। नवीनतम रिपोर्ट में यह भी स्पश्ट है कि यूपीएससी इस बात का भी पता लगाये कि क्या कारण है कि युवाओं की संख्या इस परीक्षा को लेकर कम हो रही है। गौरतलब है कि यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है जिसका गठन संविधान के अनुच्छेद 315 क तहत किया गया है। रोचक यह है कि यूपीएससी का सपना लाखों युवाओं की आंखों में रोजाना चढ़ता और उतरता है। भारत एक अरब 40 करोड़ का देष है और यहां युवाओं की तादाद बहुतायत में है। चुनौतियों से भरे सिविल सेवा परीक्षा से पार पाना कठिन तो नहीं मगर मेहनतकष अभ्यर्थियों के लिए सम्भव जरूर है। सवाल साफ है कि क्या वाकई में सिविल सेवा परीक्षा की मौजूदा भर्ती प्रणाली में अधिक समय लगता है। हालांकि समिति की राय है कि यह छः महीने से अधिक नहीं होनी चाहिए।
बीते कुछ वर्शों से देखें तो सिविल सेवा परीक्षा का विज्ञापन फरवरी माह में, प्रारिम्भक परीक्षा मई और मुख्य परीक्षा सितम्बर में सम्पन्न होती है मगर साक्षात्कार और मुख्य परीक्षा के बीच अच्छी खासी लम्बी अवधि देखी जा सकती है। अमूमन साक्षात्कार अगले साल मार्च-अप्रैल में सम्पन्न होते हैं तत्पष्चात् परिणाम घोशित होता है। कोरोना कालखण्ड अर्थात् साल 2020 और 2021 इसका अपवाद है क्योंकि इस दौर में परीक्षाएं नियत समय पर सम्भव नहीं हो पायी थी। साफ है कि विज्ञापन से लेकर अन्तिम नतीजे तक कुल जमा समय का खर्च लगभग 15 महीने का होता है। गौरतलब है कि विज्ञापन और प्रारम्भिक परीक्षा के बीच महज साढ़े तीन महीने का अंतर होता है जबकि मुख्य परीक्षा सितम्बर में सम्पन्न होने से महज चार महीने और व्यय होते हैं मगर मुख्य परीक्षा के नतीजे आते-आते अमूमन पांच महीने से अधिक का समय लग जाता है। ऐसे में यह अवधि स्वाभाविक तौर पर अधिक प्रतीत होती है। यदि मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार की अवधि को संकुचित किया जाये तो इस परीक्षा को वर्श भर के अंदर अंतिम रूप दिया जा सकता है। यही स्थायी संसदीय समिति की मूल चिंता भी है मगर इसे अद्भुत तरीके से छः माह में सम्पन्न करना सम्भव नहीं लगता और न ही अभ्यर्थियों के लिए यह हितकारी प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त समिति युवाओं की परीक्षा के प्रति घटते रूझान को लेकर भी चिंतित दिखाई देता है। विदित हो कि आज से तीन दषक पहले सिविल सेवा परीक्षा में दो से ढ़ाई लाख अभ्यर्थी आवेदन करते थे जो मौजूदा समय में 12 लाख के आस-पास पहुंच चुका है। हालांकि पदों की संख्या में भी कमोबेष उतार-चढ़ाव रहे हैं मगर आवेदकों की संख्या में इसका षायद ही बड़ा प्रभाव पड़ा हो। बीते कुछ वर्शों के आंकड़े यह तस्तीक करते हैं कि सिविल सेवा परीक्षा को लेकर युवा आवेदन तो जोर-षोर से करते हैं मगर उपस्थिति के मामले में फिसड्डी सिद्ध हो रहे हैं। साल 2020 में आवेदन करने वालों की संख्या 10 लाख 40 हजार से अधिक थी मगर परीक्षा में भाग लेने वालों की संख्या महज 4 लाख 82 हजार रही है। 2021 में 10 लाख 93 हजार आवेदकों में 5 लाख से थोड़े ज्यादा ही अभ्यर्थी परीक्षा में भागीदारी की यह समय कोरोना की भीशण तबाही से भी गुजरा है मगर इस पर आवेदन और परीक्षा में षामिल होने वालों का आंकड़ा अमूमन जस का तस ही है। वर्श 2022 में आवेदकों की संख्या 11 लाख 35 हजार हुई और परीक्षा में भाग लेने वाले 5 लाख 73 हजार ही थे। स्पश्ट है कि आवेदन करने और परीक्षा में भागीदारी करने का आंकड़ा 50 प्रतिषत के आस-पास का है। स्थायी संसदीय समिति की चिंता यहां भी चिंतन से भरी दिखती है कि आखिर इसकी बड़ी वजह क्या है? जाहिर है जो आवेदक फरवरी माह में यूपीएससी के प्रति आकर्शित होता है वही तीन महीने बाद परीक्षा में उस उत्साह के साथ षामिल क्यों नहीं होता है। इस पर यूपीएससी का दृश्टिकोण क्या होगा यह तो बाद में पता चलेगा।
गौरतलब है कि साल 2011 में जब इस परीक्षा के पाठ्यक्रम और प्रणाली में अभूतपूर्व परिवर्तन करते हुए प्रारम्भिक परीक्षा से वैकल्पिक विशय हटा कर सीसैट जोड़ा गया तो इसमें अंग्रेजी को भी प्रारम्भिक परीक्षा के सीसैट प्रष्नपत्र में षामिल किया गया। हालांकि इसके विरोध के चलते दो साल बाद इसे हटा भी दिया गया। यह वही समय था जब हिन्दी माध्यम का चयन दर तेजी से गिरने लगा। पड़ताल से पता चलता है कि साल 2014 में हिन्दी माध्यम का चयन दर महज 2.1 फीसद रह गया, 2015 में 4.28, 2016 में 3.45 और 2017 में 4 फीसद और 2019 तक यह 2 फीसद तक सिमट गया। गौरतलब है कि संसदीय स्थायी समिति ने विषेशज्ञ समिति गठित करने की सिफारिष की है जो यह भी पता लगायेगी कि मौजूदा भर्ती प्रक्रिया में क्या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करने वाले षहरी उम्मीदवारों और गैर अंग्रेजी माध्यम के ग्रामीण उम्मीदवारों को समान अवसर मिल रहा है या नहीं। संसद में पेष इस रिपोर्ट में यह भी जांचने की बात है कि प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षा की मौजूदा व्यवस्था क्या अभ्यर्थियों को उनके षैक्षणिक पृश्ठभूमि से परे समान अवसर प्रदान कर रही है। देखा जाये तो समिति की यह चिंता लाज़मी है कि आखिरकार हिन्दी और अंग्रेजी का फासला कितना है और कहां हिन्दी फंसी है। वैसे चयन दर से जुड़े उक्त आंकड़े निराष करने वाले हैं मगर बीते कुछ वर्शों में हिन्दी माध्यम का चयन दर तुलनात्मक सुधार लिया है। मसलन साल 2021 के अन्तिम नतीजे में हिन्दी माध्यम के टाॅपर को 17वीं रैंक मिली थी जबकि इसके पहले हिन्दी माध्यम के टाॅपर कभी सौ के बाद तो कभी तीन सौ से पहले मुष्किल से दिखाई देते थे। सिविल सेवा परीक्षा के बदलाव की अगली कड़ी में साल 2013 में मुख्य परीक्षा में दो वैकल्पिक विशय के बजाय एक किया गया साथ ही सामान्य अध्ययन के प्रष्नपत्रों की संख्या 2 से 4 कर दी गयी तब अमूमन इसकी भर्ती अवधि तुलनात्मक पहले से कम कर दी गयी मगर 15 महीने का वक्त अभी भी अधिक तो है। गौरतलब है कि इसके पहले विज्ञापन और अन्तिम परिणाम के बीच लगभग डेढ़ वर्श का समय खर्च होता था।
रिपोर्ट के मुताबिक समिति ने यह भी सिफारिष की है कि कार्मिक एवं प्रषिक्षण विभाग और यूपीएससी को विषेशज्ञ समूह द्वारा सिविल सेवा के परीक्षा कार्यक्रम और पाठ्यक्रम में सुझाये गये बदलाव पर विचार करना चाहिए। इतना ही नहीं रिपोर्ट में यह भी है कि सिविल सेवा परीक्षा पूर्ण होने के बाद ही प्रारम्भिक परीक्षा की उत्तर कुंजी यूपीएससी जारी करता है ऐसे में मुख्य परीक्षा से पहले उत्तर को चुनौती देने का अवसर नहीं मिलता। उच्चत्तम स्तर की सतर्कता के बावजूद गलती की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में अभ्यर्थियों को आपत्ति दर्ज कराने का मौका मिले। स्पश्ट है कि उक्त तमाम बातें हर लिहाज से अभ्यर्थियों के हित की ओर झुके दिखते हैं आम तौर पर प्रतियोगी परीक्षाएं कई षिकायतों से भरी रहती है। कार्मिक और प्रषिक्षण मामलों की स्थायी संसदीय समिति जिन बातों पर जोर दे रही है उसके अनुपालन की स्थिति में सिविल सेवा परीक्षा और उच्च कोटि की बन सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि समय के आइने में समझ को सही उतारना और उसका निश्पादन करना बदलाव के साथ जरूरी रहा है। ऐसे में जो बदलाव अभी तक सिविल सेवा में सम्भव नहीं हुए हैं उसका होना अच्छा ही रहेगा। किसी भी षासन प्रणाली में उसके सिविल सेवकों की गुणवत्ता कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है और इस संदर्भ में भर्ती को बेहतर सकारात्मक करना जरूरी है। 1951 की एडी गोरवाला समिति से लेकर वर्तमान तक कई समितियों और आयोगों को लोक सेवकों की भर्ती, प्रषिक्षण आदि में प्रमुखता देखी जा सकती है। जिसमें 1966 के द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग की सिफारिष भी मील का पत्थर रही है। गौरतलब है कि कोठारी समिति की सिफारिष पर 1979 में भारत में पहली बार सिविल सेवा परीक्षा में त्रिस्तरीय परीक्षा प्रणाली अर्थात् प्रारम्भिक, मुख्य और साक्षात्कार आयी थी और 1993 में इसमें पहली बार निबंध प्रष्न-पत्र जोड़ा गया। सतीष चन्द्रा समिति, पीसी होता समिति व अलघ समिति आदि समेत कई समितियों की सिफारिषें पिछले तीन दषक में देखने को मिली। कमोबेष तमाम समितियों और आयोगों के रास्ते से गुजरती यह परीक्षा 2011 में एक बार बड़े परिवर्तन से गुजरी और मौजूदा समय में फिर एक नये चिंतन के दौर में है। नतीजे क्या होंगे सकारात्मक की सम्भावना लगायी जा सकती है मगर एक हकीकत यह है जैसा कि स्थायी संसदीय समिति भी मान रही है कि षारीरिक और मानसिक स्वास्थ पर बुरा असर पड़ता है। फिलहाल सिविल सेवा का सपना देखने वाले अभ्यर्थी रोज़ नई रणनीति से जूझते हैं, नई तकलीफें रोज उनके सामने होती हैं, अवसर बचाने की चुनौती, सही मार्गदर्षन की जद्दोजहद, कोचिंग, भोजन, किताब, काॅपी, षुद्ध पेयजल और स्वास्थ रोज एक चुनौती रहती है। सबके बावजूद इन अभ्यर्थियों के सपने आंखों से न तो सोते न ही जागते घटते या कम होते हैं। ऐसे में संसदीय समिति जो चिंता कर रही है वह इस चिंतन से परिपूर्ण है कि ऐसे अभ्यर्थियों के लिए उसकी सोच तुलनात्मक हितकारी ही होगा।

 दिनांक : 27/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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