Sunday, April 23, 2023

न्यायपालिका और महिलाएं

अपने पूरे जीवनकाल में महिलाओं के अधिकारों, मतदान के अधिकारों और सभी के लिए समान अधिकारों के लिए लड़ाई में संलग्न अमेरिकी उच्चत्तम न्यायालय की महिला न्यायाधीष रहीं रूथ वेदर गिन्सबर्ग से जब एक बार पूछा गया था कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में कितनी महिला न्यायाधीष पर्याप्त होंगी तब उन्होंने कहा कि मुझे तब संतोश होगा कि जब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में सभी नौ न्यायाधीष महिलाएं होंगी। गौरतलब है कि साल 2020 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने सत्ताईस वर्श अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में अपनी सेवाएं दी। विदित हो कि अमेरिका की षीर्श अदालत में एक मुख्य न्यायाधीष समेत नौ न्यायाधीष होते हैं जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में यही संख्या चैंतीस है। भारत स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौर में है 75 साल की आजादी के इस दरमियान महिला सषक्तिकरण को लेकर विविध क्षेत्रों में कार्य किये गये। सिविल सेवा, पुलिस सेवा, इंजीनियर, डाॅक्टर व मिलट्री व न्यायिक सेवा समेत विविध क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति बाकायदा देखी जा सकती है। मगर इस कसक के साथ कि उच्च एवं उच्चत्तम न्यायालय में महिलाओं के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व का प्रयास बड़ा आकार नहीं ले पाया। सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीष के पद पर अभी तक किसी महिला न्यायाधीष की नियुक्ति नहीं हुई है। हालांकि न्यायाधीष के रूप में कई महिलाएं नियुक्त हो चुकी हैं और इस बार काॅलेजियम ने तीन महिला न्यायाधीषों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करके एक बड़ी पहल किया है। सम्भव है कि 2027 तक देष को पहली महिला मुख्य न्यायाधीष मिले। ध्यानतव्य हो कि वर्श 1989 में न्यायमूर्ति एम. फातिमा बीबी सर्वोच्च न्यायालय की पहली न्यायाधीष बनी थीं उन्होंने केरल न्यायालय के न्यायाधीष के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद सेवा निवृत्त किया गया था। यह सही है कि विविधीकरण सकारात्मक परिवर्तन को बढ़ावा देता है। सेवा का कोई भी क्षेत्र हो अधिक विविध होने से सम्भावनाएं बड़ी होती हैं न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं है। महिलाओं की संख्या अपेक्षानुरूप होना बदलाव को न केवल दृश्टिगोचर करेगा बल्कि लैंगिक रूढ़िवादिता को भी दूर करने में यह मददगार सिद्ध होगा।
न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण के लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीष एन.वी. रमन्ना का आह्वान सराहनीय है मगर वास्तुस्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय में अब तक 11 महिला न्यायाधीष की नियुक्ति हुई है जबकि उच्च न्यायालयों में लगभग 11.5 फीसद महिला न्यायाधीष हैं और अधीनस्थ न्यायालयों में यही आंकड़ा 30 प्रतिषत का है। इसी तर्ज पर देष में 17 लाख अधिवक्ताओं में से महज 15 फीसद महिला अधिवक्ता हैं। जाहिर है अभी इस क्षेत्र में कई बड़े कदम की आवष्यकता है। गौरतलब है कि देष में बढ़ते विधि विष्वविद्यालयों व काॅलेजों की संख्या और उनमें कानून की पढ़ाई का निहित होना उत्तरोत्तर वृद्धि लिए हुए है और विधि स्कूल की कक्षाओं में महिलाएं पुरूशों से आगे भी निकल रही हैं मगर एक रास्ता तेजी से काॅरपोरेट क्षेत्र की ओर भी जाता है। बेषक न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधितव बढ़ाने की आवष्यकता है और इसके कई सकारात्मक पहलू भी हैं। महिला प्रतिनिधित्व बढ़ने से न्यायपालिका को कहीं अधिक सकारात्मक और अधिक समावेषी की ओर ले जाया जा सकता है और न्याय के क्षेत्र में इनकी प्रतिभा का बाकायदा उपयोग भी सम्भव होगा। समाज में एक षक्तिषाली संदेष यह भी है कि महिलाओं की उपस्थिति से जनता का विष्वास और वैधता के साथ अनुषासन को बड़ा किया जा सकता है। फलस्वरूप महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व भी न्यायपालिका को मिलेगा और नैतिक रूप से समाज को भी इस बात के लिए सषक्त बना देगा कि पितृसत्तात्मक जैसी न कोई बात है और न ही ऐसी कोई धारणा का अब कोई महत्व है। इसके अलावा आर्थिक न्याय के साथ-साथ व्यापक सामाजिक न्याय भी सुनिष्चित करने में सहायता मिलेगी। गौरतलब है कि महिला सषक्तिकरण दषकों से किया जा रहा एक ऐसा प्रयास है जिसमें सरकारें हमेषा चिन्तित रही हैं। सुषासन की परिपाटी में भी महिला सषक्तिकरण एक ऐसी आहट रही जिन्हें सामाजिक-आर्थिक न्याय देकर मुख्य धारा में लाना रहा है। लोक केन्द्रित अवधारणा के अन्तर्गत अवसर की उपादेयता और उन्हें हाषिये से समतामूलक दृश्टिकोण के तहत पूरा मौका देना भी सषक्तिकरण का आयाम है। वर्तमान दौर तो सभी दिषाओं में महिलाओं में होने का सूचक है ऐसे में न्यायपालिका के भीतर उनके प्रवेष को प्रोत्साहित करना इसी दिषा में उठाया गया एक मजबूत कदम कहा जायेगा।
संवैधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत देखें तो अनुच्छेद 15, 15(3), 16, 39(क) के अन्तर्गत समाज में लैंगिक न्याय प्राप्त करने का प्रयास किया गया है। जाहिर है न्यायपालिका में महिलाओं को बड़ी भागीदारी देकर इस मामले में पथ और समतल किया जा सकता है। इतना ही नहीं यह सतत् विकास लक्ष्य-5 के अनुकूल है जो कि  लैंगिक समानता पर केन्द्रित है। वैसे एक बड़ा सच यह है कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति को लेकर बातें बड़ी षिद्दत से समझी और कही जा रही हैं मगर हैरत इस बात का भी है कि बीते पच्चहत्तर सालों में संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने की हिम्मत भी अब तक की सरकारें नहीं जुटा पायी हैं यह मामला आज भी खटायी में है और इससे जुड़ा विधेयक पारित नहीं हो पाया। मगर सभी राजनीतिक दल मंचों पर खड़े होकर इसका समर्थन जरूर करते हैं। आखिर क्या वजह है कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति एक व्यापक स्थान नहीं ले पायी। इसमें पारिवारिक उत्तरदायित्व से लेकर कई और कारण भी हो सकते हैं। हालांकि बदलते दौर के अनुपात में महिला षिक्षा और विधि क्षेत्र में उनका दखल तेजी से बढ़ रहा है ऐसे में न्यायिक क्षेत्र में उनका अधिक होना देर-सवेर सम्भव तो है। इसके अलावा महिलाओं को दिये गये आरक्षण की परिपाटी ने भी न्यायिक सेवा में उनकी पहुंच बढ़ाया है। असम, आन्ध्र प्रदेष, तेलंगाना, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों में आरक्षण से लाभ हुआ है। यहां 40 से 50 फीसद महिला अधिकारी देखी जा सकती है। कई राज्यों में 30 फीसद के आरक्षण इस दिषा में कारगर कदम हैं जो षनैः षनैः इनकी उपस्थिति को और सघन बनाने में मददगार होगा। इस बात को भी षिद्दत से समझने की आवष्यकता है कि यह समय की मांग और अपरिहार्यता भी है कि महिलाओं को न्यायपालिका में व्यापक प्रवेष देकर उनके साथ भी न्याय किया जाये। अदालतों में जिस प्रकार मुकदमों का अम्बार है और निरंतर यह बोझ बढ़ता जा रहा है उसमें न्यायिक क्षेत्र को भी विविध करने की आवष्यकता है जो महिलाओं की संख्या बढ़ाने से हासिल किया जा सकता है। वैसे देखा जाये तो अमेरिका की न्यायपालिका में भी महिलाओं को लेकर बहुत सकारात्मक आंकड़े नहीं दिखाई देते। हालांकि प्रत्येक देष की अपनी सामाजिक-आर्थिक पारिस्थितिकी के साथ षासकीय और न्यायिक दृश्टिकोण होते हैं। जाहिर है तुलना पूरी तरह समुचित नहीं है मगर इससे इस बात से अवगत होना सहज हो जाता है कि भारत में ऐसा कुछ अनोखा नहीं हो रहा है।
दो टूक यह भी है कि न्यायपालिका मुकदमों के बोझ के तले दबी हैं और निचली अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा मामले लम्बित हैं जबकि सभी अदालतों का यही आंकड़ा 4.70 करोड़ है। प्रधानमंत्री और कई मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में साल 2022 में एक सम्मेलन में बोलते हुए तात्कालीन मुख्य न्यायाधीष ने कहा था कि अदालतें जजों की कमी से जूझ रही हैं और दस लाख लोगों पर 20 न्यायाधीष हैं जो बढ़ती मुकदमेंबाजी को संभालने के लिए नाकाफी हैं और चैबीस हजार पद खाली हैं जाहिर है यह बहुत बड़ी संख्या है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि पदों की भरपायी के चलते न केवल न्यायिक प्रक्रिया में षीघ्रता आयेगी बल्कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति भी तुलनात्मक बढ़त लेगी। कानून के षासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लम्बित हो जाये तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं और यह तब अधिक समस्या बन जाता है जब न्यायपालिका में पद रिक्त हों और मुकदमों का अम्बार लगा हो। इसे लेकर न केवल देष की षीर्श अदालत बल्कि कानून मंत्री भी चिंता जाहिर कर चुके हैं। षीर्श अदालत के एक अन्य न्यायाधीष ने कार्यक्रम के दौरान कहा था कि भारत में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर पचास न्यायाधीषों की आवष्यकता है। फिलहाल न्यायिक क्षेत्र में बढ़ती लोगों की आवष्यकता और मुकदमों तथा विचाराधीन लाखों कैदी जो न्याय की ओर मुह ताक रहे हैं उन सभी के लिए एक ही सुगम रास्ता है कि न्यायपालिका हर लिहाज़ से दुरूस्त हो। पद खाली न रहे, प्रक्रिया सरल हो, न्याय और सुलभ हो साथ ही कम खर्चीला हो। इसके अलावा महिलाओं की उपस्थिति को और बेहतर बनाकर उनकी प्रतिभा का उपयोग कर मुकदमे की बाढ़ को थामने का प्रयास किया जा सकता है। देष के विकास में सभी का योगदान है और सकल घरेलू उत्पाद यदि घाटे में रहेगा तो किसी भी संस्था के लिए सही नहीं है। सुषासन की दृश्टि व लोकतांत्रिक मूल्यों के अन्तर्गत और अन्ततः महिला सषक्तिकरण के पैमाने पर देखा जाये तो न्यायपालिका में महिलाओं की संतुलित पहुंच हर लिहाज से बेहतर ही कहा जायेगा।

दिनांक : 20/04/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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