Monday, April 3, 2023

बोलने की आजादी, लोकतंत्र और मानहानि

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जून 2014 में कहा था कि अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा। तब मौजूदा सरकार की पहली पारी का बामुष्किल एक महीना ही बीता था। वर्तमान में मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने जा रहे हैं जाहिर है कई उतार-चढ़ाव और खींचा-तानी के बीच यह वक्त बीता है। वोट की सियासत और सत्ता की जुगत में क्या-क्या हथकण्डे अपनाये जाते हैं यह भी समय के आईने में तफ्तीष की जा सकती है। पक्ष और विपक्ष दोनों जनता में पैठ बनाने के लिए क्या नहीं बोला और क्या सुनने को नहीं मिला इसकी भी लम्बी फहरिस्त देखी जा सकती है। जिसमें इसी प्रकार का एक प्रकरण राहुल गांधी से सम्बंधित है जिन्हें मानहानि का दोशी पाते हुए दो साल की सजा दे दी गयी है। दरअसल वाकया साल 2019 का है जब लोकसभा का चुनाव था और कर्नाटक की चुनावी रैली में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने मोदी षब्द को लेकर टिप्पणी की जिसे लेकर मानहानि का मामला दर्ज करवाया गया और अंततः 23 मार्च 2023 को इसी प्रकरण के चलते राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाई गयी। आगामी 10 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव सम्पन्न होगा और राहुल गांधी कर्नाटक के उसी स्थान पर पहली चुनावी रैली करेंगे जहां से उन्हें गलत टिप्पणी के लिए सजा दी गयी है। हालांकि उन्हें ऊँची अदालत में जाने का एक महीने का मौका दिया गया जो नियम संगत भी है और तत्काल जमानत भी मिल गयी। फिलहाल उन्होंने उच्च न्यायालय में इस सजा के विरूद्ध अभी तक कोई अपील नहीं की है मगर उन्हें लोकसभा की सदस्यता और घर दोनों को छोड़ना पड़ा है। सदस्यता रद्द करने और तत्पष्चात घर छोड़ने वाले नोटिस में जो गति दिखी वह भी त्वरित ही कही जायेगी। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) में सभी को बोलने की आजादी है। हालांकि अनुच्छेद 19(2) में युक्तियुक्त निर्बन्धन की बात भी देखी जा सकती है। बावजूद इसके इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता कि कईयों ने इसका बेजा इस्तेमाल किया है मगर वो मानहानि की चपेट में नहीं आये और कई मामलों में माफी मांगने से भी काम चला लिया गया। राहुल गांधी इस अधिकार का कितना बेजा इस्तेमाल किया यह उन दिनों के चुनावी समर में षायद कोई इतना संवेदनषीलता से नहीं समझा होगा। ऐसा नहीं है कि चुनावी जंग में बदजुबानी नहीं होती है अच्छे खासे षीर्श नेता भी बदजुबानी के निचले पायदान तक भी चले जाते हैं मगर ज्यादातर मामलों में बात आयी-गयी हो जाती है। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में सूरत की अदालत में आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत दोशी ठहराया था। अभी भी उन पर आधा दर्जन मामले मानहानि से जुड़े चल भी रहे हैं और ज्यादातर की सुनवाई गुजरात की अदालतों में हो रही है।
संविधान और कानून की बातें बड़ी बारीक होती हैं और इसके आषय को बारीकी से समझना सामान्य बात तो नहीं है। सत्ता की होड़ में किस स्तर तक की बोली हो जाती है इसकी बानगी चुनाव प्रचार में अक्सर देखने को मिलती है। 10 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव होना है, हो न हो सियासी पैंतरे में बिगड़े बोल का ढ़ेर यहां भी कम-ज्यादा मिलेगा ही। यह बात समझ से परे है कि राजनीति में इतनी गिरावट कहां से आयी और बोली इतनी खराब क्यों हो गयी। सवाल केवल राहुल गांधी का नहीं है हर दल का नेता खराब बोली से भरा है और मानहानि की फहरिस्त भी अच्छी-खासी देखी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय पर नजर डाली जाये जहां उसकी एक बड़ी चिंता की झलक दिखती है तो यह समझना आसान हो जायेगा कि सांसदों और विधायकों के लिए तमाम लगाम के बावजूद अपराधिक प्रवृत्तियां रूक नहीं रही। गौरतलब है कि राजनीति के अपराधीकरण पर तमाम लगाम कसने की दिषा में सर्वोच्च न्यायालय ने 10 जुलाई 2013 को लिली थाॅमस की याचिका पर एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया था जिसके अन्तर्गत जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार देते हुए यह व्यवस्था दी कि यदि सांसदों या विधायकों को निचली अदालत द्वारा किसी अपराध के लिए दोशसिद्धि करार देते हुए इस अधिनियम की धारा 8(1), (2), (3) में निर्बन्धित मामलों के संदर्भ में निर्धारित स्तर या अधिक की सजा सुनाई जाती है तो वे अयोग्य ठहराये जायेंगे और दो साल या इससे अधिक सजा प्राप्त सांसदों या विधायकों को अपने सदन की सदस्यता समाप्त हो जायेगी। जाहिर है इसी कानून के चलते राहुल गांधी लोकसभा से बाहर हो गये। मानहानि के मामले में यह बड़ी सजा है और इतने बड़े नेता के लिए तो काफी बड़ी कही जायेगी। फिलहाल इस बात के लिए सियासत आगे भी जारी रहेगी कि मानहानि के मामले में राहुल गांधी एक नजीर है और ऐसे स्थिति में सियासत के रूख और लोकतंत्र दोनों में दायें-बायें का फर्क तो भविश्य में दिखेगा।
रोचक यह भी है कि इस निर्णय के बाद सितम्बर 2013 में जब मनमोहन सिंह सरकार यह अध्यादेष लाने के प्रयास में थी कि निचली अदालत द्वारा दिए गए दो साल या इससे अधिक की सजा पर सदस्यता रद्द नहीं होगी इस अध्यादेष केा बेतुका बताते हुए राहुल गांधी ने फाड़ दिया था। और 10 साल में वही उनके सामने आकर खड़ा हो गया। हालांकि उस दौर में राहुल गांधी की तारीफ इस बात के लिए बनती थी कि उन्होंने सदस्यता खोने वाले लालू प्रसाद समेत राषिद अली आदि को महत्व न देकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और लोकतंत्र के लिए जो बेहतर था वो काम किया। बीते कुछ वर्शों से यह देखने को मिल रहा है कि कई प्रारूपों में वाक् एवं अभिव्यक्ति को लेकर देष का वातावरण गरम हो जाता है जिसके चलते देषद्रोह के मुकदमों में भी बाढ़ आयी। कहा जाये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है इसी के चलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जनमत को तैयार करते हैं। सभी सरकारें यह जानती हैं कि कई काम और बड़े काम करते समय विचार बदलेंगे, संघर्श में रहेंगे और आलोचनाओं के भी दायरे में आयेंगे। मगर सत्ता की हनक कहें या चुनावी समर में लिहाज भूलना कहें जुबान फिसल ही जाती है। यहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानहानि का एक कारण बन जाती है। ऐसा भी देखा गया है कि कईयों ने इसे समय और परिस्थिति के अंतर्गत नजरअंदाज कर दिया और कुछ ने इसे अपने मान-सम्मान का ठेस मान लिया बस यहीं पर अभिव्यक्ति क्या करनी है क्या नहीं करनी है की समझ का भी विस्तार सम्भव हो जाता है। राहुल गांधी इस सजा वाली घटना से क्या सीखेंगे, क्या नहीं, यह कहना मुष्किल है मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारों को भी ध्यान देने की आवष्यकता है। सत्ता की हनक में चीजों को बिगड़ने से रोके। उच्चत्तम न्यायालय ने यह बात कई बार कहा है कि सरकार की आलोचना देषद्रोह नहीं है। जाहिर है सरकार की आलोचना की स्थिति में केवल इतना समझना है कि अमुक व्यक्ति का विचार भिन्न है। फिलहाल सियासत और सरकार में मौकापरस्ती का खेल खूब चलता है और ऐसे कानून की आड़ में उपयोग के साथ दुरूपयोग का भी चलन सम्भव है। सरकार हो या विपक्ष अभिव्यक्ति की मर्यादा को दोनों समझें।  

दिनांक : 30/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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