Monday, September 19, 2022

नौनिहालों की शिक्षा और मिड-डे मील


भारत में किसी भी नीति की पहली षर्त यह है कि वह किसी भी हालत में संविधान की मूलभावना के विरूद्ध न हो और प्राथमिकता इस आषय के साथ कि सरकारें काम वह करें जो संविधान में निहित सम्भावना को बल मिले। ऐसी ही तमाम सम्भावनाओं के बीच षिक्षा को प्राथमिकता में रखना किसी भी सरकार के लिए भले ही आसान प्रक्रिया रही हो मगर सर्वोदय और अन्त्योदय की भावना से युक्त होकर षिक्षा से अन्तिम बच्चा भी वंचित न रहे इस पर अभी खरा उतरना दूर की कौड़ी है। भारतीय संविधान के भाग 3 के अंतर्गत उल्लेखित मूल अधिकार के अनुच्छेद 21क में षिक्षा का अधिकार दिया गया है जबकि भाग 4 में निहित नीति निदेषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 45 में राज्यों को यह निर्देष है कि वह 14 वर्श तक के बच्चों की निःषुल्क व अनिवार्य षिक्षा की व्यवस्था करंे। इतना ही नहीं इसे और ताकत देने के लिए षिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 भी पारित किया गया जो 1 अप्रैल 2010 से प्रभावी है। उक्त उपबंध के आलोक में यह समझना कहीं अधिक आसान है कि षिक्षा वह नींव है जहां से भारत का निर्माण प्रारम्भ होता है। ऐसे में जितना भी और जो भी बन पड़े नौनिहालों की षिक्षा के लिए किया ही जाना चाहिए। षायद यही कारण है कि साल 1990 में विष्व कांफ्रेंस में सबके लिए षिक्षा की घोशणा की गयी और 15 अगस्त 1995 को सरकार ने बच्चों को स्कूलों की तरफ ध्यान आकर्शित करने और उन्हें रोके रखने के लिए मिड-डे मील योजना षुरू की। चलो स्कूल चलें से लेकर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की अवधारणा इसी षिक्षा को बढ़ाने की दिषा में तमाम नई-पुरानी संकल्पनायें हैं। आजादी के 75 वर्श बीत चुके हैं और अमृत महोत्सव का वातावरण जारी है। ऐसे में यह प्रष्न स्वाभाविक रूप से उभरता है कि क्या भारत में प्राथमिक षिक्षा की उत्तम व्यवस्था इतने वर्शों में बन पायी है। फिलहाल यह सवाल अभी अधूरे उत्तर के साथ फलक पर तैर रहा है। सभी बच्चों के लिए प्राथमिक षिक्षा निःषुल्क व अनवार्य षिक्षा का लक्ष्य महज कुछ वर्श पुराना नहीं है, इसकी यात्रा कमोबेष आजादी जितनी ही पुरानी है। बावजूद इसके नौनिहालों की स्कूली षिक्षा को लेकर चित्र बहुत अच्छा उभरता हुआ दिखता नहीं है। हां यह बात और है कि जारी प्रयास के बीच इसमें उत्तरोतर वृद्धि हुई है मगर कोविड-19 के दो वर्श ने तमाम के बीच स्कूली षिक्षा को भी चोटिल किया है। गौरतलब है कि 14 मार्च 2020 मिड-डे मील पर लगाम लग गया था और साथ ही उन बच्चों के लिए भी अधिक घातक था जो भोजन की चाहत के लिए षिक्षा और स्कूल से जुड़े थे। हालांकि मिड-डे मील अब एक बार फिर अपने पथ पर चल पड़ा है मगर बरसों पहले से जिन बच्चों को भोजन की चाहत से षिक्षा को जोड़ने का काम हुआ था उनकी कितनी वापसी हुई है यह पड़ताल का विशय है। फिलहाल वर्तमान में इस योजना के चलते 6 से 14 आयु वर्ग और कक्षा 1-8 तक के लगभग 12 करोड़ बच्चे षामिल हैं।
विदित हो कि सरकार की ओर से सरकारी, गैर सरकारी व अषासकीय समेत मान्यता प्राप्त विद्यालय में कक्षा 1 से लेकर 8 तक के छात्र-छात्राओं को दोपहर का भोजन कराया जाता है जिसे मिड-डे मील की संज्ञा दी जाती है। मगर वर्श 1921 में इसका नाम परिवर्तित कर पीएम पोशण योजना कर दिया गया। बच्चों का बेहतर विकास हो और ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कूल आ सकें। इसी उद्देष्य को देखते हुए मिड-डे मील योजना 1995 में लायी गयी। अक्टूबर 2007 में इसे विस्तार देते हुए 5वीं कक्षा से बढ़ाकर कक्षा 8वीं तक के लिए कर दिया गया था। वैसे औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में ऐसा कार्यक्रम पहली बार 1925 में मद्रास नगर निगम में वंचित बच्चों के लिए षुरू किया गया था। इसमें कोई दो राय नहीं यह योजना बच्चों को स्कूल तक लाने में सफल तो रही है मगर जितने आंकड़े गिनाये या जताये जाते हैं, सफलता दर उतना ही है तो देष की अषिक्षा अब तक सिमट जाना चाहिए। साफ है कि आंकड़े और हकीकत में अभी और फासला है और इसे पाटने की जिम्मेदारी सरकार और उसके अभिकरणों की है। गौरतलब है कि योजना कितनी भी सषक्त और कारगर क्यों न हो उसका निश्पादन पूरी तरह सुनिष्चित हो ऐसा षायद ही कभी सम्भव हुआ हो। मिड-डे मील योजना भी इससे अलग नहीं है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फाॅर्मेषन सिस्टम फाॅर एजुकेषन की रिपोर्ट बताती है कि देष में सरकारी स्कूलों की संख्या में कमी आयी है जबकि प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ी है। रिपोर्ट के अनुसार 2018-19 में देष में 50 हजार से अधिक सरकारी स्कूल बंद हो गये हैं। मिड-डे मील योजना के बावजूद बच्चों को पूरी तरह स्कूल पहुंचने, यदि पहुंच भी गये है तो बीच में पढ़ाई छोड़ने का सिलसिला थमा नहीं है। यूनेस्को की हालिया रिपोर्ट यह स्पश्ट करती है कि कोरोना महामारी के कारण पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या और तेजी से बढ़ी है।
मिड-डे मील योजना 1997-98 तक देष के सभी राज्यों में लागू हो चुकी थी। इतना ही नहीं 2002 में मदरसों को भी इसमें षामिल किया गया। 2014-15 में यह योजना साढ़े ग्यारह लाख प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में चल रही थी तब के आंकड़े बताते हैं कि 10 करोड़ बच्चे लाभान्वित हो रहे थे। 2011 मे योजना आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में स्कूलों की संख्या 15 लाख थी। षिक्षा के उत्तरोतर विकास को देखते हुए यह समझना सहज है कि एक दषक बाद यह आंकड़ा और गगनचुम्बी हुआ होगा। जिस देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे हो और यही आंकड़ा अषिक्षा का भी हो तो ऐसी योजनाओं का मूल्य कहीं अधिक बड़ा हो जाता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि षिक्षा गरीबी, मुफलिसी व आर्थिक तंगी में बहुत मुष्किल से पनपती है। जिन्होंने इसके रहते षिक्षा पोशित करने में सफल रहे वे दुनिया मं विरले थे और अपवाद भी। संदर्भ निहित बात यह भी है कि कक्षा 1 से 5 तक के सभी बच्चों को प्रतिदिन 100 ग्राम अनाज, दाल और सब्जी दिया जा रहा है और कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को यही खाद्य सामग्री 150 ग्राम दी जा रही है। उद्देष्य यह है कि बच्चों को कैलोरी और प्रोटीन के अलावा लौह और फोलिक एसिड जैसे सूक्ष्म पोशक तत्वों को भी प्रदान किया जाये। विदित हो कि मिड-डे मील केवल एक योजना नहीं है बल्कि राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के माध्यम से प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों का यह कानूनी अधिकार है। गौरतलब है कि प्राथमिक षिक्षा के प्रसार और उन्नयन हेतु 1957 में सरकार ने अखिल भारतीय प्राथमिक षिक्षा का गठन किया गया। इसकी ओर से ठोस सुझाव भी आये और प्राथमिक षिक्षा प्रसार भी किया। इसी क्रम में 1965 में राश्ट्रीय षिक्षा आयेाग ने अपनी रिपोर्ट पेष की जिसमें बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक धर्म, जाति व लिंग के छात्रों के लिए षैक्षिक अवसरों को समान बनाये रखने पर बल दिया गया। इसी आयोग के चलते राश्ट्रीय षिक्षा नीति 1968 प्रकाष में आयी। यहां भी षिक्षा को निःषुल्क और अनिवार्य करने को लेकर ठोस उपाय देखने को मिले। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 जहां षैक्षणिक वातावरण में एक नई अवधारणा को अवतरित किया वहीं 1985 का आॅपरेषन ब्लैक बोर्ड आधारभूत सुविधाओं के दृश्टिकोण से ओतप्रोत थी। मौजूदा दौर षिक्षा के बदलते हुए आयाम से युक्त है जो नई षिक्षा नीति 2020 से बेहिसाब उम्मीदें रखती है। जिसमें षायद इस सपने को पिरोना अतार्किक न होगा कि भारत षिक्षा के मामले में न केवल न्यू इण्डिया की ओर होगा बल्कि आत्मनिर्भर और पूर्ण षिक्षित भी होगा।
षिक्षाविद और पूर्व राश्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृश्णन ने भी षिक्षा के महत्व पर अनेकों बार प्रकाष डाला है। षिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिश्क का सदुपयोग किया जा सकता है। ध्यानतव्य हो कि वर्तमान युग सूचनाओं का है और इन्हीं सूचनाओं के संकलन तत्पष्चात् उसकी प्रस्तुति आज की दुनिया में बौद्धिकता का प्रमाण है। ऐसे में नौनिहालों की षिक्षा पर न तो कोई समझौता हो सकता है और न ऐसी कोई समझ लायी जा सकती है जो इनके षिक्षा अधिकार को तनिक मात्र भी चोटिल करता हो। मिड-डे मील योजना को लेकर किसी तरह की कोई घोटाला और लापरवाही न बरती जाये इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जो अब षिक्षा मंत्रालय है एक कमेटी का भी गठन किया। कमेटी राश्ट्रीय स्तर पर इस योजना की निगरानी रखती है। जबकि कुछ राज्य, जिला, नगर, ब्लाॅक, गांव और स्कूल स्तर पर इस योजना के कार्य को देखती है। जिसके चलते यह सुनिष्चित किया जाता है कि देष के हर स्कूल में सही तरह का खाना बच्चों को दिया जाये। बावजूद इसके इसमें इतनी त्रुटियां हैं कि षिकायतों का अम्बार लगा रहता है। मिड-डे मील के तहत मिलने वाले भोजन विशैले और जहरीले भी परोसे गये हैं, बच्चे बीमार भी हुए हैं और मौत के आंकड़े भी समय-समय पर देखे गये हैं। इस योजना के लाभ बच्चों को जहां मिलता है वहीं इसका दुरूपयोग भी कईयों के द्वारा जारी है। मिड-डे मील योजना लगभग तीन दषक पुरानी हो रही है फिर भी भारत भुखमरी के सूचकांक में अपना स्तर सुधारने में नाकाम ही रहा है। इन सबके बावजूद भी इस योजना की कड़वी  सच्चाई यह है कि इसने प्राथमिक षिक्षा को बढ़ावा दिया है। देष के गरीब और कुपोशित बच्चों को स्कूल का रास्ता दिखाया है। विद्यालयों में छात्रों की संख्या बढ़ी है। स्कूल आने के लिए इन्हें प्रोत्साहन मिल रहा है। स्कूल छोड़ने पर लगाम तो नहीं लगी है पर कमी में यह योजना कारगर सिद्ध हो रही है। कुल मिलाकर यह कहना वाजिब होगा कि मिड-डे मील योजना देष के करोड़ों नौनिहालों को वो उम्मीद है जहां षिक्षा के साथ पेट की भी चिंता की जाती है और उनके पोशण को सुधार कर सीखने के स्तर को बड़ा बना रही है।

  दिनांक : 3/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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