Tuesday, August 16, 2022

जय अनुसंधान और सुशासन

यह कहना अतार्किक न होगा कि अनुसंधान समाज जितना ही पुराना है। समय और काल के अनुपात में इसकी तीव्रता और तीक्ष्णता में अंतर भले ही रहा हो मगर ज्ञान को योजना ढंग से निरूपित करके सटीक कार्य व्यवस्था को प्राप्त करना सदियों पुरानी प्रणाली रही है। अनुसंधान जितना अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ता रहता है समाज की ताकत और सुषासन का परिप्रेक्ष्य उतना ही सषक्त होता रहता है। यूनेस्को के अनुसार ज्ञान के भण्डार को बढ़ाने के लिए योजना ढंग से किये गये सृजनात्मक कार्य को अनुसंधान एवं विकास कहा जाता है जिसमें मानव जाति, संस्कृति और समाज का ज्ञान षामिल है। स्पश्ट है कि उपलब्ध ज्ञान के स्रोतों से नये अनुप्रयोगों को विकसित करना ही अनुसंधान और विकास का मूल उद्देष्य है। ऐसे उद्देष्यों की प्राप्ति से समाज उन्नति की राह पर होता है और देष नये ताकत से युक्त भी होता है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा के अन्तर्गत लोक सषक्तिकरण को बढ़ावा देता है और इसकी निहित बढ़त बिना अनुसंधान के संभव नहीं है। पिछले 6 दषक से चले आ रहे जय जवान, जय किसान और 1998 में पोखरण-2 के पष्चात् जुड़े जय विज्ञान और अन्ततः अमृत महोत्सव के इस कालखण्ड में 15 अगस्त 2022 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी ने इसमें जय अनुसंधान जोड़ कर यह निरूपित करने का प्रयास किया है कि सुषासन को उसका सही मुकाम देने के लिए सुचिता और वैज्ञानिकता से भरी राह चुननी ही होगी। हालांकि इसके पहले साल 2019 में ‘भविश्य का भारत: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी‘ विशय पर बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जय अनुसंधान जोड़ा था। विदित हो कि पंजाब के जालंधर स्थित एक विष्वविद्यालय में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दौरान यह षब्द प्रकट हुआ था।
देष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के मामले में निरंतर प्रगतिषील है मगर बढ़ती जनसंख्या और व्यापक संसाधनों की आवष्यकता ने कुछ निराषा को भी साथ लिया है। चुनौतियों का लगातार बढ़ना और सुषासन को नये मानक के साथ सामाजिक उत्थान में प्रगतिषील बनाये रखने में अभी पूरी प्राप्ति अधूरी है। आज का युग नवाचार का है ईज् ऑफ लिविंग और ईज ऑफ बिजनेस समेत तमाम ऐसे ईज़ की आवष्यकता है जो सामाजिक-आर्थिक भरपाई करने में कमतर न हो। गौरतलब है कि अनुसंधान से ही नवाचार की राह खुलती है और नवाचार से ही नव लोक प्रबंध, नवीन विकल्प उपागम और तत्पष्चात् उपलब्धिमूलक दृश्टिकेाण और सुषासन की राह पुख्ता होती है। वित्तीय संसाधन और षोध का भी गहरा नाता है। भारत में षोध को लेकर जो भी प्रयास मौजूदा समय में हैं वह वित्तीय गुणवत्ता में गिरावट के चलते बेहतर अवस्था को प्राप्त करने में सफल नहीं है। भारत षोध और नवाचार के मामले में जीडीपी का 0.7 फीसद ही खर्च करता है जो अमेरिका के 2.8 प्रतिषत और चीन के 2.1 फीसद की तुलना में कई गुना कम है। इतना ही नहीं इज़राइल और दक्षिण कोरिया जैसे कम जनसंख्या वाले छोटे देष सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसद षोध पर खर्च कर रहे हैं। दो टूक यह भी है कि षोध कार्य एक समय साध्य और धैर्यपूर्वक अनुषासन में ही  सम्भव है जिसके लिए धन से कहीं अधिक मन से तैयार रहने की आवष्यकता है। सबके बावजूद आधारभूत ढांचा भी षोध कार्य की आवष्यकता में षामिल है। पिछले कुछ वर्शों के बजट में देखें तो षोध और नवाचार को लेकर सरकार ने कदम बढ़ाया है मगर इस कदम को मुकाम तब मिलेगा जब जय अनुसंधान केवल एक ष्लोगन नहीं बल्कि धरातल पर भी उतरेगा।
अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों की पड़ताल सुनिष्चित है कि विष्व की तीसरी सबसे बड़ी वैज्ञानिक और तकनीकी जनषक्ति भी भारत में ही है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिशद द्वारा संचालित षोध प्रयोगषालाओं के अंतर्गत विविध षोध कार्य किये जाते हैं। इस मामले में भारत अग्रणी देषों में सातवें स्थान पर आता है। मौसम पूर्वानुमान की निगरानी हेतु सुपर कम्प्यूटर बनाने के चलते भारत की स्थिति कहीं अधिक सुदृढ़ दिखाई देती है। जापान, ब्रिटेन और अमेरिका के बाद भारत इसमें षुमार है। नैनो तकनीक की षोध की स्थिति पर दृश्टि डालें तो यह दुनिया भर में तीसरे स्थान पर है। वैष्विक नवाचार सूचकांक में भारत काफी पीछे है जो 57वें स्थान पर दिखता है। अनुसंधान की परिपाटी को बनाये रखने में भारत कमतर नहीं है मगर अनुसंधान को व्यापक स्तर देने में यह पूरी तरह सक्षम भी नहीं है। युग तकनीकी है और ज्ञान के प्रबंधन से संचालित होता है। ऐसे में अनुसंधान और विकास की बढ़त ही देष को मुनाफे में लायेगा। षायद यही कारण है कि जय अनुसंधान को इस अमृत महोत्सव के बीच परोसकर इसकी पराकाश्ठा को जमीन पर उतारने का प्रयास किया जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत एक वैष्विक अनुसंधान और विकास हब के तौर पर तेजी से उभर रहा है और सरकार इसे रफ्तार देने में कदम भी बढ़ा चुकी है। सरकार के ऐसे ही सहयोग के चलते वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से षिक्षा, कृशि व स्वास्थ्य समेत विभिन्न क्षेत्रों में निवेष सम्भव भी हो रहा है। गौरतलब है कि आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा भी जय अनुसंधान में ही निहित है और सुषासन इसका पूरा लक्षण है। बावजूद इसके कुछ चुनिंदा क्षेत्रों को छोड़ दिया जाये तो अनुसंधान की स्थिति देष में मजबूत करना ही होगा। दुनिया वैष्विक प्रतिस्पर्धा में है और कोई देष तभी टिकेगा जब जोड़-जुगाड़ के बजाए वैज्ञानिक नियम और सिद्धांत से आगे बढ़ेगा जो षोध के बगैर सम्भव ही नहीं है।
विज्ञान का नियम, न कि अंगूठा नियम या कामचलाऊ तरीका। इस सिद्धांत का निरूपण 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में देखा जा सकता है। गौरतलब है कि वैज्ञानिक प्रबंध के पिता एफ0 डब्ल्यू टेलर ने 1911 में साइंटिफिक मैनेजमेंट को विकसित कर कई सिद्धांतों में पहला सिद्धांत यही गढ़ा जिसमें यह सुनिष्चित करने का प्रयास है कि काम के सही तरीकों को अगर वैज्ञानिक पद्धति से समझ लिया जाये तो न केवल समय और धन की बचत होती है बल्कि कम ऊर्जा खर्च करके सुषासन की अवधारणा को भी पुख्ता किया जा सकता है। सारगर्भित पक्ष यह भी है कि षोध कार्यों में भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए इसमें कई ऐसी संस्थाएं जो निजी तौर पर ऐसे कार्यों में संलिप्त हैं उनको भी साझेदार बनाना चाहिए ताकि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की दिषा में कई नीतिगत अनुसंधान सम्भव हो सके और जय अनुसंधान के इस संकल्प को सुषासन के माध्यम से जमीन पर उतारा जा सके। 


 दिनांक : 16/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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