Thursday, September 22, 2022

सुशासन के लिए सशक्त बने मीडिया

3 दिसम्बर 1950 को देष के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक सम्बोधन में कहा था मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने के बजाय उसकी स्वतंत्रता के अनुचित इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा। इस कथन के पीछे षायद एक बड़ा कारण यह भी है कि औपनिवेषिक काल में अंग्रेजों के प्रतिबंधों से प्रेस और मीडिया की स्थिति और ताकत दोनों का अंदाजा नेहरू को था। उक्त कथन के आलोक में यह समझना भी कहीं अधिक प्रभावषाली है कि प्रेस व मीडिया की भूमिका न केवल लोकतंत्र व सुषासन की मजबूती के लिए बल्कि देष के हर पक्ष को सषक्तिकरण के मार्ग पर ले जा सकता है। गौरतलब है कि इसकी प्रमुखता को सैकड़ों वर्शों से इंगित किया जाता रहा है। औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में प्रेस पर जो लगाम अंग्रेजी सरकारों ने लगाया उससे स्पश्ट है कि सरकारें प्रेस से घबराती तो हैं। स्वतंत्र भारत में इस पर राय अलग-अलग देखी जा सकती है। मगर दो टूक यह भी है कि जब यही मीडिया जनता की आवाज के बजाय सरकारों के सुर में सुर मिलाने लगे तो इसके मायने भी उलटे हो सकते हैं। पत्रकारिता समाज का ऐसा दर्पण है जिसमें समस्त घटनाओं की सत्य जानकारी की अपेक्षा रहती है मगर जब इसी आइने में सूरत समुचित न बन पाये तो लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ खतरे में होता है। भारतीय संविधान में मूल अधिकार के अंतर्गत अनुच्छेद 19(1)(क) में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ही प्रेस की स्वतंत्रता समझी जाती है। हाल के कुछ वर्शों में यह देखने को मिला है कि रिपोर्ट विदआउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाषित विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग निरंतर कम होती जा रही है। हालांकि भारत सरकार विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए उसे मानने से इंकार करती रही है। इस संदर्भ में सरकार की ओर से संसद में लिखित जवाब भी दिया जा चुका है जिसमें यह कहा गया है कि इसका प्रकाषन एक विदेषी गैर सरकारी संगठन द्वारा किया जाता है और इसके निश्कर्शो से सरकार कई कारणों से सहमत नहीं है। हालांकि यह सरकार की ओर से अपनी दलील है मगर यह समझना कहीं अधिक उपयोगी है कि मीडिया एक उत्तरदायी व जवाबदेही से जुड़ा स्तम्भ है जिसके बेहतरी से देष में सुषासन की बयार बहायी जा सकती है।
पड़ताल बताती है कि साल 2022 में 180 देषों की सूची में भारत को विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में  150वां स्थान मिला जबकि यह 2021 में 142वां था और 2016 में यही रैंकिंग 133 पर थी। जाहिर है इस रैंकिंग के आधार पर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर यह सबसे खराब प्रदर्षन कहा जायेगा। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि नेपाल रैंकिंग के मामले में 30 पायदान की छलांग लगाते हुए 76वें स्थान पर है लेकिन अन्य पड़ोसी देषों में हालत इस मामले में भारत से भी गई गुजरी है। चीन विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 के मुकाबले 175वें स्थान पर है। विदित हो कि चीन का मीडिया की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। वहां का ग्लोबल टाइम्स सरकार का भोंपू है और जो उसे बताना है वही दुनिया के लिए खबर है। चीन की विष्वसनीयता को लेकर दुनिया अनभिज्ञ नहीं है। प्रेस के मामले में चीन यदि 180वें स्थान पर भी होता तब भी अचरज न होता। फिलहाल इसी क्रम में बांगलादेष 162वें और पाकिस्तान 157 नम्बर पर है। हालांकि श्रीलंका भारत से थोड़ा बेहतर हुए है 146वें पायदान पर है। मीडिया का अपनी सम्पूर्ण भूमिका में रहना इसलिए भी आवष्यक है क्योंकि उसके सरोकार में जनता होती है। हम सरकारों से अपेक्षा करते हैं कि अधिक लोक कल्याणकारी, मजबूत नियोजनकर्त्ता, जनता के प्रति संवेदनषील तथा जवाबदेही व पारदर्षिता के पैमाने पर खरी उतरे ताकि जन जीवन को जरूरी चीजें मिले और सुषासन के साथ सुजीवन का विकास हो। मगर सरकार के कार्यक्रमों की जानकारी जनता तक पहुंचाने में मीडिया एक सषक्त माध्यम है और इससे भी अपेक्षा रहती है कि सटीक, समुचित, स्पश्ट और बिना लाग-लपेट इसका प्रदर्षन जनहित में हुआ।
यह अतार्किक नहीं कि मौजूदा समय में मीडिया पर चौतरफा सवाल उठे हैं जिससे क्या यह संकेत समझना सही रहेगा कि मीडिया की जिम्मेदारी अब सरकार को जवाबदेह ठहराना नहीं रह गया है। वैसे मीडिया स्वतंत्र समाज को जोड़े रखने की कूबत रखती है। महात्मा गांधी कहते थे कि यही वह खुली खिड़की है जो दुनिया की खुली हवा को खुलकर घर में आने देती है। देखा जाये तो वैष्विक हालात में परिवर्तन हो रहे हैं देष प्रथम की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं। भारत प्रथम को प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ने की कवायद हर लिहाज़ से उचित है मगर यह तभी संभव है जब जनता के बजाय नीतियों के बखान में ताकत झोंक रही मीडिया अपनी भूमिका में आती गिरावट के प्रति चौकन्नी होगी। 1975 से 1977 के आपातकाल के दौर में प्रेस पर लगे पूर्ण सेंसरषिप और षत्रुतापूर्ण वातावरण के प्रभाव से उबरने के लिए भारत की मीडिया ने हमेषा ही खुद की पीठ थपथपाई है। अब दौर बदल रहा है डिजिटल टेक्नोलॉजी पारम्परिक मीडिया को चुनौती दे रहा है ऐसे में सरकारी विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता मीडिया को बदलने के लिए मजबूर कर रहा है। यह कहना सही होगा कि मीडिया वॉच डॉग की भूमिका में सरकार से सवाल करने के मामले में कदम पीछे तो खींचा है। हमें इस बात से आष्चर्य नहीं होना चाहिए कि पत्रकार और पत्रकारिता के प्रतिमान में बदलाव आया है बल्कि हमें इस परिमार्जन को समझने की आवष्यकता है कि क्या इस बदलाव से वैष्विक फलक पर देष की मजबूती और आन्तरिक दृश्टि से जनता में बड़ा अंतर तुलनात्मक है।
डिजिटल क्रान्ति की तकनीकों ने मीडिया के क्षेत्र को पूरी तरह बदल दिया। कभी अखबार फिर टेलीविजन और रेडियो के बाद सोषल मीडिया और न्यू मीडिया की अवधारणा भी इस समय देखी जा सकती है। विज्ञापन के प्रभाव से यह क्षेत्र भी अछूता नहीं है। कभी-कभी तो अखबारों में विज्ञापन अधिक और खबरे कम रहती हैं और अब तो खबरें भी प्रायोजित देखी जा रही हैं जिसकी सत्यता को लेकर संदेह बरकरार रहता है। गरीबों तक कैमरा कितना पहुंच रहा है यह पड़ताल का विशय है मगर बेहाल जिन्दगी के बीच खबरें यह बता रही हैं कि सब ठीक-ठाक है। टीवी डिबेट तो मानो आम जनसरोकारों से कट ही गयी हो। फायदे की सियासत के बीच मीडिया घराने भी लाभ को यदि तवज्जो देने लगेंगे तो लोकतंत्र और आम जनता का क्या होगा। जिस सुषासन की कसौटी पर देष को सरकारें कसना चाहती हैं उसमें लोक सषक्तिकरण ही केन्द्र में है। यदि लोकतंत्र को समुचित और सषक्त कर लिया जाये जो बिना मीडिया की सषक्त भूमिका के सम्भव नहीं है तो सुषासन की दिषा में सरकारों का पूरा नजरिया मोड़ा जा सकता है और इसका लाभ दसों दिषाओं में सम्भव है। मीडिया ताकत के साथ-साथ ऊर्जा भी है जिसमें सरकार और जनता दोनों की भलाई निहित है पर यह तो इसे लेकर कौन, कितना चैतन्य और सचेत है लाभ उसी के अनुपात में सम्भव है।

दिनांक : 22/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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