हालिया स्थिति यह है कि 18 मार्च 2017 से चल रही भाजपा की सरकार में एक बड़ा फेरबदल हुआ और आनन-फानन में मुखिया बदल दिया गया। कहा जाये तो उत्तराखण्ड में एक ही कार्यकाल के भीतर षासन की दूसरी लहर आयी है और वह भी तब जब यहां 70 के मुकाबले 57 का आंकड़ा भाजपा के पक्ष में रहा है। इतनी बड़ी जीत और 5 साल की स्थायी सरकार वाला व्यक्तित्व न दे पाना विकास के साथ थोड़ा अविष्वास तो गहराता है। जबकि सबका साथ और सबका विकास और सबका विष्वास मौजूदा सरकार का ष्लोगन है। हालांकि यह एक राजनीतिक प्रकरण करार दिया जा सकता है मगर यह एक सियासी पैंतरा है इससे गुरेज भी नहीं किया जा सकता और 2022 के चुनाव को नजर में रखकर यह सब किया गया है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है इस नये परिवर्तन से लोक प्रबंधन और सुषासन के भी नये दृश्टिकोण फलक पर आयेंगे और जनता में भी यह उम्मीद परवान चढ़ेगी कि उनके हिस्से का बकाया विकास अब नया नेतृत्व दे देगा। उत्तराखण्ड की सरकारें दूरगामी नीति के अंतर्गत जरूरतमंदों के बुनियादी समस्या के निदान के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाती रहीं मगर सड़क, बिजली, पानी, षिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार समेत अनेकों समस्याओं से पीछा नहीं छूटा। यहां कई ऐसे विभाग भी हैं जो षिकायतों के लिए जाने जाते हैं उनसे निपटना नये मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। हालांकि चुनौती और कई रूप लिये हुए है ऐसे में कई पसीने से तर-बतर होना लाज़मी है। वैसे जब नेतृत्व बदलता है तो दृश्टिकोण बदल जाते हैं ऐसे में कार्य अच्छे भी हो सकते हैं और पहले से जारी क्रियाकलाप प्रभावित भी हो सकते हैं। कुंभ मेला, चारधाम यात्रा, भ्रश्टाचार पर लगाम, आपदा से निपटना और जनता में पैठ जैसे कार्यक्रम एक बार फिर नये सिरे से गतिषीलता को प्राप्त करेंगे ऐसी उम्मीद लाज़मी है।
फिलहाल इन दिनों देष के 4 राज्य पष्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु व केरल समेत केन्द्रषासित पुदुचेरी चुनावी समर में है मगर इसी बीच हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड में भी कुर्सी के उथल-पुथल ने सियासी माहौल गरमा दिया है। उत्तराखण्ड में जो राजनीतिक घटना घटी उसका कयास तो कई बार पहले भी लगाया गया था पर ऐसा एकाएक होगा इसका अंदाजा किसी को नहीं था। वो भी तब जब ग्रीश्मकालीन राजधानी गैरसैंण में बजट सत्र जारी था और बजट पेषगी के समय ही मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने गढ़वाल और कुमायूँ दो-दो जिलों को मिलाकर गैरसैंण को मण्डल घोशित कर दिया। इस कदम का सियासी हलके में तो चर्चा बढ़ी ही जनमानस में भी विरोध के सुर उफान मारने लगे। सत्ता के एक साल रहते कुर्सी क्यों गयी यह कोई यक्ष प्रष्न नहीं है साफ है 22 पर काबिज होना था। हालांकि इसके पीछे और बड़ी वजह क्या रही इसका सियासी फलक में अलग-अलग मायने हैं मगर दो टूक यह है कि स्थायी सरकार और विकास का गहरा नाता तो होता है। देष में कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां स्थायी सरकार के आभाव में विकास चोटिल हुआ है। यह तथ्य हमेषा सामने उभरा है कि पहले स्थिर सरकार फिर सुषासन। झारखण्ड, उत्तराखण्ड का हम उम्र है और वहां बीते दो चुनाव को छोड़ दें तो एक लम्बा वक्त अस्थायी सरकारों का ही रहा है। जाहिर है उसके पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है जबकि छत्तीसगढ़ में स्थायी सरकार मिलने से कमोबेष दृष्य अलग देखा जा सकता है। 20 बरस के उत्तराखण्ड में 10 मुख्यमंत्री आ चुके हैं जाहिर है यहां भी विकास चुनौती के साथ दूर की कौड़ी बनी हुई है। हालांकि सभी ने अपने-अपने हिस्से का प्रयास किया है मगर जब बात सुषासन की हो तो प्रयास भी अनुपात में बड़ा करना होता है और यह अस्थिरता से नहीं बल्कि स्थिर नीति और मजबूत सोच से ही सम्भव है। गौरतलब है कि सुषासन एक लोक सषक्तिकरण की अवधारणा है जहां जनता की मजबूती के लिए सबल नेतृत्व की आवष्यकता होती है।
गौरतलब है कि उत्तराखण्ड में केन्द्रीय योजनाओं की भरमार है आॅल वेदर रोड़ इसमें कहीं अधिक भारी-भरकम और विस्तार वाला है। राज्य की योजनाएं भी कमोबेष धरातल पर हैं मगर बीच में सरकार का हेरफेर इन सभी के साथ एक नवाचार की दक्षता के साथ नूतन कार्यषैली की राह भी लेगा। इन मामलों में सरकार कितना प्रभावषाली है इस पर भी दृश्टि रखना स्वाभाविक है। सरकार बदलने के क्या साइड इफेक्ट होते हैं इसे समझें तो पता चलता है कि नये नेतृत्व पर पुराने की तुलना में दबाव अधिक रहता है। जनता का दिल जीतने और सुषासन की बयार को उम्दा करने का जोखिम रहता है। कम समय में बहुत कुछ हासिल करने का जोड़-तोड़ भी षामिल रहता है। हालांकि सियासत में किन्तु-परन्तु, अच्छा-खराब और दबाव व जोखिम का सिलसिला अक्सर रहता है। जाहिर है प्रदेष में अब तक चल रही योजनाओं की गति बढ़ाने के अलावा नई योजनाओं के चयन को लेकर नये मुखिया के नेतृत्व पर केन्द्र की भी नजर बाकायदा रहेगी। खास यह भी है कि नये नेतृत्व को प्रदेष में प्रसार ले चुकी गतिविधियों को समझने में वक्त लगता है। मंत्रिपरिशद् के सदस्यों के साथ एक बेहतर समन्वय और विधायकों के साथ सामंजस्य की दरकार रहती है। इतना ही नहीं नौकरषाही के साथ तालमेल बिठाने को लेकर भी समय खपत करना पड़ता है। विपक्ष को भी साधने की नये सिरे से आवष्यकता रहेगी। व्यक्ति का व्यक्तित्व और उसमें व्याप्त नेतृत्व कार्यसंचालन को एक सषक्त आयाम देता है। बदले निजाम में ऐसी कोई खामी नहीं है कि उन्हें कमतर आंका जाये मगर सुषासन की कसौटी पर जब सरकारें कसी जाती हैं तब केवल परिणाम ही काम का होता है। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व और पर्यवेक्षक बड़े भरोसे से प्रदेष की बागडोर त्रिवेन्द्र सिंह रावत से लेकर तीरथ सिंह रावत को अर्थात् एक टीएसआर से दूसरे टीएसआर को सौंपी है। इसके पीछे राजनीतिक इच्छा षक्ति भी है जो इस उम्मीद से युक्त है 2022 की षुरूआत में होने वाले उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में बाजी उनके पक्ष में रहेगी। हालांकि सियासत समय के साथ अलग पैंतरा लेती रहती है। आगे क्या होगा कयास लगाना कठिन है मगर यह उम्मीद करना अतार्किक न होगा कि उत्तराखण्ड की जनता जो कई समस्याओं में है उसे यह दूसरी लहर किनारे लगा देगी।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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