Monday, June 11, 2018

कैशलेस इकोनोमी की कवायद पानी मे!

जब साल 2016 के 8 नवम्बर को रात को ठीक 8 बजे प्रधानमंत्री मोदी ने यह आदेष दिया कि पांच सौ और हजार रूपये के नोट अब लीगल टेंडर नहीं रहेंगे और वे ऐसा क्यों कर रहे हैं जब इस वजह का खुलासा हुआ तो उसमें काले धन को षीर्श पर रखा गया था। गौरतलब है कि उन दिनों कुल परिचालित धन का 86 फीसदी हजार और पांच सौ के नोट थे। सरकार को भरोसा था कि इससे काला धन समाप्त होगा और अर्थव्यवस्था तुलनात्मक सषक्त होगी। उस दौरान इस निर्णय को बहुत जोखिमपूर्ण समझा गया जिसे लेकर सरकार ने खुद अपनी पीठ भी थपथपाई थी। दिक्कतों का सिलसिला भी महीनों चला दूसरे षब्दों में कहें तो कमोबेष नोटबंदी की मुष्किलें अभी भी रूकी नहीं है। काले धन की खोज में की गयी नोटबंदी और बाद मे कैषलेष में हुई इसकी तब्दीली कितनी सफल रही यह पड़ताल का विशय है। लम्बे वक्त बीतने के बाद अब इसके साइड इफैक्ट भी दिख रहे हैं। खाते में जमा अपने ही रूपयों के लिये लोग बैंक और एटीएम का चक्कर लगाते-लगाते थक गये। कैषलेस का ढिंढोरा पीटने वाली मोदी सरकार इस मामले में भी लोगों को निराष ही किया। देष में कैष इन हैण्ड रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच चुका है और मोदी सरकार षायद इससे बेखबर है। देष में इस समय जनता के हाथ में मुद्रा का स्तर साढ़े अट्ठारह लाख करोड़ रूपये से ऊपर पहुंच गया है। जो अब तक का अधिकतम स्तर है। हैरत यह है कि काले धन पर चोट करने और इण्डिया को कैषलेस इकोनोमी में परिवर्तित करने की फिराक में देष की अर्थव्यवस्था मानो राह से ही भटक गयी। 
जब से नोटबंदी हुई है षिकायते भी बढ़ी हैं। पहले षिकायत थी कैष की कमी है अब षिकायत है कि कैष ही कैष है। पहले उम्मीद थी कि काला धन आयेगा और लेन-देन इंटरनेट के माध्यम से होगा। अब यह दोनों फलक से गायब हैं। नोटबंदी के बाद जनता के हाथ में मुद्रा सिमट कर करीब पौने आठ लाख करोड़ रूपये रह गयी थी। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े अब यह सवा उन्नीस लाख करोड़ रूपये से अधिक बता रहे  है। जबकि नोटबंदी के समय सारे नोट मिलाकर 17 लाख करोड़ रूपये के मूल्य के थे। चलन में मौजूदा कुल मुद्रा में से बैंकों के पास जो नकदी पड़ी है यदि उसको घटा देते हैं तो ज्ञात होता है कि लोगों के हाथ में कैष ही कैष है। गौरतलब है कि नकदी संकट के चलते लोगों का बैंकों से विष्वास उठा है। यही कारण है कि लोग बैंकों के माध्यम से आदान-प्रदान करने से कतरा रहे हैं जबकि एटीएम की हालत यह है कि वे नोट उगलने से ही मना कर रहे हैं। इन सभी समस्याओं को देखते हुए जनता नकदी बैंकों में रखने के बजाय अपने पास रख रही है जिसका नतीजा यह है कि नागरिकों का पैसा रखने वाले बैंक आज दरिद्रगी से जूझ रहे हैं। आंकड़े यह बताते हैं कि दो हजार रूपये के नोट सात लाख करोड़ रूपये के मूल्य के चलन में है जबकि पांच सौ के नोट पांच लाख करोड़ की कीमत के हैं। बड़ी चिंता यह भी है कि दो हजार के नोट बैंकों से तेजी से गायब हो रहे हैं। बैंको की करेंसी चेस्ट में भी दो हजार रूपये के नोट की संख्या 14 फीसदी से अधिक नहीं है। सवाल है कि यह नोट कहां है और क्या ये डम्प हो रहे हैं?
ताजा आंकड़ा यह बताता है कि मई, 2018 तक लोगों के पास साढ़े अट्ठारह लाख करोड़ रूपये से अधिक की मुद्रा थी जो पिछले वर्श की तुलना में 31 फीसदी अधिक है जबकि 8 नवम्बर 2016 की तुलना में देखें तो यह दोगुना से भी अधिक है। जब से ये स्थिति देखने को मिली है आर्थिक तनाव से सरकार, समाज और बैंक तीनों जूझ रहे हैं। बैंको की हालत बहुत पतली है जिन बैंकों का औसत बैलेंस नोटबंदी के पहले 300 करोड़ रूपये था अब वह करीब सौ करोड़ रूपये ही है। इतना ही नहीं बैंकों में जमा नकदी रोजाना 14 करोड़ से घटकर 4 करोड़ के नीचे चली गयी है और 2 हजार के नोट 50 लाख तक ही जमा हो रहे हैं। सरकार की आर्थिक नीतियां तो यही इषारा कर रही हैं कि उन्होंने नोटबंदी करके काले धन और कैषलेस को लेकर बीन बजाया लेकिन यह केवल एक तमाषबीन का काम हुआ। अब कुछ बातें इस तरह से भी देखी जा सकती है कि सरकारी क्षेत्रों के बैंक करोड़ों का घाटा क्यों झेल रहे हैं। इस बात को कोई भी समझना नहीं चाहता कि नोटबंदी ने लोगों के रोजगार पर भी प्रहार हुआ था साथ ही तत्कालीन व्यवस्था को महीनों तक हाषिये पर फेंक दिया था। यह मार केवल जमा खोरों पर नहीं सामान्य जनता के साथ-साथ बैंकों पर भी पड़ी है। आंकड़े बताते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का सामूहिक षुद्ध घाटा साल 2017-18 में बढ़ कर 87 हजार करोड़ रूपये से अधिक हो गया। हालांकि इस घाटे में घोटाले की मार अधिक है। जिसमें पहले नम्बर पर पंजाब नेषनल बैंक आता है, दूसरे पर आईडीबीआई बैंक है। घोटाले का दंष झेल रहे बैंक इसे पाटने के लिये जनता की जेब पर डाका डाल रहे हैं और अनाप-षनाप तरीके अपना कर खाताधारकों को चूना लगा रहे हैं। सरकार की आर्थिक नीति नोटबंदी और जीएसटी की जुगलबंदी से भले ही कोश में पैसा आ रहा हो पर नागरिकों के जीवन में आर्थिक बेचैनी अभी कहीं से कम नहीं हुई है। इसी बेचैनी और आर्थिक कमी ने लोन धारकों को भी पेषोपेष में डाला है जिसके चलते बैंक के कर्ज चुका नहीं पा रहे हैं और मामला एनपीए हो रहा है और बैंक बिलबिला रहे हैं। 
मोदी सरकार कैषलेस का दांव खेला पर आंकड़े इसे सफल करार नहीं दे रहे हैं। काले धन के मामले में भी सरकार की चुप्पी बहुत कुछ इषारे कर रही है। लगातार चुनाव जीतने को ही अपनी सफल नीति मान चुकी सरकार कुछ हद तक पथ से भटकी हुई भी लगती है। अर्थषास्त्री भी मोदी की अर्थनीति को जल्दबाजी में लिया गया निर्णय करार दे चुके हैं। हालांकि सरकार इन सभी को नकारती रही है और सैकड़ों योजनायें सफल हुई हैं, करोड़ों युवाओं को रोजगार मिला है साथ ही करोड़ों किसानों को मुफलिसी से बाहर निकाला है का दावा पानी पी-पीकर ये करती रही है। आंकड़े जिस तरह सामने हैं उससे तो साफ है कि मोदी सरकार की कैषलेस इकोनोमी को झटका लगा है और काले धन के मामले में भी यह बुरी तरह असफल रहे हैं। जिस तर्ज पर सरकार ने हुंकार भरी थी और जनता को अपने पक्ष में किया था अब उन सारी बातों की कलई खुल रही है। जाहिर है कि यह कहीं से ठीक नहीं है हालांकि इसे ठीक करने का दायित्व सरकार का है और कसरत भी उन्हें ही करनी होगी। चिंता का विशय तो यह है कि इतने व्यापक पैमाने पर कैष का प्रचलन में होना जमाखोरी को फिर मौका देगा और अर्थव्यवस्था को भी बेपटरी कर सकता है। सरकार को चाहिये कि दो हजार के बड़े नोट से तौबा करे और कैषलेस के लिये उतना ही कदम उठाये जितना व्यावहारिक है। पूरे के चक्कर में कैषलेस धेले भर भी सफल नहीं हो पाया जबकि समस्या दिन-प्रतिदिन की दर से बढ़ रही है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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