Monday, June 11, 2018

चीन मे भारत की पहल और पारदर्शिता

भारत और चीन के रिष्ते दुनिया की नजरों में प्रेरणा से कहीं अधिक युक्त प्रदर्षित हों न कि खटकने वाले इसका संकेत अब दोनों देषों को देते हुए देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी भारत-चीन रिष्ते को इसी दिषा में ले जाने की बात कह रहे हैं और चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग भी कुछ ऐसा ही राग अलाप रहे हैं। सम्भव है कि इसके कई सामाजिक-आर्थिक लाभ आगामी दिनों में देखने को मिल सकते हैं। साथ ही पड़ोसी चीन से कूटनीतिक और परिस्थितिजन्य मामलों में भी भारत की यह पहल और पारदर्षिता संतुलन बिठाने के काम आयेगी। गौरतलब है कि चार साल में मोदी और जिनपिंग के बीच 14 बार अलग-अलग मंचों पर मुलाकात और बैठकें हुई हैं। ताजा परिप्रेक्ष्य देखें तो मोदी 42 दिन के भीतर दूसरी बार बीते 9 जून को चीन पहुंचे जबकि इसके पहले 27 व 28 अप्रैल को अनौपचारिक वार्ता के लिये चीन गये थे। चीन के किंगदाओ में सम्पन्न हुए षंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) से अलग भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राश्ट्रपति के बीच द्विपक्षीय वार्ता हुई जिसे महत्वपूर्ण कोषिष करार दी जा सकती है। अप्रैल यात्रा के दौरान इस बात की षुरूआत हुई थी कि चीन राजनीतिक भरोसे को निरंतर बढ़ाना और पारस्परिक लाभ के क्षेत्र में काम करना चाहता है। ऐसा करने से दोनों देषों को स्थिरता के साथ आगे बढ़ाया जा सकेगा। यह बात जिनपिंग ने स्वयं कही थी परन्तु भारत को इन सबके साथ उन लाभों की भी चिंता करनी होगी जिसके व्यवधान में केवल चीन है जैसे डोकलाम जैसे विवाद का उत्पन्न होना, अरूणाचल प्रदेष के मामले में उसकी भंवे का तने रहना साथ ही संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों के पक्ष में वीटो करना। इतना ही नहीं हिन्द महासागर के देषों और नेपाल और भूटान को अपने हित में साधने की वह कवायद जो भारत के लिए बेहतर नहीं है। 
भारत पहली बार एससीओ की बैठक में बातौर सदस्य देष भागीदारी कर रहा है। गौरतलब है कि जून, 2017 में रूस की सहायता से भारत को एससीओ में सदस्यता मिली थी जबकि इससे पहले वह एक पर्यवेक्षक की भूमिका में था। खास यह भी है कि साल 2005 में जब भारत ने पर्यवेक्षक बनने के लिये आवेदन किया तब उसे नकार दिया गया था। फिलहाल अफगानिस्तान, बेला रूस, ईरान समेत मंगोलिया इस संगठन के वर्तमान में पर्यवेक्षक देष हैं। उक्त तथ्य से यह भी उजागर होता है कि भारत और रूस के सम्बंधों की सारगर्भिता कहां कितनी उपजाऊ है और कितनी लाभकारी भी। बीते चार वर्शों में मोदी रूस की भी चार यात्रा कर चुके हैं जिसमें हाल ही के 21 मई की एक अनौपचारिक यात्रा भी देखी जा सकती है। इसमें कहीं दुविधा नहीं है कि रूस भारत का नैसर्गिक मित्र है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि पड़ोसी होने के बावजूद चीन कभी भारत का अच्छा मित्र नहीं रहा परन्तु कई मामलों में चीन की सकारात्मकता और भारत की पारदर्षिता का प्रभाव कुछ हद तक दिख रहा है। चीन जानता है कि भारत की उपादेयता आर्थिक और सामरिक दृश्टि से कहीं अधिक गति वाली है और वैष्विक फलक पर उसकी कूटनीति भी तुलनात्मक अधिक साख से सराबोर है साथ ही दुनिया की नजरों में वह एक उदारवादी व सरल और सभ्य देष है। आपस में आर-पार और व्यापार करना है तो बार-बार तनाव का जोखिम लेने के बजाय सम्मान को एहमियत देना होगा। चीन जानता है कि भारत की सम्प्रभुता और अखण्डता को ठेस पहुंचाने की कोषिष की तो कभी भी सम्बंध समतल नहीं हो सकेंगे। इसकी बानगी 1962 में उसके द्वारा भारत पर किया गया आक्रमण और 1954 के पंचषील समझौते के विरूद्ध जाने को देखा जा सकता है। यह एक ऐसी घटना है जिसके चलते तमाम सम्बंधों के बावजूद हिन्दी-चीनी भाई-भाई का परिप्रेक्ष्य तब से कभी नहीं विकसित हो पाया। इतना ही नहीं समय कितना भी बदल गया हो भारत ने चीन पर संदेह करना बंद नहीं किया। 
प्रधानमंत्री मोदी ने एससीओ के मंच से न केवल सम्प्रभुता और अखण्डता के सम्मान की बात कही है बल्कि सिक्योर की वह परिभाशा गढ़ दी जिसे लेकर चीन भी हतप्रभ होगा। उन्होंने जो खुलासा किया उसमें एस का आषय सिक्योरिटी (सुरक्षा), ई का मतलब इकनोमिक डवलप्मेंट (आर्थिक विकास), सी को कनेक्टीविटी (सम्पर्क), यू को यूनिटी अर्थात् एकता जबकि आर का तात्पर्य रेस्पेक्ट फाॅर सवरेंटी इंटीगरिटी (सम्प्रभुता और अखण्डता का सम्मान) और अन्ततः अन्तिम ई को एन्वायरमेंटल प्रोटेक्षन अर्थात् पर्यावरण सुरक्षा का निहित संदर्भ प्रदर्षित कर उन्होंने एससीओ के मंच से लोकस-फोकस सिद्धांत को जीवित कर दिया है। इस सिद्धांत का निहित परिप्रेक्ष्य है कि देखो वहीं, जहां उद्देष्य है। भले ही चीन मोदी के इस मंत्र को आज समझा हो पर उपरोक्त बिन्दुओं से अनभिज्ञ है ऐसा समझना उचित नहीं है। यही कारण है कि तमाम समस्याओं के बावजूद दोनों देषों के बीच कारोबार और द्विपक्षीय सम्बंध रूके नहीं। फिलहाल बदले हालात और बदले भाव यह संकेत कर रहे हैं कि दोनों कमोबेष एक-दूसरे की आवष्यकता महसूस कर रहे हैं। तो क्या यह मान लिया जाय कि भारत और चीन की दोस्ती आगे चलकर दुनिया के लिये प्रेरणा होगी जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं? देखा जाय तो भारत के सम्बंध पाकिस्तान को छोड़कर दुनिया के सभी देषों के साथ फलक पर है। इससे भी सटीक बात यह है कि वाणिज्य और व्यापार से लेकर सामाजिक और समरसता के सभी सिद्धांतों में भारत सभी के लिये मानो अब जरूरी देष हो गया हो। जाहिर है द्विपक्षीय रिष्तों का अपना खाका होता है और उसमें उतरना भी पड़ता है। जब मोदी ने चीन के बुहान में यात्रा की तब भविश्य के रिष्तों का संदर्भ और उजागर हुआ मगर पूरा सच आने वाले दिनों में ही पता चल पायेगा। चीन बरसात के मौसम में ब्रह्यपुत्र नदी का हाइड्रोलोजिकल डाटा साझा करने में सहमत हो गया है। इसके तहत चीन हर साल 15 मई से 15 अक्टूबर के बीच बाढ़ के मौसम में ब्रह्यमपुत्र का हाइड्रोलाॅजिकल डाटा उपलब्ध करायेगा। ध्यान्तव्य हो कि इसके चलते चीन से आने वाला पानी असम की घाटी को कितना प्रभावित करेगा इसका पता पहले ही चल जायेगा। हालांकि यह डाटा चीन पहले भी उपलब्ध कराता रहा है। मगर पिछले साल जून में षुरू और लगभग अगस्त तक 73 दिनों तक चले डोकलाम विवाद के चलते चीन ने हाइड्रोलाॅजिकल डाटा साझा नहीं किया जिसका नतीजा यह हुआ असम घाटी में आयी बाढ़ के चलते जान-माल का काफी नुकसान हुआ था। 
एससीओ क्या है और इसकी क्या प्रासंगिकता है साथ ही भारत के लिये यह कितना लाभकारी है इसकी पड़ताल भी जरूरी है। यह संगठन 2001 में बना था जिसका उद्देष्य सीमा विवादों का हल, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ाना और मध्य एषिया में अमेरिका के बढ़ते प्रभाव को रोकना था। इसके सदस्य देषों ने चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और रूस, तजाकिस्तान, उजबेकिस्तान समेत भारत और पाकिस्तान है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि सुरक्षा सहयोग के अलावा सदस्य देषों के बीच व्यापार और निवेष भी इसके उद्देष्य में है। पहले इसे षंघाई-5 की संज्ञा दी जाती थी। जून 2001 से इसे षंघाई सहयोग संगठन कहा जाने लगा। हालांकि इसके उद्देष्य बिल्कुल स्पश्ट हैं बावजूद इसके चीन का कई देषों से सीमा विवाद और आतंक के मामले में उसका दोहरा रवैया इस संगठन के निहित उद्देष्य को कुछ हद तक कमजोर बनाता है। तत्कालीन दौरे में मोदी ने द्विपक्षीय बैठक में कई सकारात्मक बिन्दुओं को लाभोन्मुख बनाने की कोषिष की। मोदी द्वारा एकता और अखण्डता के सम्मान और आतंकवाद पर कही गयी बात आईना दिखाने का काम किया है। फिलहाल चीन के साथ गैर बासमती चावल के निर्यात पर समझौता हुआ है। इससे व्यापार घाटा पाटने में कुछ हद तक मदद मिलेगी। दोनों देषों के बीच अन्य समझौते में चीन के सीमा षुल्क प्रषासन और भारत के कृशि एवं कल्याण विभाग को देखा जा सकता है। गौरतलब है कि दुनिया का सबसे बड़ा चावल का बाजार चीन भारत से बासमती के अलावा दूसरे किस्म का चावल भी खरीदेगा। साल 2006 में बनी व्यवस्था में भी संषोधन किया है। जिनपिंग ने मोदी को सुझाव दिया कि द्विपक्षीय व्यापार को 2020 तक 100 अरब डाॅलर तक पहुंचाना चाहिए। पिछले साल दोनों देषों का व्यापार लगभग 85 अरब डाॅलर था लेकिन इस मामले में चीन कहीं अधिक मुनाफे में है। आज से दो-तीन बरस पहले जब 70 अरब डाॅलर का व्यापार दोनों देषों के बीच था तब चीन 61 अरब जबकि भारत 9 अरब तक ही सीमित रहता था। यहां मेक इन इण्डिया को न केवल दुरूस्त करना होगा बल्कि मेड इन चाइना से मिल रही चुनौती से भी निपटने की जरूरत है। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा वर्तमान में 54 अरब डाॅलर के आसपास है। पिछले चार वर्शों में भारत की ओर से निर्यात 11 अरब डाॅलर से मात्र 14 अरब डाॅलर ही हुआ जबकि चीन का भारत को निर्यात का यही आंकड़ा 32 से बढ़कर 38 अरब डाॅलर हो गया। इसे देखते हुए साफ है कि कूटनीति के साथ-साथ आर्थिक नीति पर भारत को कहीं अधिक सर्तक रहना होगा। 
षंघाई सहयोग संगठन के मंच से कई और बाते भी हुई हैं खास यह रहा कि चीन की बेल्ट एण्ड रोड इनिषियेटिव का भारत ने खुलकर विरोध किया और उसी के घर में कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है यह एक बार फिर जता दिया। गौरतलब है कि इस परियोजना में पाक अधिकृत कष्मीर का क्षेत्र भी षामिल है जिसे लेकर भारत पहले भी खिन्नता प्रकट कर चुका है क्योंकि पूरा कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है। हालांकि मोदी ने सम्प्रभुता और अखण्डता का सम्मान जरूरी बताते हुए समावेषी परियोजना का समर्थन किया। आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथी समूहों पर भी यहां करारी चोट की गयी है। पाकिस्तान को आड़े हाथ लेते हुए बिना नाम लिये मोदी ने पहले की तरह आतंक को लेकर कई बाते कही। दो दिवसीय षिखर सम्मेलन के अंतिम दिन किंगदाओ में घोशणा पत्र पर 8 सदस्य देषों ने हस्ताक्षर किये। ऐसा देखा गया है कि हर देष अपने लक्ष्य हासिल करने के अपने रास्ते बनाता है भारत ने भी इस दिषा में पहल की और कुछ हद तक चीजे हासिल की। इसी दरमियान पाकिस्तान के राश्ट्रपति से भी मोदी के हाथों का स्पर्ष हुआ, संक्षिप्त बातचीत भी हुई। गौरतलब है कि दोनों पूर्णकालिक सदस्य के रूप में इसमें भागीदारी की पर इनके बीच द्विपक्षीय कुछ नहीं हुआ। समझना तो यह भी है कि प्रत्येक परिस्थितियों में चीन पाकिस्तान का दोस्त है जिसे आर्थिक, सैनिक और कूटनीतिक तथा मनोवैज्ञानिक सहयोग देता रहा है। चीन से दर्जन भर देष सीमा विवाद से जूझ रहे हैं। भूटान से लेकर नेपाल तक और जरूरी हुआ तो लंका से लेकर म्यांमार तक अपना डंका बजाना चाहता है। इन सबको देखते हुए भारत को तो सतर्क रहना ही है और रूस से गहरी दोस्ती और चीन से बेहतर प्रेम जरूरी है। दो टूक यह है कि चीन भारत को प्रतिस्पर्धी समझने के बजाय सहगामी समझे तो दोनों और लाभ में जा सकते हैं।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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