Wednesday, June 20, 2018

बेमेल ही था भाजपा-पीडीपी का मेल

जम्मू- कश्मीर की तीन साल से अधिक पुरानी भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार का बीते मंगलवार अंत हो गया। नोक-झोंक और आपसी तनातनी के साथ सरकार चलाने के बाद यह बेमेल गठबंधन लोकसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले आखिरकार टूट गया। जाहिर है सूबे में संवैधानिक संकट पैदा हो गया है क्योंकि मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए राजनीतिक समीकरण सत्ता के लिहाज़ से षून्य है। फिलहाल राज्य राज्यपाल षासन के अधीन है और दोनों दल अपने-अपने नफे-नुकसान की पड़ताल में लगे हैं। भाजपा के हाथ खींचने से महबूबा सरकार गिर गयी पर षायद ही महबूबा मुफ्ती को इसका यकीन रहा हो कि एकाएक ऐसा हो जायेगा। सियासत के अपने पैरामीटर होते हैं और अवसरवादिता भी इसमें षुमार होती है। भाजपा ने महबूबा से ऐसे समय में तौबा किया जब इसका मौका हाथ आया। हालांकि 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में पहली बार बनी गठबंधन सरकार सौदेबाजी से जकड़ी थी और महबूबा मुफ्ती से भी यह मुक्त नहीं थी। देखा जाय तो कुछ भी टिकाऊ जैसा नहीं था। बीते तीन वर्शों से घाटी में आतंकवाद बढ़ा, कट्टरता बढ़ी और कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ी। सैकड़ों की तादाद में भले ही आतंकवादी मारे गये हों पर सेना के षहीद होने के सिलसिले आज भी नहीं थमे हैं। घाटी में पत्थरबाजों का भी बड़ी तादाद में विस्तार हुआ। पर्यटकों को भी निषाना बनाया गया। कष्मीर घाटी के साथ षान्त जम्मू भी अषान्ति की चपेट में दिखने लगा। भाजपा भले ही सत्ता की बराबर की भागीदार रही हो पर महबूबा के सामने उनकी नीतियां कमजोर और बौनी सिद्ध हो रही थी। जिसके चलते बीते कई वर्शों से भाजपा की लगातार किरकिरी होती रही। जिसे देखते हुए उसे गठबंधन तोड़ने वाला कदम उठाना ही पड़ा।
फिलहाल जम्मू-कष्मीर में राज्यपाल षासन के चलते अब पूरा जिम्मा केन्द्र के पास आ गया है जबकि घटी चैतरफा समस्या से घिरी है। ऐसे में घाटी में अमन-चैन कायम होने के लिये भाजपा की पीठ थपथपायी जायेगी और स्थिति बिगड़ने के मामले में विधिवत् आलोचना भी होगी। बेमेल गठबंधन सरकार को देखते हुए समर्थन वापसी कहीं से अप्रत्याषित तो नहीं था मगर रमजान के बाद जब आॅप्रेषन आॅल आउट दोबारा षुरू करने की बात आयी तो महबूबा की ओर से जो हुआ वह आष्चर्यजनक जरूर था। गौरतलब है कि महबूबा मुफ्ती सीज़ फायर की पक्षधर थी जबकि केन्द्र सरकार आॅप्रेषन के पक्ष में थी। यह संदर्भ दर्षाता है कि भाजपा घाटी के घटनाक्रम को लेकर किस कदर दबाव में थी। हालांकि पीडीपी और भाजपा के बीच तनातनी सरकार गठन के समय से ही षुरू हो गयी थी। 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने मुख्यमंत्री बनने के 5 दिन के भीतर ही घाटी के अलगाववादी तत्वों को जेल से रिहा करने का काम किया। तभी से यह संकेत मिलने लगा कि यह सरकार उत्तर और दक्षिण ध्रुव है। न इनका घालमेल होगा, न ही मेल होगा। जब तक चलेंगे बेमेल ही रहेंगे। घाटी से अफस्पा हटाने की महबूबा की मांग से लेकर अलगाववादियों से बातचीत करने यहां तक कि पाकिस्तान से भी डायलाॅग जारी रखने जैसे मनसूबे उनमें कूट-कूटकर भरे थे। गौरतलब है कि दिसम्बर 2014 में जम्मू-कष्मीर की विधानसभा का चुनाव सम्पन्न हुआ था। नतीजे के बाद पीडीपी ने दहषतगर्दों और पाकिस्तान को धन्यवाद दिया था कि उनकी वजह से चुनाव में कोई गड़बड़ी नहीं आयी। दो टूक यह भी है कि भाजपा अपने महत्वाकांक्षी राजनीति के चलते पीडीपी से गठजोड़ किया और आज काफी हद तक उसकी कीमत चुका रही है।
जाहिर है घाटी का अमन-चैन दुष्वार हुआ है। दुष्मनों की तादाद बढ़ी है ऐसे में सरकार को अतिरिक्त मषक्कत करनी होगी। गौरतलब है कि पिछले साल जून से जारी आॅप्रेषन आॅल आउट के तहत 250 से अधिक दुर्दांत आतंकी घाटी में ढ़ेर किये जा चुके हैं मगर इनके बोझ से घाटी अभी मुक्त नहीं हुई है। पत्रकार षुजात बुखारी का दिन दहाड़े हत्या वहां की बिगड़ी कानून व्यवस्था को प्रदर्षित करती है। बरसों से सेना पर पत्थर बरसाया जा रहा है और यह क्रम अभी रूका नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्र सरकार अपनी जिम्मेदारी समझती है और हालात को देखते हुए कड़े कदम भी उठा सकती है। सुरक्षा बलों को पूरी छूट मिल सकती है स्थिति को काबू में लाने के लिये एहतियातन हर जरूरी कदम उठाना केन्द्र सरकार की फिलहाल मजबूरी भी है। महबूबा मुफ्ती ने साफ किया है कि उन्होंने सत्ता नहीं गठजोड़ के मकसद से भाजपा के साथ हाथ मिलाया था और वह इसमें कामयाब भी हुई हैं। महबूबा की दलीलों को देखें तो साफ हो जाता है कि भाजपा ने ऐसे सियासी दल के साथ जम्मू-कष्मीर में तीन साल से अधिक वर्श खर्च कर दिये जिसमें राश्ट्रवाद नहीं अलगाववाद षुमार था। गौरतलब है कि महबूबा अमन के लिये अलगाववादियों और पाकिस्तान से बात की वकालत करती रही। कष्मीर में बाहुबल और षक्ति की नीति को खारिज करती रही। अनुच्छेद 370 को लेकर उनकी अपनी आपत्ति थी। 11 हजार पत्थरबाजों से मुकदमे वापस कराने में भी वे सफल रही। ऐसा वह कह रही हैं। जाहिर है कि जिसकी झोली में इतना सब कुछ आयेगा वह अपने मकसद में कामयाब ही कहलायेगा। भाजपा की दलील है कि पीडीपी ने मनमानी तरीके से काम किये और काम में बाधा डाली। इतना ही नहीं जनता के मूल अधिकार भी खतरे में पड़े और विकास के मामले में तो जम्मू व लद्दाख से भेदभाव और वह घाटी तक ही केन्द्रित रही। भाजपा यह भी कह रही है कि राश्ट्रीय एकता और अखण्डता के खतरे के मद्देनजर उसने देषहित में यह फैसला लिया। हैरत इस बात की है कि भाजपा को उपरोक्त का 3 साल बाद पता चला। 
तो क्या यह माना जाय कि जिस इरादे से भाजपा पीडीपी को समर्थन दिया था उसमें वह नाकाम रही और जिस हालात में जम्मू-कष्मीर पहुंच गया उसे देखते हुए यह भी मानना स्वाभाविक है कि महबूबा सरकार भी हर मोर्चे पर विफल रही है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि नाकामी के भागीदार भाजपा भी रही है। गठबंधन तोड़ने के बाद भाजपा की अपनी दलीलें हैं और सत्ता से हाथ धो बैठी महबूबा भी अपनी भड़ास निकाल रही है। 40 महीने पुरानी सरकार के ढहने से राजनीति भी गरम हुई है। मुख्य विपक्षी नेषनल कांफ्रेंस ने साफ किया कि वे गठबंधन सरकार नहीं बनायेंगे जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि राज्य को आग में झोंक दिया। जाहिर है अब चुनाव ही मात्र एक विकल्प है। घाटी की सूरत काफी बिगड़ी अवस्था में चली गयी है। आंकड़े बताते हैं कि 141 आतंकी मारने की एवज में 63 जवान षहीद हुए हैं और पाकिस्तान ने बीते तीन सालों में हजार से अधिक बार सीज़ फायर का उल्लंघन किया है और करीब छोटी-बड़ी लगभग चार हजार घटनायें घटी हैं। जिस तादाद में समस्याएं बढ़ी हैं उसकी तुलना में सरकार के क्रियाकलाप न के बराबर प्रतीत होते हैं। महबूबा मुफ्ती भले ही लाख सफाई दें घाटी के अंदर उनके रहते हुए सेनाओं पर जिस प्रकार हमला किया गया वह हतप्रभ करने वाला है। भाजपा देर से ही सही समर्थन वापस लेकर कुछ गुनाह कम करने की कोषिष की है परन्तु उसकी अग्नि परीक्षा अब षुरू हुई है। जान-माल की सुरक्षा के साथ-साथ घाटी को आतंकियों के बोझ से मुक्त करना अब केन्द्र सरकार के जिम्मे है। जब दो दलों में मतभेद हैं तो लोक कल्याण की उपादेयता उसमें हो ही नहीं सकती। ऐसे में सरकार का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। पीडीपी की यह चाहत की केन्द्र सरकार हुर्रियत समेत सभी अलगाववादियों से बातचीत करे यह कहीं से दुरूस्त बात नहीं है और भाजपा का गठबंधन तोड़ने वाला कदम हर प्रकार से जायज प्रतीत होता है। दो टूक कहें तो दोनों को एक-दूसरे से मानो मुक्ति मिल गयी हो।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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