सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विचारक अब्राहम मोस्लो ने 1943 में व्यक्तियों के जीवन में आवष्यकता के सोपान क्रम विकसित किये थे जिसमें पहले स्तर पर रोटी, कपड़ा और मकान तत्पष्चात् सुरक्षा की आवष्यकता बतायी थी। हालांकि इसके आगे भी तीन और आवष्यकताओं का क्रम बताया था। इस सिद्धांत के आलोक में चीजे अभी भी उसी अवस्था में हैं कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार की सुरक्षा चाहता है साथ ही इस बात का विष्वास भी जताना चाहता है कि ऐसा करने में सरकार और व्यवस्था अव्वल हैं। वैसे एक दृश्टि से देखा जाय तो सुरक्षा किसी भी षासन, प्रषासन की न केवल क्षमता और दक्षता का आंकलन प्रदर्षित करती है बल्कि जनतंत्र में जनता के प्रति सरकार की निश्ठा की झलक भी इसमें मिलती है। देष कई प्रकार की समस्याओं से जूझ रहा है और उतनी ही प्रकार की सुरक्षा की चिंता भी सता रही है। आतंकवाद, नक्सलवाद और अलगाववाद पर कह सकते हैं कि लगाम पहले से अधिक कसी गयी है पर कष्मीर में जिस कदर अषान्ति फैली है उससे स्पश्ट है कि कसक अभी बाकी है। मोदी सरकार का पिछला 4 साल इस लिहाज़ से संतोशजनक कहा जा सकता है कि आतंकवादियों को मुंह तोड़ जवाब देने की कोषिष की मगर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी भी है। सरकार का इरादा ठीक हो सकता है कष्मीर में षान्ति बहाली को लेकर मोदी सरकार की कोषिष भी अच्छी कही जा सकती है परन्तु जिस कीमत पर सेना को उपद्रवियों से निपटना पड़ रहा है उससे तो यही लगता है कि आन्तरिक सुरक्षा के साथ जन सुरक्षा बड़ी व्याधि से ग्रस्त है।
देष में आतंकियों के सफाये में आॅप्रेषन आॅल आउट सहित कई कार्यक्रमों के चलते सरकार को सफलता के पद्चिन्हों पर चलते हुए देखा जा सकता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारतीय सेना को सरकार की ओर से आतंकी एवं पाक सैनिकों से निपटने के लिये तुलनात्मक अधिक छूट मिली है जिसका वह प्रयोग भी कर रहे हैं। षायद यही कारण है कि पठानकोट में हमले के बाद देष के अंदर जन सुरक्षा को लेकर चुनौती उतनी बड़ी देखने को नहीं मिली। हालांकि सीमा पर सुरक्षा कर्मियों का षहीद होना और सीमा से सटे जनता की सुरक्षा आज भी खतरे में है। चार सालों में आईएसआई और अलकायदा ने भारत में घुसपैठ करने की खूब कोषिष की लेकिन सफलता उन्हें नहीं मिली। यह बात कितनी सही है कि विगत् 4 वर्शों में मोदी सरकार ने कष्मीर को एक प्रयोगषाला के तौर पर प्रयोग किया पर परीक्षण कितना सफल रहा कहना अभी भी मुष्किल है। हालांकि यह प्रयोग अभी भी रूका नहीं है। खास यह भी है कि महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर भाजपा की सरकार भी वहां चल रही है जबकि इसे लेकर यह आरोप रहा है कि भाजपा ने सत्ता के लालच में अलगावादियों से हाथ मिलाया है। कष्मीर के पिटारे में बहुत कुछ है यहां खूबसूरत वादियां हैं तो खून की होली खेलने वाले उपद्रवी तत्व भी। गौरतलब है कि कष्मीर के भीतर हुर्रियत नेता फन फैलाये रहते हैं। अलगाववाद को सिफर से षिखर तक पहुंचाने में ये कहीं अधिक कामयाब रहते हैं। इन्हें वहां के लोकतंत्र और जन सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे अर्थों में देखें तो हुर्रियत नेताओं की भारत की जमीन पर अलगाव की खेती करना ही नीयत है जबकि यह इस प्रकार ढ़ोंग करते हुए दिखाई देते हैं कि मानो कष्मीर की सर्वाधिक चिंता इन्हें ही है।
आंतरिक सुरक्षा तथा जन सुरक्षा देष के लिये बड़ा मुद्दा है। सुरक्षा बल पर नक्सलवादी भारी पड़ रहे हैं जबकि पूर्वोत्तर में अलगाववादी गतिविधियों से निपटने के मामले में हम कुछ बेहतर स्थिति में हैं। हमारे लिये कष्मीर सबसे कमजोर कड़ी है पर सच्चाई यह भी है कि बड़ी संख्या में यहां से आतंकियों का सफाया हो चुका है। कष्मीर की हालत साल 2010 में भी बहुत खराब थी और अब भी कह सकते हैं। पिछले 4 सालों में घाटी से 270 आतंकवादियों का खात्मा किया जा चुका है पर इनकी खेती षीघ्र ही फिर नहीं लहलहाने लगेगी ऐसा कह पाना मुष्किल है। सुरक्षा को लेकर कौन जिम्मेदार है साथ ही जन सुरक्षा की कसौटी पर केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच कौन सा कानून कारगर है। सब कुछ के बाद तो यही लगता है कि सुरक्षा मसला उस कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहा है जहां से आंतरिक सुरक्षा पोशित होती है यही वजह है कि आम लोगों के अंदर एक बेहतर एहसास इसे लेकर नहीं पनप रहा है। कई राज्यों में कानून व्यवस्था आये दिन खतरे के निषान से ऊपर चली जाती है। वैसे यह राज्य का मामला है पर पूरी तरह केन्द्र से विमुख होकर राज्य आंतरिक सुरक्षा को अंजाम षायद ही दे पाये। पुलिस महकमे में लाखों पद खाली चल रहे हैं। यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंकड़े के साथ है। मुष्किल यह भी है कि वीआईपी कल्चर ने जन सुरक्षा को हाषिये पर धकेला है। सुरक्षाकर्मी वीआईपी के इर्द-गिर्द रहते हैं और पहले से जनता और पुलिस का बिगड़ा संतुलन और असंतुलित हो जाता है। देष की षीर्श अदालत ने समय-समय पर सुरक्षा और व्यवस्था को लेकर आदेष देती रही है। स्टेट सिक्योरिटी कमीषन बनाने की बात, डीजीपी का 2 साल का कार्यकाल, जांच कार्य में लगी पुलिस को कानून व्यवस्था के काम से अलग करना समेत नेषनल सिक्योरिटी कमीषन गठित करने तक की बात कही है।
देष में पुलिस बल की स्वीकृत क्षमता 20 लाख के आसपास है जिसमें साढ़े चार लाख पद रिक्त हैं। आंकड़े यह प्रदर्षित करते हैं कि 518 लोगों की निगरानी के लिये एक पुलिस है। आन्ध्र प्रदेष, बिहार, उत्तर प्रदेष, दिल्ली समेत पष्चिम बंगाल में तो स्थिति बद से बद्तर है यहां 11 सौ लोगों पर एक पुलिसकर्मी है। कोई भी आराम से अपना ध्यान अगर इन प्रांतों के कानून व्यवस्था की ओर लगाये तो उसे पता चलेगा कि यहां आये दिन स्थिति बेकाबू क्यों होती है। करीब डेढ़ लाख देष में महिला पुलिस बल हैं परन्तु महिला पुलिस स्टेषन की संख्या बेहद कम 613 मात्र है। उपरोक्त से यह परिलक्षित होता है कि आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी जिनके कन्धों पर हैं वे कितने कम हैं और षायद कमजोर भी। दुःखद यह भी है कि पिछले 12 साल से सुप्रीम कोर्ट के आदेष की धज्जियां भी यहां खूब उड़ी हैं। रिपोर्ट आलमारियों में धूल फांक रही हैं और यह चिंता अभी भी बरकरार है कि पुलिस जनता की पुलिस कैसे बने। देष की राजधानी हो या कोई अन्य हिस्सा महिलायें कहीं भी असुरक्षित पायी जा रही हैं। आंकड़े भी यह समर्थन करते हैं कि आंतरिक सुरक्षा की कमजोरी ने महिलाओं की सुरक्षा को हाषिये पर ला दिया है। जिस तकनीक के तहत अपराध बढ़ रहे हैं और जिस पैमाने पर तमाम छानबीन के बावजूद मामले दूध के दूध, पानी के पानी नहीं हो रहे हैं उसके चलते भी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठते रहे हैं। फिलहाल समाज को अपराध मुक्त और लोगों द्वारा बेखौफ जीवन जीने के लिये जो आंतरिक सुरक्षा की संकल्पना थी उस पर कमी कसर अब न रहे तो अच्छा है। राटी, कपड़ा और मकान जितनी जरूरी सुरक्षा है। ऐसा षासन जो इन सब को उपलब्ध कराये, इसके प्रति संवेदनषील रहे वही जनतांत्रिक मूल्यों का पोशक कहा जा सकेगा। देष में उदारीकरण के बाद विकास के मायने बदले हैं समावेषी विकास की अवधारणा ने कई प्रकार की परेषानियों से मुक्ति दिलायी है बावजूद इसके असुरक्षा का प्रसार भी व्यापक पैमाने पर हुआ है। दिल्ली में हर साल एक लाख बच्चे गायब होते हैं जिसमें से आधे से अधिक का यह पता ही नहीं चलता कि वे कहां हैं और किस हाल में हैं। समय के साथ बढ़ रही असुरक्षा को देखते हुए सरकार को इस मामले में कहीं अधिक पुख्ता कदम और तकनीकी रूप से दृढ़ होना पड़ेगा ताकि जनता में यह एहसास आसानी से रहे कि सरकार जन सुरक्षा की कसौटी पर खरी है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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