Wednesday, October 12, 2016

सशक्त शिक्षा और बाल विवाह

आॅक्सफोर्ड विष्वविद्यालय के समाजषास्त्र की प्रमुख रिद्धि कष्यप के एक षोध से यह खुलासा हुआ है कि आने वाले समय में भारत में लड़कियों का विवाह इसलिए मुष्किल होगा क्योंकि उनके समकक्ष वर ढूंढना एक समस्या होगी। उक्त षोध षिक्षा के मामले में सषक्त हो रहीं महिलाओं का चित्रण करता है पर एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि दुनिया भर में प्रत्येक 7 सेकेन्ड में एक नाबालिक लड़की का विवाह भी सम्पन्न हो जाता है। इससे जुड़े आंकड़े यदि वैष्विक स्तर पर देखे जाय तो यह किसी त्रासदी से कम नहीं है। एक अरब दस करोड़ लड़कियां कम उम्र में ब्याही जाती हैं जबकि मौजूदा विष्व की जनसंख्या 7 से 8 अरब के बीच है। षादी के बाद अधिकांष नाबालिग लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती। अधिकतर 18 वर्श से पहले ही मां बन जाती हैं जो हर हाल में जच्चा-बच्चा दोनों के लिए न केवल जानलेवा है बल्कि समाज के लिए भी न्यायोचित नहीं है। वास्तव में भारत में साक्षरता को लेकर बीते कई दषकों से जो प्रयास हुए वे सकारात्मक रहे फिर भी पुरूशों की तुलना में महिलाएं अभी भी करीब 18 फीसदी कम साक्षर हैं। बावजूद इसके षिक्षा जगत में जो पहुंच इन दिनों लड़कियों ने विकसित की है वह वाकई में काबिल-ए-तारीफ है और अनुमान यह है कि आने वाले 30-35 वर्शों में यही लड़कियां इतनी योग्य हो जायेंगी कि इनके योग्य साथी मिलने मुष्किल होंगे। हालांकि विवाह जैसे संस्कार षिक्षा की उन्नति के चलते बेरूखी में नहीं बदलने चाहिए पर जिस बेड़ियों से लड़कियां जकड़ी रहीं हैं उसे देखते हुए साफ है कि षिक्षा उनके उड़ान के काम तो आ रही है। रही बात लड़कों की तो उन्हें भी अपने स्तर को समय रहते उठाने पड़ेंगे। ये स्पर्धा के चलते नहीं बल्कि आने वाले वक्त की मांग के चलते ऐसा करना होगा। 
वर्श 1947 में जहां देष की महज़ 12 फीसदी साक्षरता दर थी वहीं 2011 तक 74 प्रतिषत से अधिक है परन्तु अभी तक वे मुकाम नहीं हासिल कर पाये हैं जो इन सात दषकों में सम्भव हो जाना चाहिए था। क्या यह बात कहीं से वाजिब हो सकती है कि आज भी बदहाली के कारण करोड़ों लड़कियां न तो षिक्षा प्राप्त कर पाती हैं और न ही सषक्तीकरण को लेकर उन पर कोई ध्यान दिया जाता है बल्कि अल्प आयु में विवाह करने की होड़ जरूर रहती है। 2011 की जनसंख्या आंकड़ों की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर तीन षादीषुदा महिलाओं में से एक की षादी 18 साल की उम्र से पहले हुई है। चैकाने वाली बात तो यह भी है कि 80 लाख से अधिक लड़कियों की षादी 10 साल की उम्र से पहले करा दी गयी। आंकड़े यह भी दिखा रहे हैं कि सभी षादीषुदा महिलाओं में 91 फीसदी की षादी 25 की उम्र पहुंचते-पहुंचते हो जाती है। तथ्य से तो यह भी उजागर हुआ है कि बाल विवाह का आंकड़ा हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई सभी धर्मों में कमोबेष विद्यमान है बस अन्तर प्रतिषत का है। बौद्ध धर्म में तो यह आंकड़ा 27.8 फीसदी का है जबकि मुस्लिम समुदाय में यह 30 प्रतिषत से अधिक है और हिन्दू धर्म में तो यह 32 फीसदी के आस-पास है। इसमें इसाई धर्म को लेकर कुछ हद तक सकारात्मक इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यहां आंकड़ा 12 फीसदी का है। जैन धर्म में भी 16 फीसदी से अधिक लड़कियों का विवाह 18 वर्श की उम्र से पहले हो जाता है। पड़ताल इस ओर इषारा करती है कि बाल विवाह बदहाली के चलते कहीं अधिक सम्भव होते हैं। हांलाकि इसकी प्रथा भी काफी हद तक आज भी जिम्मेदार है। गरीबी, सामाजिक असमानता के कारण मां-बाप बच्चियों का विवाह जल्दी करा देते हैं। भारत के कुछ क्षेत्र तो इसे लेकर चली आ रही परम्परा को बदलना ही नहीं चाहते जिसके चलते आंकड़ों में भारी इजाफा होता रहा है। इसके अलावा कई ऐसी वजह हैं जिसके चलते बच्चियां अल्प आयु में इस प्रथा का हिस्सा बनती चली गईं। हैरत की बात यह है कि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा बाल विवाह भारत में होता है। करीब 48 फीसदी महिलाओं वाले भारत में लगभग ढ़ाई करोड़ की षादी 18 वर्श से पहले हो जाती है। 
षिक्षा और साक्षरता को कई समस्याओं का हल माना जाता है। इसमें कोई षक नहीं कि अनवरत् व्यक्तियों को समृद्ध करती षिक्षा ने समाज के परिदृष्य को भी बदला है। इतना ही नहीं पुरूशों और महिलाओं को अलग-अलग ढंग से प्रभावित भी किया है। सोच में बदलाव, विपरीत परिस्थितियों में डटे रहने की क्षमता समेत व्यक्तित्व को कई आयामों से सुसज्जित भी किया है। बावजूद इसके कुछ ऐसे अटल सत्य हैं जो आज भी किसी चुनौती या हठ से कम नहीं है। स्कूल, काॅलेज से लेकर विष्वविद्यालय तक षैक्षणिक वातावरण में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। लड़कियों में आत्मनिर्भर होने की अवधारणा भी पहले की तुलना में मीलों आगे है पर दुर्दषा भी उसी गति से अभी भी बरकरार प्रतीत होती है जिसमें खोता बचपन आज भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। इनकी सुरक्षा को लेकर आज भी अलग इंतजाम की जरूरत पड़ती है। बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बड़ी खूबसूरत अवधारणा अभी प्रसार ले रही है पर कई बेटियों की पहुंच में अभी भी यह अभियान नहीं है। कई टीवी सीरियल के माध्यम से भी ऐसी समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया गया। एक सार्थक सोच और चिंतन यह दर्षाता है कि सभी को वह अवसर मिलना चाहिए जिसके वह हकदार हैं पर इनके हक को छीनने वाले षायद अभी आने वाली भीशण तबाही का अंदाजा नहीं लगा पाय हैं। बेषक आज भी बच्चियों की पैदाइष पर कुछ लोग नाक-भौंह सिकोड़ रहे हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे इस भेदभाव के चलते इस धरा को न केवल असंतुलित कर रहे हैं बल्कि मानवाधिकार का तेजी से उल्लंघन भी कर रहे हैं।
यह बात सही है कि महज़ योजनाओं से समस्याओं का निपटारा नहीं होता। केवल रणनीति का बाजारीकरण करके निदान की खानापूर्ति नहीं की जा सकती। स्तरीय लड़ाई को लड़ने के लिए उठे हुए स्तर पर बात करनी ही होती है। बरसों से सराकरी योजनाएं धरातल पर रेंगती रहीं और नाक के नीचे कुप्रथाएं बलवती होती चलीं गई। कम उम्र में ब्याही कई लड़कियां, घरेलू हिंसा, षारीरिक षोशण, अवसाद, खराब सेहत यहां तक की एड्स जैसी गम्भीर बिमारियों से भी जूझती हैं। सभी का आंकड़ा देना यहां सम्भव नहीं है परन्तु बाल विवाह के  ऐसे तमाम साइड इफेक्ट देखे जाते रहे हैं। अन्तर्राश्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर को मनाया जाता है जो बीत गया। इसी दिन इस वर्श विजयादषमी थी। बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए सदियों से जाना जाने वाला दषहरा और अन्तर्राश्ट्रीय बालिका दिवस की तिथि संगोगवष इस बार एक ही थी। इस मौके पर वैष्विक संस्था ‘सेव दि चिल्ड्रन‘ ने एक रिपोर्ट जारी की जिसके मुताबिक दुनिया भर में प्रति 7 सेकेंड में 15 वर्श से कम उम्र की एक लड़की की षादी हो जाती है। दुःखद यह भी है कि इस मामले में अधिकांष लड़कों की उम्र लड़कियों से दोगुनी रही है। जारी रिपोर्ट में 144 देषों की सूची में भारत 90वें स्थान पर हैं जबकि पाकिस्तान इस मामले में दो कदम कम है, वह 88 स्थान पर है। सबसे कम बाल विवाह का आंकड़ा स्वीडन का है और सभी देषों में यह अव्वल है। इतना ही नहीं पड़ोसी देष श्रीलंका, नेपाल, भूटान भी नाबालिग लड़कियों के विवाह के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में है। सवाल है कि बढ़ रही महिलाओं की षिक्षा के बीच बाल विवाह जैसे कुप्रथा से छुटकारा क्यों नहीं मिल रहा। बेषक समस्या बड़ी है पर निदान मिलेगा ऐसी आषा से पीछे भी नहीं हटा जा सकता।


सुशील कुमार सिंह


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