Monday, August 8, 2022

बढ़ते मुकदमें और बोझिल होती जेलें


17वीं षताब्दी में इंग्लैण्ड के कानूनविद् विलियम ब्लैकस्टोन ने एक विचार दिया जो बाद में पूरी दुनिया में आधुनिक न्याय व्यवस्था के लिए एक पथ प्रदर्षक बनी। उन्होंने कहा था कि एक भी मासूम को कश्ट नहीं होना चाहिए भले ही 10 अपराधी बच कर क्यों न निकल जाये। यह अवधारणा इस बात को पुख्ता करती है कि न्याय पर भरोसा तो पूरा करना चाहिए मगर निर्दोश को तनिक मात्र के लिए भी कानून संकट न बने। देष की षीर्श अदालत ने भी कई बार कहा है कि जमानत ही नियम होना चाहिए और जेल अपवाद। जाहिर है अन्याय, गिरफ्तारी और जेल का यह सिलसिला कमोबेष अनवरत चलता रहेगा मगर बढ़ते मुकदमें और बोझिल होती जेलें कब भारहीन होंगी इसका अंदाजा लगाना कठिन है। भारत की जेलों में कैदियों की संख्या इस कदर बढ़ी हुई है कि कई बार जगह न मिलने और बुनियादी सुविधा पर भी सवाल उठते हैं। गौरतलब है वे कैदी जिन पर अभी तक आरोप सिद्ध नहीं हुए उन्हें विचाराधीन की श्रेणी में रखा जाता है और अदालत में उनके मामले चल रहे होते हैं। ध्यानतव्य हो कि संसद में इसे लेकर के एक सवाल पहले उठा था जिस पर गृह मंत्रालय ने जवाब पेष किया कि राश्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जेल सम्बंधी आंकड़े का ब्यौरा रखा जाता है और इन्हें अपनी वार्शिक रिपोर्ट प्रिजन स्टैटिस्टिक इण्डिया में प्रकाषित करता है। 31 दिसम्बर 2020 की स्थिति के अनुसार भारत में तीन लाख इकहत्तर हजार से अधिक कैदी ऐसे हैं जो विचाराधीन हैं। इसमें उन्नीस हजार से थोड़े अधिक आठ केन्द्रषासित क्षेत्र से हैं जबकि षेश सभी भारत के 28 राज्यों से हैं। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 2015 से देष की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या में 30 प्रतिषत से अधिक की वृद्धि हुई है जबकि दोशसिद्ध के मामले में 15 फीसद की कमी आयी है। पड़ताल के अगले हिस्से में देखें तो यह भी पता चलता है कि जमानत पर रिहा किये जाने के करण साल 2020 में 2019 की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या दो लाख साठ हजार की कमी आयी है।
षायद ये बहस की जा सकती है कि देष में बढ़ रहे विचाराधीन कैदियों की संख्या लोकतांत्रिक दृश्टि से सामाजिक न्याय को ही चुनौती दिये हुए है। विचाराधीन कैदियों के अनुपात को सघनता से समझा जाये तो सबसे अधिक वृद्धि पंजाब में देखने को मिलती है उसके बाद हरियाणा तत्पष्चात् मध्य प्रदेष को देखा जा सकता है। पंजाब में यह 2019 में 66 फीसद से बढ़कर 2020 में 85 प्रतिषत हो गया। हरियाणा में यही चौसठ प्रतिषत से बयासी फीसद हुआ जबकि मध्य प्रदेष में 54 से बढ़कर लगभग 70 फीसद हुई। दिल्ली में भी विचाराधाीन कैदियों की संख्या 82 प्रतिषत से बढ़कर 91 प्रतिषत हो गयी जिसके चलते राज्य इस मामले में सबसे अधिक अनुपात वाला राज्य बन गया। बिहार की जेल हो या यूपी या फिर झारखण्ड, उड़ीसा आदि हो यहां स्थिति बढ़त वाली ही है। तमिलनाडु के बाद तेलंगाना दो ऐसे राज्य हैं जहां ऐसे कैदियों के अनुपात और संख्या में कमी देखने को मिलती है। तमिलनाडु की जेल में बंद कैदियों में महज 61 फीसद ही विचाराधीन कैदी हैं जबकि तेलंगाना में यही आंकड़ा 65 फीसद के आसपास है। तस्वीर बताती है कि 2020 में केरल की जेल में विचाराधीन कैदियों का अनुपात सबसे कम था जो महज 59 फीसद था। इसका एक बड़ा कारण तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में कैदियों को अदालत में ले जाये बिना जेलों में बहुत सारी हुई सुनवाई भी हो सकती है। गौरतलब है कि लगभग सभी राज्यों में कोविड प्रतिबंधों के चलते मेडिकल देखभाल को लेकर अदालती यात्राओं की संख्या में गिरावट हुई है। भारत की षीर्श अदालत ने कोविड-19 महामारी की अनियंत्रित वृद्धि को देखते हुए पात्र कैदियों की अन्तिम रिहाई का आदेष दिया था। न्यायालय का उद्देष्य जेलों में भीड़ कम करना और कैदियों के जीवन के स्वास्थ्य के अधिकार की रक्षा करना षामिल था।
कानून के षासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लम्बित हो जाये तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं। हमारी संवैधानिक प्रणाली में हर व्यक्ति को कानून के सामने समता और संरक्षण का अधिकार प्राप्त है मगर कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए मुकदमें, जेल और सजा इत्यादि से गुजरना पड़ता है। इसी का परिणाम है कि करोड़ों मुकदमें लम्बित और लाखों लोग जेल में बंद हैं जिसमें कई विचाराधीन हैं और जेल में बंद हैं। लम्बे समय तक मामले लम्बित रहने के कारण भारत की जेलों में अंडरट्रायल्स की संख्या लगातार बढ़त बनाये हुए है। प्रिज़न स्टैटिस्टिक इण्डिया 2016 में भारत में कैदियों की दुर्दषा पर प्रकाष डाला गया। ध्यानतव्य हो कि विचाराधीन कैदियों की आबादी भारत में सर्वाधिक है। साल 2016 के आंकड़े से यह पता चलता है कि कुल कैदियों में से 68 फीसद विचाराधीन थे। खास यह भी है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436क को लेकर अनभिज्ञता भी इन्हें जेल में रहने के लिए मजबूर किए हुए है। गौरतलब है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के अन्तर्गत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किये गये कैदियों की संख्या के बीच अंतर स्पश्ट किया गया है। इसके तहत अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम जेल अवधि का आधा समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत गारंटी पर रिहा किया जा सकता है। साल 2019 का एक आंकड़ा यह बताता है कि जेलों में कैदियों के रहने की दर बढ़कर 118 फीसद से अधिक हो गयी है। जाहिर है बुनियादी दिक्कतें तो बढ़ेगी ही साथ ही रख-रखाव के लिए बजट की भारी-भरकम राषि भी इन पर उपयोग में लायी जाती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अमिताभ राय समिति ने जेलों में सुधार के लिए कई सिफारिषों की जिसमें षीघ्र विचारण को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया, 30 कैदियों के लिए कम से कम एक वकील अनिवार्य की बात कही और 5 वर्श से अधिक समय से लम्बित छोटे-मोटे मामलों के निपटान हेतु विषेश फास्ट ट्रैक न्यायालयों की स्थापना का सुझाव षामिल था। इतना ही नहीं कैदियों के लिए कानूनी सहायता जैसे तमाम संदर्भ भी इसमें निहित हैं। इसके अलावा रिक्तियों को भरने तथा अन्य संदर्भों पर भी सुझाव देखे जा सकते हैं। पिछले दो दषक में फास्ट ट्रैक अदालतें बनायी गयी हैं लेकिन अधीनस्थ न्यायालय और इन फास्ट ट्रैक कोर्ट में लम्बित मामलों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। मई 2021 तक 24 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों ने 956 फास्ट ट्रैक अदालतों में 9 लाख से अधिक मामले लम्बित थे। साल 2019 और 2020 के बीच उच्च न्यायालयों में लम्बित मामलों में 20 प्रतिषत की दर से और अधीनस्थ न्यायालयों में 13 फीसद की दर से बढ़ोत्तरी हुई। हालांकि कोविड के समय में न्यायालयों के काम-काज सीमित रहे हालांकि तुलनात्मक मामले भी बहुत कम थे। मामले निपटाने की दृश्टि से देखा जाये तो रांची हाईकोर्ट में साल भर में महज 3.29 प्रतिषत मामलों का निस्तारण होता है जो सबसे कम है। जबकि केरल हाईकोर्ट में यह आंकड़ा 25.88 प्रतिषत है वहीं कर्नाटक व पटना में 18 फीसद से अधिक जबकि जम्मू कष्मीर और लद्दाख में यह 15 प्रतिषत के आस पास है। लम्बित मामलों का समुच्चय संदर्भ में निचली अदालतों में 87 फीसद, उच्च न्यायालयों में 12 फीसद और षेश सुप्रीम कोर्ट में मामले लम्बित हैं। कानून मंत्रालय के अनुसार निचली अदालत से लेकर हाईकोर्ट तक जजों की संख्या व्यापक पैमाने पर रिक्त है जहां क्रमषः 5147 और 381 रिक्तियां देखी जा सकती हैं। साल 2017 में भारतीय विधि आयोग ने 7 वर्श  तक के कैद वाले अपराधों के लिए अधिकतम सजा एक तिहाई समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों पर जामनत पर रिहा की सिफारिष भी की थी।
न्याय तक पहुंचना इस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों से अवगत होना चाहिए तथा कानून की गरिमा में उनका दृढ़ विष्वास होना चाहिए लेकिन हकीकत में मामला उलट है। कुछ को तो अपने अधिकार ही मालूम नहीं हैं और बहुत से ऐसे हैं जो वकीलों की कानूनी फीस नहीं चुका सकते। सबसे गम्भीर चुनौती न्याय की जटिलता भी है। कानूनी प्रक्रियाएं लम्बी और महंगी और न्यायपालिका के पास इन मामलों के निराकरण के लिए कई कर्मचारियों और भौतिक ताम-झाम की कमी है। षायद यही कारण है कि भारत की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लम्बित पड़े हैं जो न्याय में देरी को पूरी तरह पुख्ता करते हैं। एक तरफ मुकदमों के बोझ से न्यायालय दब रहे हैं तो दूसरी तरफ कैदियों में आती बाढ़ के चलते जेलें अनुपात से अधिक मषक्कत कर रही हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि जेलों में अप्राकृतिक मौतों की संख्या 2015 और 2016 के 115 से बढ़कर 231 देखने को मिली जबकि इसी दरमियान आत्महत्या की दर में भी 28 फीसद की बढ़त दर्ज हुई। राश्ट्रीय मानवाधिकार ने साल 2014 में कहा था कि औसतन जेल में आत्महत्या करने की सम्भावना डेढ़ गुना अधिक होती है। उक्त संदर्भ यह दर्षाता है कि जेल मानसिक अवस्था के लिए कहीं अधिक भयावह होती है। रिपोर्ट से तो यह भी पता चलता है कि 2016 में लगभग 22 हजार कैदियों पर एक मानसिक स्वास्थ्य पेषेवर मौजूद था और देष के केवल 6 राज्यों और एक केन्द्रषासित प्रदेष में मनोचिकित्सक मौजूद थे। जेल अधिनियम 1894 और कैदी अधिनियम 1900 के अनुसार हर जेल में एक कल्याण अधिकारी और एक कानून अधिकारी का प्रावधान है मगर इनकी भर्ती अभी भी लम्बित है। साफ है कि न्यायालय हो या जेल कई ढांचागत कमियों से भी जूझ रहे हैं। ऐसे में देष में लगातार बढ़ती मुकदमों की स्थिति लम्बित होने की सम्भावना को और बढ़ा सकता है जबकि जेलों में कठिनाई और पैदा हो सकती है। जाहिर है अदालती कार्यवाही में न केवल तेजी लाने की आवष्यकता है बल्कि जेलों में बिना सजा के बंद कैदी (विचाराधीन) जो कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं उनके साथ षीघ्र न्याय हो ताकि अदालत मुकदमों से भारहीन हो और जेलें सीमा से अधिक भीड़ से बच सके।

 दिनांक : 8/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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