Wednesday, April 17, 2019

आईएएस के आसमान मे स्याह हिन्दी मीडियम

सिविल सेवा सपने पूरे होने और टूटने दोनों का हमेषा से गवाह रहा। ब्रिटिष काल से ही ऐसे सपने बनने की जगह इलाहाबाद रही है जिसका औपचारिक नाम अब प्रयागराज है। अब वहां की हालत चयन दर के मामले में बेहतर नहीं है। पहली बार साल 1922 में सिविल सेवा की परीक्षा का एक केन्द्र लंदन के साथ इलाहाबाद था जो सिविल सेवकों के उत्पादन का दषकों-दषक बड़ा स्थान बना रहा। आज वहां मीलों सन्नाटा है। हालांकि सन्नाटा तो दिल्ली में भी है। इतना ही नहीं उत्तर भारत में पनप चुके कई केन्द्रों मसलन लखनऊ, पटना, जयपुर समेत कई स्थानों पर आलम यही है। यहां अध्ययन करने वाले प्रतियोगियों को लेकर बात नहीं कही जा रही है बल्कि प्रतिवर्श सिविल सेवा में हिन्दी माध्यम में चयन के स्तर को लेकर यह चिंता जताई जा रही है। बहुत खोजबीन के बाद कुछ आंकड़े वेबसाइट से प्राप्त हुए जिसे पढ़कर सिविल सेवा में हिन्दी माध्यम की दुर्दषा का पता चलता है। आंकड़ों की पड़ताल कहती है कि हिन्दी माध्यम का बुरा हाल तब हुआ जब से सिविल सेवा में बदलाव आया। साल 2011 में पहली बार वैकल्पिक विशय हटाकर प्रारम्भिक परीक्षा में सीसैट जोड़ा गया था। आगे क्रमिक तौर पर 2013 में मुख्य परीक्षा में भी बड़़ा बदलाव लाया गया। तभी से हिन्दी माध्यम का चयन दर भारी गिरावट का षिकार हो गया। साल 2013 में हिन्दी माध्यम में सिविल सेवा की परीक्षा पास करने वाले प्रतियोगियों का आंकड़ा तुलनात्मक बेहतर था पर बाद में यह निरंतर निराष करने वाला सिद्ध हुआ। 2014 में यह तेजी से गिरते हुए 2.11 प्रतिषत रह गया। 2015 में यह थोड़ा उठान के साथ 4.28 पर आकर खड़ा हो गया और 2016 में यह 3.45 था। हिन्दी माध्यम के प्रतियोगियों की चयन दर की ये सूरत भयभीत करने वाली है। देखा जाय तो 65 फीसदी आबादी घेरने वाले हिन्दी प्रतियोगी इकाई के षुरूआती प्रतिषत में सिमट कर रह गये हैं। आंकड़े के क्रम में 2017 में यह 4 फीसदी से थोड़ा ज्यादा था और 2018 में हिन्दी माध्यम में चयनित उम्मीदवार का दर 2.16 रह गया है। यह एक ऐसी सूरत है जो वर्शों से सिविल सेवा की तैयारी करने वाले प्रतियोगियों को हैरान कर सकती है और निराष भी पर बरसों से इस क्षेत्र में होने के नाते मैं यह समझता हूं कि इस परीक्षा की तैयारी करने वाले बरसों-बरस तक टूटते नहीं है बल्कि चयनित न होने पर स्वयं में नव निर्माण भर लेते हैं। 
द इण्डियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक मसूरी स्थित लाल बहादुर राश्ट्रीय प्रषासनिक अकादमी में ट्रेनिंग ले रहे 370 अधिकारियों में से केवल 8 हिन्दी माध्यम के थे। बात हिन्दी माध्यम तक की ही नहीं है सवाल देष में बड़ी तादाद में लगे उम्मीदवारों के वजूद का भी है। सवाल यह भी है कि सिविल सेवा परीक्षा के प्रति जिस समर्पण के साथ युवा जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा खपाता है आखिर हिन्दी माध्यम उसे वहां तक पहुंचने में क्यों व्यवधान है। सवाल दूसरा यह है कि कठिनाई हिन्दी माध्यम की है या कोई खामी यूपीएससी में है या फिर हिन्दी माध्यम के प्रतियोगी का स्तरहीन प्रदर्षन है। सवाल चकरा देने वाले हैं फिर भी सुधार तो करना पड़ेगा। चाहे प्रतियोगी की कमी हो या प्रतियोगिता की व्यवस्था में इस दर को लम्बे समय तक बनाये रखना उचित तो कतई नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हिन्दी माध्यम की दुर्दषा हमेषा से ऐसी रही। इसी परीक्षा में कभी 100 स्थान के भीतर 10 से 20 हिन्दी माध्यम के उम्मीदवार होते थे। इतना ही नहीं 2002 में अजय मिश्रा हिन्दी माध्यम से 5वीं रैंक पर थे जबकि किरण कौषल 2008 में तीसरी रैंक हासिल की थी। उसके बाद से स्थिति बेकाबू हुई और 2014 से तो हिन्दी माध्यम का प्रतियोगी नदारद होने लगा। सवाल यह भी है कि क्या 2008 के बाद हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाले की बौद्धिक योग्यता में गिरावट आ गयी। यह तीखा सवाल है और इसका हल ढ़ूंढ़ना होगा। हिन्दी बनाम अंग्रेजी का रूप ले चुकी सिविल सेवा परीक्षा में क्या अंग्रेजी माध्यम के प्रतियोगी ही बौद्धिकता के चरम पर है। जहां तक जान पड़ता है कि एक दषक पहले इस परीक्षा में सवाल उठते थे पर हिन्दी बनाम अंग्रेजी न होकर इंजीनियरिंग बनाम अन्य हुआ करता था। 
समस्या यह है कि इन समस्या से कैसे निपटा जाय। सरसरी दृश्टि से तो यही कहा जायेगा कि इसमें भाग लेने वाले प्रतियोगी विशय के ज्ञान व बोध को चैड़ा करें पर क्या इतना मात्र कहना ही पूरी तरह वाजिब है। बीते दो दषकों से दिल्ली से लेकर इलाहाबाद, पटना, जयपुर व लखनऊ समेत उत्तर भारत के हिन्दी भाशी क्षेत्रों समेत पूरे भारत में कोचिंगों की बाढ़ आयी। हालांकि इसमें नाम तो भोपाल, इंदौर और देहरादून समेत कई क्षेत्रों का लिया जा सकता है। दिल्ली के मुखर्जी नगर में हिन्दी माध्यम की कोचिंग की तादाद भी अधिक है और प्रतियोगी भी। यहीं पर हिन्दी माध्यम की तैयारी करने और कराने वालों का सबसे बड़ा संगम होता है। यहीं से रणनीति की कताई-बुनाई और परीक्षा में सफल होने का पूरा ताना-बाना बुना जाता है। नोट्स से लेकर पढ़ने-पढ़ाने की रणनीति का यहां बहुत बड़ा बाजार है। इस बाजार में महंगे-सस्ते सभी बिक रहे हैं। प्रतियोगी की भाग-दौड़ में भी षायद ही कोई कमी हो। वह भी हर कोचिंग के चैखट पर कमोबेष माथा टेकता मिल जायेगा। दो टूक कहें तो वह काॅरपोरेट व पूंजीवाद की इस दुनिया में काफी हद तक कोचिंग के आभामण्डल से भी ग्रस्त है। अंदर क्या पकता है और यूपीएससी की दृश्टि से कितना सटीक है इसकी चिंता किये बगैर वह इस आभामण्डल में कुछ हद तक तो फंस रहा है। स्थिति तो यह भी है कि जो जितना कठिन पढ़ाई बना दे उतना अच्छा उसका बौद्धिक स्तर है जबकि सच्चाई यह है कि सिविल सेवा परीक्षा विष्लेशणात्मक एवं विचारषील अवधारणा से युक्त है जिसमें निर्धारित षब्दों के भीतर बात कहने की क्षमता विकसित करनी है। जिस हेतु जरूरी सामग्री व सधा हुआ मार्गदर्षन तथा सीमित विवेकषीलता की आवष्यकता है। 
स्वतंत्रता के पष्चात् सर्वाधिक बड़ा फेरबदल सिविल सेवा परीक्षा में साल 1979 में देखा जा सकता है जो कोठारी समिति की सिफारिषों पर आधारित है। यहीं से सिविल सेवा परीक्षा प्रारम्भिक, मुख्य एवं साक्षात्कार को समेटते हुए त्रिस्तरीय हो गयी और इस परिवर्तित पैटर्न के पहले टाॅपर उड़ीसा के डाॅ0 हर्शुकेष पाण्डा हुए। प्रषासनिक सेवा को लेकर हमेषा से युवाओं में आकर्शण रहा है साथ ही देष की सेवा का बड़ा अवसर भी इसके माध्यम से देखा जाता रहा। लाखों युवक-युवतियां इसे अपने कैरियर का माध्यम चुनते हैं पर विगत् कुछ वर्शों से हिन्दी माध्यम के प्रतियोगी को लगातार निराषा मिल रही है। जिस प्रकार हिन्दी माध्यम की चमक यहां फीकी पड़ रही है यकीनन इसका असर देष की कार्यप्रणाली पर भी पड़ रहा है। यूपीएससी इस परीक्षा में सुधार हेतु कई कदम समय-समय पर उठाये हैं आरोप तो नहीं है पर कम होता हिन्दी माध्यम का चयन यह कहने की इजाजत देता है कि एक बार इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि खामी कहां है। हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाशा प्रेमियों के लिए इस सच्चाई को जानना जरूरी है ताकि वे इस दिषा में व्यावहारिक उपाय अपनाते हुए स्वयं के चयन के साथ आंकड़ों में भी सुधार ला सकें। कई बेहतरीन हिन्दी भाशी प्रतियोगियों को जब हताष होते हुए देखता हूं तो यह स्मरण आता है कि कहीं गलती किसी और की और भुगतान कोई और न कर रहा हो। फिलहाल हिन्दी माध्यम वालों केे पिछड़ने की वजह और भी हो सकती है। एक साथ सभी की तलाष मुमकिन नहीं है पर औपचारिक सुधार और अनौपचारिक आदतों को बदलकर इस माध्यम के प्रतियोगी अपनी बढ़त बना सकते हैं। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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