Wednesday, March 6, 2019

तब देश की पूरी राजनीति एकजुट थी

प्लेटो का कथन है कि मनुश्य का पैमाना यह है कि वह षक्ति का उपयोग कैसे करता है। इस कथन के आलोक में इन दिनों की राजनीति को भी षीषे में उतारी जा सकती है। भारत में इन दिनों हर राजनेता अपने हिस्से की षक्ति उपयोग कर रहा है पर कौन, किस पैमाने पर है अभी बात स्पश्ट नहीं हो पायी है। जब से पुलवामा में आतंकी हमले की एवज में 27 फरवरी की रात बालाकोट में एयर स्ट्राइक हुई है तब से भारत में राजनीति गरमा गई है। दो-तीन दिन की षान्ति के बाद सियासत इस बात के लिए जोर पकड़ी कि एयर स्ट्राइक से आतंकी मारे भी गये हैं या नहीं या फिर कितने मरे हैं। मीडिया में भी आंकड़ा 300 से लेकर 500 तक भी रहा है जिसे लेकर कुछ भ्रांतियां भी भारत में फैल गयी हैं। चुनाव का वर्श है, आरोप-प्रत्यारोप का बयार बढ़ना स्वाभाविक है पर ध्यान यह भी देना था कि जान जोखिम में डालने वाले सेना का मनोबल न गिरे। अब इस पर कौन, कितना ध्यान दिया पड़ताल से साफ पता चल जायेगा। पाकिस्तान में आतंकी संगठन जैष के अड्डों पर लड़ाकू विमानों से बमबारी चल रही राजनीति के बीच वायु सेना प्रमुख एयर मार्षल का भी बयान आया जो आषंकाओं को दूर करता है। वैसे बयान की आवष्यकता नहीं थी पर स्थिति को देखते हुए जो हुआ, ठीक हुआ। सरकार के मंत्री हों या विपक्ष सभी एयर स्ट्राइक को लेकर अनाप-षनाप वक्तव्य दे रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाने वालों को पाक का पोस्टर ब्वाॅय कहा है। षायद यह इषारा कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह की ओर था जिन्होंने पुलवामा को दुर्घटना करार दिया है। कांग्रेस के षीर्श लीडर समेत विरोधी दल के अन्य नेता मसलन ममता बनर्जी समेत कई एयर स्ट्राइक से मरने वालों के सबूत मांग रहे हैं। सरकार इसके पक्ष में तमाम बातें कर रही है। रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, वित्त मंत्री, कानून मंत्री व विदेष राज्य मंत्री समेत प्रधानमंत्री सभी इस कार्य में लगे हुए हैं। सवाल है कि सबूत क्यों मांगा जा रहा है, क्यों सरकार पर विपक्षियों को विष्वास नहीं है। आरोप नहीं, पर संदर्भ निहित बात यह भी है कि बीते पांच वर्शों में मोदी सरकार कई कार्यों के चलते विपक्षियों का विष्वास भी षायद भंग करती रही है। षायद उसी का नतीजा एयर स्ट्राइक के बाद आतंकियों की मौत की सही संख्या मांगी जा रही है जिसका परोक्ष प्रभाव सेना पर भी पड़ रहा है। 
जब सवाल देष का हो तब राश्ट्रीय एकता और अखण्डता की बात स्वतः सुनिष्चित हो जाती है। ऐसे में देष की राजनीति को भी एकता का मिसाल बन जाना चाहिए पर टुकड़ों में बंट चुकी राजनीति षायद अब इन परिभाशाओं से अंजान है। पाकिस्तान इन दिनों पूरे दबाव में है पर बंटी हुई राजनीति उसे भी कुछ राहत दे रही होगी। प्रधानमंत्री मोदी के कई कार्यों की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी की जाती है। हालांकि चेस्टर बर्नार्ड के नेतृत्व की परिभाशा कहती है कि नेतृत्व में नेता, परिस्थिति और अनुयायी का समावेषन होता है जो समय, काल और परिस्थिति के अनुपात में सब कुछ तय होता है। ऐसे में तुलना ठीक नहीं है और कुछ हद तक आलोचना भी ठीक नहीं है पर कुछ बातें फिर भी जरूरी हैं। वर्श 1971 में जब भारत और पाकिस्तान युद्ध में थे तब देष की पूरी राजनीति एक जुट थी। हालांकि विपक्ष सतह पर था पर जितना था सत्ता पक्ष के साथ खड़ा था मगर आज ऐसा नहीं है। सवाल है सब एकजुट कब होंगे? दुनिया को कब संदेष मिलेगा कि भारत के भीतर दलों की तादाद भले ही सैकड़ों में हो पर जब देष पर संकट हो तो सभी एक पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सत्ता के साथ मौजूदा समय में विपक्ष की नाराज़गी भी है और असहमति भी। यही कारण है कि 1971 जैसा न तो मोदी को साथ मिल रहा है न ही समर्थन बल्कि उल्टे संदेह गहरा रहा है। जब बात 1971 की छिड़ गयी है तो हालिया स्थिति पर भी नजर डाला जाना जरूरी है। आज से ठीक 48 साल पहले भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था और इसी का परिणाम बांग्लादेष का जन्म था। हालांकि युद्ध की वजह पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेष) में पष्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) की दमनकारी नीतियां थी। बंग्ला की जगह उर्दू थोपने का प्रयास, वहां के नेताओं का दमन और पाकिस्तानी सेना द्वारा किया गया अत्याचार साथ ही बड़ी संख्या में वहां के षरणार्थियों का भारत में आना। चूंकि भारत सतर्क था पर षांत था। ऐसे में पाकिस्तान की आक्रामकता बढ़ना लाज़मी था। नतीजन भारत के वायु स्टेषन पर उसने हमला किया। यहीं से भारत बांग्लादेष की मुक्ति के लिए पाकिस्तान को सबक सिखाने मैदान में उतर गया जिसका नतीजा बांग्लादेष है।
ऐसे ही सबक मोदी षासनकाल में पीओके एवं पाकिस्तान के भीतर घुसकर पाकिस्तान को दिया गया जिसे लेकर राजनीति गरमाई है और एकजुटता फलक से गायब है। सवाल है कि पहले एकजुट थे अब क्यों नहीं। यह बदली परिस्थिति ओर नेतृत्व का ही कमाल है। इन्दिरा गांधी के षासनकाल में बांग्लादेष की मुक्ति के लिए 13 दिन युद्ध चला था और 93 हजार पाकिस्तानी युद्धबन्दी बनाये गये थे। 15 हजार वर्ग किलोमीटिर से ज्यादा भारत ने जमीन जीती थी। जहां तक मोदी षासनकाल में पाकिस्तान को लेकर संदर्भ है युद्ध तो नहीं पर 28 सितम्बर 2016 को सर्जिकल स्ट्राइक और 27 फरवरी 2019 को एयर स्ट्राइक द्वारा आतंकियों को मारने और विंग कमाण्डर अभिनन्दन को 60 घण्टे के भीतर पाकिस्तान से रिहा कराने का अनोखा कार्य हुआ है। इन्दिरा गांधी ने 1971 की विजय के बाद कहा था कि हम एकता की भावना का अभिनंदन करते हैं। जिसने विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सभी मतभेदों को मिटा दिया। इस संकट की घड़ी में यदि काई भी गुट अलग होता है तो हम सफलता प्राप्त नहीं कर सकते थे। पठानकोट, उरी और पुलवामा आदि जो मोदी षासनकाल की घटना है को लेकर विपक्ष सत्ता के साथ षुरूआती कुछ दिनों तक एक साथ रहा है पर वह समय के साथ सरकार पर कुछ हद तक अविष्वास जताने लगा। वैसे सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे दिनों में विरोधियों के प्रति सद्भाव व सम्मान का दृश्टिकोण विकसित करना चाहिए न कि सियासी टिप्पणी। विपक्ष का इस प्रकार संदेह करना यह दर्षाता है कि सरकार उसे विष्वास में लेने में कुछ हद तक नाकाम रही है। ऐसे में केवल विरोधियों को हाषिये पर खड़ा नहीं किया जा सकता। मोदी पर यह आरोप है कि सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर एयर स्ट्राइक को वे चुनावी लाभ में बदल रहे हैं। अविष्वास का मूल कारण यही है और सवाल उठाने की बड़ी वजह में भी षायद यह है। रोचक यह भी है कि 1971 में विधानसभा चुनाव को टालने का मुद्दा जब सामने आया तब जनसंघ के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी साथ ही स्वतंत्र पार्टी के नेता पीके राव ने पूरी कूबत से इन्दिरा गांधी का समर्थन किया और यह सुनिष्चित किया था कि विस्तार एक साल के लिए होना चाहिए। उक्त घटना यह दर्षाता है कि समस्या बड़ी हो तो सत्ता और विपक्ष की समरसता उच्च हो जानी चाहिए। हालांकि इसी दौरान सीपीआई(एम) के कुछ नेता चुनाव चाहते थे। फिलहाल सियासत दौर के अनुपात में बदल जाती है, नेता और राजनेता भी बदल जाते हैं और सभी का पैमाना भी पहले जैसा नहीं होता। साफ है कसौटी पर सब खरे उतरना चाहते हैं चाहे उसके लिए देष की एकजुटता ही खतरे में क्यों न पड़े। पर यह सवाल जीवित रहेगा कि जब देष की बात हो तो एकता के नीचे समझौता नहीं और सेना की बात हो तो तनिक मात्र भी संदेह नहीं। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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