Monday, March 18, 2019

चुनावी समर मे लोकपाल की नियुक्ति

जिस लोकपाल के लिए 1968 से कानून बनाने का प्रयास जारी था जब वह कई बार संसद के पटल पर कई संषोधनों से गुजरता हुआ साल 2013 में अधिनियम का रूप लिया और वर्श 2014 में प्रभावी हो गया तब भी नियुक्ति पांच साल तक नहीं हो पायी। मोदी सरकार ने चुनाव के मुहाने पर लोकपाल नियुक्ति का रास्ता लगभग साफ कर दिया है। जल्द ही देष को लोकपाल मिलने वाला है। इसके लिए चयन समिति सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीष पिनाकी चन्द घोश पर सहमत होते दिख रही है। गौरतलब है कि लोकपाल की चयन समिति ने लोकपाल अध्यक्ष और 8 सदस्यों के नाम का चयन भी सम्भवतः कर लिया हैं। हालांकि नाम की औपचारिक घोशणा होना अभी बाकी है। फिलहाल जस्टिस घोश वर्तमान में राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं। देखा जाय तो भारत में लोकपाल की आवष्यकता तब से है जब से लोक कल्याणकारी सत्ता है। दुनिया में सबसे पहले 1809 में यह स्वीडन में आया। स्वीडन के बाद धीरे-धीरे आॅस्ट्रिया, डेनमार्क तथा अन्य स्केण्डीनेवियन देषों और फिर अफ्रीका, एषिया, आॅस्ट्रेलिया, अमेरिका एवं यूरोप के कई देषों में भी ‘ओम्बुड्समैन’ के कार्यालय स्थापित हुए। फिनलैण्ड में वर्श 1919 में, डेनमार्क में 1954 मे, नाॅर्वे में व ब्रिटेन में 1967 में भ्रश्टाचार सामप्त करने के उद्देष्य से ओम्बुड्समैन की स्थापना की गई। अब तक 135 से अधिक देषों में ओम्बुड्समैन की नियुक्ति की जा चुकी है। सब कुछ ठीक - ठाक रहा तो इस साल भारत भी इस श्रेणी में षुमार हो जायेगा।
बीते 5 वर्शों से लोकपाल की नियुक्ति का पेंच अटका रहा। इसकी नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी कई बार तल्ख हुई। जुलाई 2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसकी नियुक्ति को लेकर सरकार को तल्ख लहजे में कहा था कि 10 दिन के भीतर देष में लोकपाल की नियुक्ति की समय सीमा तय कर उसे सूचित करें। तब सरकार की ओर से पेष महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने अदालत को बताया कि लोकपाल चयन समिति की षीघ्र ही बैठक होगी। असल में लोकपाल अधिनियम 2013 की धारा 4(1) के अनुसार लोकपाल अध्यक्ष और सदस्य की नियुक्ति राश्ट्रपति जिस समिति की संस्तुति पर करेंगे उसमें प्रधानमंत्री, अध्यक्ष जबकि स्पीकर, लोकसभा में विपक्षी दल के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीष या नामित उच्चत्तम न्यायालय का कोई न्यायाधीष व योग्य विधि षास्त्री का होना आवष्यक है। 2014 के सोलहवीं लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्षी नेता न होने के कारण मामला खटाई में रहा और इसी का बहाना बनाकर सरकार हीला-हवाली करती रही। जाहिर है चुनाव की हालिया स्थिति को देखते हुए सरकार एक अहम फैसला लेने की ओर है। कह सकते हैं कि मोदी सरकार ने ऐन वक्त पर विपक्ष से मुद्दा छीन लिया है। हालांकि विपक्ष इसकी भी काट खोजते हुए अब लोकपाल नियुक्ति देर से करने के मुद्दे को गरम कर सकती है। फिलहाल अभी भी मान्यता प्राप्त विपक्ष नहीं है। बावजूद इसके लोकपाल की नियुक्ति सम्भव होते दिख रही है इसके पीछे बड़ी वजह क्या है। चयन समिति के कुल 5 सदस्यों में स्पीकर सुमित्रा महाजन, प्रधान न्यायाधीष रंजन गोगोई, नेता विपक्ष और कानूनविद मुकुल रोहतगी षामिल हैं। सरकार ने लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को इस समिति में विषेश रूप से आमंत्रित किया था। हालांकि बीते 15 मार्च की बैठक में उनकी भागीदारी सम्भव नहीं हुई। स्थिति को देखते हुए सोच में यह बात आती है कि जब सब कुछ ऐसा ही था तो यह पांच साल पहले भी हो सकता था। गौरतलब है कि मान्यता प्राप्त विपक्ष की योग्यता हेतु 55 सदस्यों (10 प्रतिषत)की आवष्यकता होती है। कांग्रेस विरोधी दलों में सबसे बड़ी पर 44 सीटों तक ही सिमटी थी। ऐसे में यह पेंच सरकार के लिए एक बहाना बना रहा। 
प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966 - 1970) की सिफारिषों पर नागरिकों की समस्याओं पर समाधान हेतु दो विषेश प्राधिकारियों लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति की बात प्रकाष में आयी जो स्केण्डीनेवियन देषों के इन्स्टीट्यूट आॅफ ओम्बुड्समैन और न्यूजीलैण्ड के पार्लियामेन्ट्रीय कमीषन आॅफ इन्वेस्टीगेषन की तर्ज पर की गयी। आयोग ने न्यूजीलैण्ड की तर्ज पर न्यायालयों इस दायरे से बाहर रखा। हालांकि स्वीडन में न्यायालय भी लोकपाल और लोकायुक्त के दायरे में आते हैं। तत्कालीन सरकार ने इसकी गम्भीरता को देखते हुए 1968 में पहली बार इसे अधिनियमित करते हुए संसद की चैखट पर रखा, सरकारें बदलती रहीं और संषोधनों के साथ लोकपाल विधेयक भी लुढ़कता रहा आखिरकार 2013 में यह अधिनियमित हो गया। गौरतलब है कि यह विधेयक दस अलग-अलग समय और सरकारों में उलझा रहा। हालांकि इसे अधिनियमित रूप देने के लिए देष में व्यापक पैमाने पर आंदोलन हुए जिसमें गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे की भूमिका देखी जा सकती है। भ्रश्टाचार के मामले में जांच के लिए एक स्वतंत्र संस्था लोकपाल के गठन का इंतजार फिलहाल खत्म हो गया है। लम्बे समय से पारदर्षिता और जवाबदेहिता को लेकर संस्था की मांग होती रही। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के साथ सरकारी कृत्यों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। सामाजिक सेवाओं और अर्थव्यवस्थाओं के उद्देष्यों की पूर्ति के लिए सरकार को ही एक मात्र सक्षम अभिकरण माना जाता रहा है। लोकपाल के पास सेना को छोड़कर प्रधानमंत्री से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी, किसी भी जनसेवक मसलन किसी भी स्तर का सरकारी अधिकारी, मंत्री व पंचायत सदस्य आदि के खिलाफ भ्रश्टाचार की षिकायत की सुनवाई का अधिकार होगा व इन सभी की सम्पत्ति को कुर्क भी कर सकता है। विषेश परिस्थितियों में लोकपाल को किसी व्यक्ति के खिलाफ अदालती ट्रायल चलाने और दो लाख रूपए तक का जुर्माना लगाने का भी अधिकार है।
पहली बार महाराश्ट्र ने 1973 में लोकायुक्त की नियुक्ति कर इस संस्था की षुरूआत की जबकि इससे जुड़े विधेयक (1970) को पास कराने का श्रेय उड़ीसा को जाता है। देष में अभी तक लोकपाल नहीं है और कई प्रदेष लोकायुक्त से वंचित हैं। लोकपाल की कार्यवाही रोगनाषक ही नहीं बल्कि निवारक भी है। भारत में भ्रश्टाचार पर नियंत्रण तथा नागरिकों के षिकायतों के निवारण के लिए एक वैधानिक संस्था प्राप्त करने में 5 दषक से अधिक का समय खर्च हो गया पर देर से ही सही देष को लोकपाल मिलने वाला है। दरअसल यूपीए-2 सरकार के दौरान जब भ्रश्टाचार के कई रूप हो गये तब देष में नाराज़गी भी बढ़ गयी थी। हालांकि लोकपाल 2013 का अधिनियम यूपीए-2 सरकार ने ही पारित किया था पर एनडीए की सरकार ने पूरे 5 साल के कार्यकाल खर्च करने के बाद अब इस दिषा में कदम उठाया है। साफ है कि मौजूदा सरकार भी भ्रश्टाचार की चिकित्सा देने के मामले में कमतर ही रही। अब चुनाव मुहाने पर है तो सरकार लोकपाल नियुक्ति का मन बना चुकी है। लोकपाल की नियुक्ति में देरी पर एक गैर सरकारी संस्था काॅमन काॅज ने नाराज़गी भी व्यक्त की थी। माना जाता है कि इसी संस्था की पहल ने लोकपाल को रास्ता दिया। अब इसे मंजिल देना बाकी है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि दुनिया के जिन देषों में ऐसी संस्थाएं व्याप्त हैं वहां भ्रश्टाचार कम है। विकसित हो या विकासषील देष कमोबेष भ्रश्टाचार से सभी पीड़ित हैं। नाम भिन्न-भिन्न हैं पर लोकपाल रूपी चिकित्सक दुनिया के सैंकड़ों देषों में उपलब्ध है। लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री भी षामिल हैं। इससे न केवल लोकपाल की प्रासंगिकता को बल मिलता है बल्कि यह भी परिलक्षित होता है कि कोई भी हो त्रुटि हुई तो रडार पर होगा। वैधानिक और संस्थागत ढांचे के अंतर्गत देष में दो दर्जन से अधिक भ्रश्टाचार की एजेंसियां मौजूद हैं। बावजूद इसके भारत भ्रश्टाचार से मुक्त नहीं है। कह सकते हैं कि अब लोकपाल जैसे भारी-भरकम संस्था और बड़े दायरे में विस्तार वाला लोकपाल अपने दायरे की तमाम समस्याओं से देष को मुक्ति देगा। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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