दुनिया भर में मानवाधिकारों की रक्षा करने के मकसद से जब साल 2006 में संयुक्त राश्ट्र ने मानवाधिकार परिशद की स्थापना की तब उसे भी षायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि कुछ ही समय में यह परिशद विवादों का संगठन बन कर रह जायेगा। स्विट्जरलैण्ड के जेनेवा षहर में मुख्यालय रखने वाला यह परिशद का मुख्य काज मानवाधिकार को प्रोत्साहित करना है परंतु इन सैद्धान्तिक तथ्य और व्यावहारिक पक्ष से यह दरकिनार होता दिख रहा है। अमेरिका बीते 19 जून को इस परिशद से यह आरोप लगाकर नाता तोड़ लिया कि 47 सदस्यों वाली यह परिशद इज़राइल विरोधी है साथ ही कहा कि लम्बे समय से परिशद में कोई सुधार नहीं आया जिसकी वजह से वह बाहर जा रहा है। पड़ताल बताती है कि अमेरिका तीन साल से संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार परिशद (यूएनएचआरसी) का सदस्य है। अभी डेढ़ वर्श ही पूरा हुआ था कि ऐसी खबर आने लगी कि परिशद् में सहमति का अभाव और अमेरिका की मांगों को न मानने के चलते वह इससे नाता तोड़ सकता है और जिसका औपचारिक ऐलान बीते 19 जून को कर भी दिया गया। बता दें कि पूर्व राश्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू. बुष के षासनकाल में भी अमेरिका ने तीन साल तक परिशद का बहिश्कार किया था मगर बराक ओबामा के राश्ट्रपति बनने के बाद 2009 में अमेरिका परिशद में षामिल हुआ। दो टूक यह भी है कि अमेरिका बीते कुछ वर्शों से डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही कई कड़े कदम उठा चुका है। पेरिस जलवायु समझौता, यूनेस्को और ईरान परमाणु डील से वह पहले ही नाता तोड़ चुका है।
20 जनवरी 2017 को राश्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया के फलक पर कई ऐसे फैसले लिये जिससे उन्हें एक अलग सांचे में ढाला गया सत्ताधारी की पहचान मिली है। सप्ताह भर के भीतर 7 मुस्लिम देषों के अमेरिका के भीतर प्रवेष रोकना उनकी पहली ठोस कार्यवाही थी। सषक्त देष के राश्ट्रपति ट्रंप कई तरह के निर्णयों को लेकर एक अलग स्वभाव के लिये जाने जाते हैं। इसी क्रम में यूएनएचआरसी से हटने का एलान इस बात को दर्षाता है कि अमेरिका अपने निजी हितों को साधने के मामले में इस कदर सोच रखता है कि उसे षेश दुनिया की चिंता नहीं है। इस कदम से सभी को निराषा मिली है। यूएनएचआरसी के अध्यक्ष ने भी बयान जारी कर यह कहने का प्रयास किया कि बीते 12 वर्शों में इस संगठन ने कई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जेनेवा स्थित यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि मण्डल ने भी ट्रंप के इस कदम पर खेद जताया है। गौरतलब है कि अमेरिका के प्रतिनिधि द्वारा वांषिंगटन में इस परिशद से हटने का एलान किया गया था जिसमें स्पश्ट था कि हमने यह कदम इसलिए उठाया है क्योंकि हमारी प्रतिबद्धता ऐसी पाखण्डी और अहंकारी संस्था का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं देती जो मानवाधिकारों का मजाक बनाती है। उक्त परिप्रेक्ष्य को देखते हुए क्या यह मान लिया जाय कि संयुक्त राश्ट्र की यह परिशद मानवाधिकार का कारगर संरक्षण करने में अक्षम है। जब मार्च 2006 में 60वीं संयुक्त महासभा ने इस परिशद को स्थापित करने के निर्णय की पुश्टि की तो इसे लेकर कई कषीदे गढ़े गये थे पर यह पटरी से हटता हुआ दिखाई दे रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका का यह कदम दुनिया में मानवाधिकारों को और असुरक्षित करने में बल दे सकता है। समझने वाली बात यह भी है कि पहले खामियों के चलते रिपोर्टों को खारिज किया जाता था अब तो हाल यह है कि अमेरिका ने यूएनएचआरसी जैसे संगठन को ही खारिज कर दिया है।
मानवाधिकार का सिद्धांत और व्यवहार सर्वाधिक गहन विशयों में से एक है जिसने अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों का ध्यान अपनी ओर आकर्शित किया। मानवाधिकार का विचार, विकास की एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम लगता है। प्रथम और द्वितीय विष्व युद्ध के दौरान मानवाधिकारों के भीशण हनन के चलते संयुक्त राश्ट्र के चार्टर में मानवाधिकारों की धारणा के सम्बंध में प्रसंग षामिल किये गये। जिसे लेकर उल्लेखनीय प्रगति 1948 में हुई जब महासभा ने 10 दिसम्बर को मानवाधिकार का एक सार्वभौमिक घोशणा पत्र अपनाया और दुनिया भर के मानव को कारगर संरक्षणकत्र्ता के रूप में अन्तर्राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मूर्त रूप सामने आया। संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार आयोग की जगह बनाया गया यह परिशद कई संदेहों से घिर कर अब अपने मकसद से दूर होता दिखाई दे रहा है। ऐसा लगता है कि दुनिया के ताकतवर देषों की प्रतिबद्धता मानवाधिकार के मामले में तेजी से घट रही है। एक तरफ देषों के बीच टकराव उग्र हो रहा है तो दूसरी तरफ न्याय और अन्याय को लेकर एक राय बनाना मुष्किल होता जा रहा है। इतना ही नहीं नागरिकों के मानवाधिकारों पर जब-जब बात होती है इसकी जवाबदेही सुरक्षाकर्मियों पर थोप दी जाती है। क्या यह बात वाजिब हो सकती है कि अधिकार और न्याय के मामले में बड़े देष संकुचित होते जायें और छोटे और कमजोर देष षोशण के षिकार। एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई ऐसे तीसरी और चैथी दुनिया के देष मिल जायेंगे जो अमेरिका और यूरोपीय देषों से मदद की दरकार रखते हैं। अपने प्रति हो रहे अन्याय को लेकर उनसे डटे रहने की उम्मीद करते हैं मगर यह सब इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि निजी हितों को साधने की फिराक में सभी को अपनी चिंता है। जब अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते से हटने का एलान किया था तब राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने धमकाने के अंदाज में कहा था कि वे अमेरिका के राश्ट्रपति हैं न कि पेरिस के।
दरअसल यूएनएचआरसी का मुख्य कार्य संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल बैठाकर अंतर्राश्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना रहा है। यह व्यक्तियों, समूहों, गैर-सरकारी संस्थानों की ओर से मिलने वाली षिकायतों पर काम करता है और मानवाधिकार हनन के मामलों की जांच करता है। परिशद, आॅफिस आॅफ द हाई कमिष्नर आॅन ह्यूमन राइट्स (ओएचसीएचआर) के साथ बेहद करीब से काम करता है। एचआरसी के प्रस्ताव सदस्य देषों के राजनीतिक रूख स्पश्ट होते हैं। वैधानिक रूप से तो नहीं लेकिन नैतिक स्तर पर ये काफी प्रभावी माने जाते हैं। कुछ खास मामलों में मसलन सीरिया, उत्तर कोरिया के विशय में परिशद पूछताछ समिति भी बना सकती है या विषेश प्रस्ताव ला सकती है। वर्श 2017 में पेष अपनी वार्शिक रिपोर्ट में ओएचसीएचआर ने ऐसे 29 देषों का जिक्र किया जिन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की। इनमें से नौ देष मानवाधिकार परिशद के सदस्य देष ही निकले जिसे लेकर विवाद होना लाज़मी था। तत्पष्चात् साल 2018 की ह्यूमन राइट्स वाॅच रिपोर्ट में वेनेजुएला, रवांडा, चीन जैसे देषों पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगाए गए हैं। ये सभी देष भी मानवाधिकार परिशद के सदस्य हैं। साफ है कि जिन्हें मानवाधिकार संरक्षण के लिये सदस्य देष के रूप में चुना गया वे भी हनन के दोशी हैं ऐसे में संगठन विषेश का महत्व जाहिर है घटता है। हर साल मार्च, जून और सितम्बर में इसके सदस्य आपस में मिलते हैं। यहां कष्मीर में मानवाधिकार को लेकर मुद्दा पाकिस्तान द्वारा भी उठाया जा चुका है। बीते मार्च में यूएनएचआरसी के 37वें सत्र में जब ऐसा हुआ तब भारत ने इस पर कड़ी आपत्ति की थी। बीते 23 जून को इस मामले में पाकिस्तान को एक बार फिर बड़ा झटका तब लगा जब भूटान, अफगानिस्तान बेला रूस और क्यूबा समेत 6 देषों ने कष्मीर रिपार्ट को खारिज कर दिया। गौरतलब है कि मौजूदा समय में पाकिस्तान यूएनएचआरसी का सदस्य है जबकि भारत 2020 तक इस परिशद में नहीं है। बावजूद इसके पाकिस्तान एक भी सदस्य देष का समर्थन जुटाने में नाकाम रहा। फिलहाल दुनिया में मानवाधिकार की रक्षा को लेकर बनाया गया यूएनएचआरसी विवाद का अड्डा बनता दिख रहा है। ऐसे में बड़ी सर्जरी की जरूरत है और अमेरिका को भी अपने अंदर झांकना चाहिए न कि आरोप लगाकर भागना चाहिए।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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