भारत में बाढ़, तूफान और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से पिछले तीन वर्शों के दौरान रोजाना औसतन 5 लोगों की मौत हुई है। इन प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़ से कमोबेष देष का आधा हिस्सा चपेट में आ ही जाता है। बीते 18 जुलाई तक के आंकड़े यह बताते हैं कि अकेले इसी साल बाढ़ के चलते बिहार और असम में मरने वालों की तादाद 2 सौ के पार है। गौरतलब है कि पहले बाढ़ का कहर झेलते हैं और फिर बाढ़ के पानी के उतरने के पष्चात् भिन्न-भिन्न बीमारियों से जूझते हैं। जब तक जन-जीवन पटरी पर आता है तब तक एक और बाढ़ का समय आ चुका होता है और कहानी फिर स्वयं को दोहराती है। नदी का जल उफान के समय जब जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्ती और आसपास की जमीन को चपेट में लेता है तो इसी को बाढ़ की स्थिति कहते हैं। हालांकि यह अचानक नहीं होता। दक्षिण-पष्चिम मानसून भारत में कब आयेगा और किस औसत से बारिष होगी इसका अंदाजा भी मौसम विज्ञान को रहता है। फलस्वरूप बाढ़ से बचने का कोई विकल्प मानसून की स्थिति को देखते हुए सोचा जा सकता है। भारी बारिष और लचर सरकारी नीतियां मसलन बाढ़ और तटबंधों के निर्माण में कमी या उनकी कमजोरी के चलते उनके टूटने से हर साल विस्तृत क्षेत्र पानी की चपेट में आता है जिसमें बिहार और असम में भयावह रूप लिये बाढ़ लाखों को पानी-पानी करता है और कईयों के प्राण पर भारी पड़ता है।
कोरोना संकट के इस दौर में मुष्किलें चैगुनी हुई हैं ऐसे में बाढ़ का कहर रही सही कसर को भी मानो पूरी कर रहा हो। महज कुछ हफ्तों की बाढ़ राज्य और सम्बंधित इलाकों की अर्थव्यवस्था को अपने साथ भी बहा ले जाती है। बावजूद इसके साल दर साल बाढ़ का पानी चढ़ने और फिर उतरने का इंतजार बरकरार रहता है। बाढ़ से पहले जान-माल के नुकसान को रोकने को लेकर उठाये जाने वाले कदम और उससे जुड़े उपाय के मामले में राज्य और केन्द्र सरकार की उदासीनता किसी से छुपी नहीं है। यदि सरकारों में सक्रियता होती तो पानी को दिषा मिलता और लोगों की जान-माल को सुरक्षा। हालांकि एक तरफा सरकारों को दोशी ठहराना उचित नहीं है। पर्यावरण का लगातार होता क्षय और नदियों के साथ हो रही ज्यादती भी इसका कारण है।
बाढ़ की चपेट में यूरोप
वैसे यह बाढ़ की भीशण तबाही अकेले भारत की नहीं है। इस बार तो यूरोप भी पानी-पानी हुआ है। यहां भी सैकड़ों लापता हैं और मरने वालों की तादाद भी अच्छी खासी रही है। यूरोप में सौ साल की तुलना में सबसे भयंकर बाढ़ है तो चीन में हजार साल की तुलना में सबसे अधिक बारिष हुई। यूरोप के कई देष जैसे जर्मनी, बेल्जियम, स्विटजरलैण्ड, लक्जमबर्ग और नीदरलैण्ड समेत स्पेन आदि देषों में बारिष ने सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिये हैं। अधिकांष यूरोपीय देष में बाढ़ के हालात पैदा हुए मगर नीदरलैण्ड ने अपने जल प्रबंधन के चलते भारी बारिष के बावजूद कोई जन हानि नहीं होने दिया। आर्थिक बुलंदियों वाला जर्मनी बाढ़ से सबसे ज्यादा नुकसान झेला है। बाढ़ के चलते यहां ग्रामीण इलाकों में बड़ा नुकसान हुआ। रेल और सड़क सम्पर्क टूट गये और सैकड़ों की तादाद में लोगों को जान गंवानी पड़ी। बर्बादी इस कदर है कि इसकी भरपाई के लिए तीन सौ मिलियन यूरो खर्च करने पड़ेंगे। बेल्जियम में भी अब तक का सबसे विनाषकारी बाढ़ देखा जा सकता है। बाढ़ से मौत पर यहां राश्ट्रीय षोक दिवस भी घोशित किया गया। स्विटजरलैण्ड ने बारिष के चलते झीलें और नदियां उफान ले लीं जिन्हें सामान्य होने में अभी इंतजार करना पड़ रहा है। यहां भी लगभग 5 सौ मिलियन डाॅलर का नुकसान बताया जाता है। गौरतलब है कि नीदरलैण्ड सदियों से समुद्र और उफनती नदियों से जूझ रहा है। इसका अधिकांष भूमि समुद्र तल से नीचे है ऐसे में 66 फीसद हिस्से में बाढ़ आने का जोखिम बना रहता है मगर नीदरलैंड अपने बुनियादी ढांचे में किये गये बेहतरीन जल प्रबंधन के चलते नुकसान को रोकने में सक्षम है। ब्रिटेन भी बाढ़ की स्थिति से नहीं बचा मगर तबाही जैसी स्थिति नहीं है। मगर यह रहा है कि ब्रिटेन खराब मौसम के हालात से निपटने के लिए 5 साल के मुकाबले कम तैयार था। आंकड़े यह बताते हैं कि यूरोप को 70 हजार करोड़ का नुकसान इस बाढ़ वाली त्रासदी से हुआ है।
अमेरिका और चीन की स्थिति
दुनिया का सबसे अमीर देष अमेरिका जिसकी अर्थव्यवस्था 20 ट्रिलियन डाॅलर के आसपास है वह भी एक तरफ भीशण गर्मी तो दूसरी तरफ बाढ़ की चपेट में है। भारी बारिष ने न केवल रिकाॅर्ड तोड़ा बल्कि व्हाइट हाउस के बेसमेंट आॅफिस में भी पानी घुस गया। गौरतलब है कि दक्षिण-पष्चिम अमेरिकी राज्यों में भीशण गर्मी से लोगों का जीवन मुहाल है जबकि दक्षिण-पूर्वी राज्यों ने भीशण चक्रवाती तूफान से हो रही बारिष ने कहर ढहाया और इसके पहले इसी साल मार्च में अमेरिका के उत्तरी राज्यों में इतनी बर्फ गिरी कि हफ्ते तक बिजली गुल रही। अनुमान यह बताते हैं कि यहां पड़ने वाली इस बार की गर्मी 1913 में डेथ वैली रिकाॅर्ड तापमान को भी पीछे छोड़ सकती है। गर्मी से 50 लाख से अधिक लोग प्रभावित हैं। दुनिया भर में कोरोना फैलाने का जिम्मेदार माने जाने वाले चीन में बीते एक हजार सालों के मुकाबले इस बार मूसलाधार बारिष हो रही है। चीन में बाढ़ की स्थिति इस कदर बिगड़ी कि पैसेंजर ट्रेनों में भी अंदर गले तक पानी भरने का चित्र देखा गया। हालांकि यह अंडर ग्राउंड स्टेषन की बात है। बारिष का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चीन के झेंगझोउ प्रांत में रिकाॅर्ड 617 मिलिमीटर बारिष दर्ज की गयी और यह आंकड़ा 3 दिन का है जबकि यहां साल भर में 640 मिलीमीटर बारिष होती है। चीन की तबाही का मंजर सोषल मीडिया पर भी खूब वायरल हुआ।
दुनिया का जल निकासी प्रबंधन
यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं में किसी का बस नहीं चलता न इसे पूरी तरह रोका जा सकता है मगर सही रणनीति और तकनीक और साथ ही इसके प्रति सजगता विकसित की जाये तो जान-माल का नुकसान कम किया जा सकता है। हालांकि कई देष ऐसे हैं जिन्होंने इस मामले में अपने को पूरी तरह मुक्त भी किया है। छोटा सा देष सिंगापुर अपने ड्रेनेज सिस्टम को लगभग 30 वर्शों में 9 सौ करोड़ रूपए खर्च करके पूरी तरह बाढ़ नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। यहां 98 फीसद बाढ़ की कमी देखी जा सकती है। यूरोप का ठण्डा प्रदेष नीदरलैण्ड 66 फीसद बाढ़ से प्रभावित होता था पर अब ऐसा नहीं होता। उसने पानी से लड़ने के बजाय पानी के साथ जीने का रास्ता अपनाया और जल भराव से निपटने का सही तरीका। गौरतलब है यहां 4 सौ साल पहले ही पानी निकासी बन चुकी थी। जापान भी जल प्रबंधन के मामले में काफी बेहतरीन देषों में एक है। फ्रांस को इस मामले में सौ बरस पहले 1910 से ही जागरूक देखा जा सकता है। यहां जलाषयों का जाल बिछाया गया है जो महान झीलों के रूप में अलग-अलग पहचान रखती है जबकि लंदन के टेम्स नदी में एक विषालकाय बैरियर बना हुआ है जिसका काम बाढ़ नियंत्रण करना है। इसके अतिरिक्त भी कई देष हैं जो जल निकासी के मामले में बेहतरी के लिए जाने जाते हैं। भारत को भी बाढ़ से निपटने के लिए बेहतरीन तकनीक खोजनी होगी और इसको जमीन पर उतारना भी होगा।
भारत में बाढ़ की बाढ़ क्यों
यह किसी से छुपा नहीं है कि पृथ्वी स्वयं में परिवर्तन करती है और कुछ मानव क्रियाकलापों ने इसको बदला है। जलवायु परिवर्तन के अतिरिक्त मानव गतिविधियों ने प्राकृतिक आपदा को कई गुना मौका दिया है इसी में एक बाढ़ भी है। मगर बेहतरीन जल प्रबंधन से इससे बचा भी जा सकता है और पानी को सही दिषा दिया जा सकता है। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ने 21 जुलाई 2017 बाढ़ नियंत्रक और बाढ़ पूर्वानुमान पर अपनी एक रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कई बातों के साथ 17 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों के बांधों सहित बाढ़ प्रबंधन की परियोजनाओं और नदी प्रबंधन की गतिविधियों को षामिल किया गया था। इसके अंतर्गत साल 2007-2008 से 2015-16 निहित हैं। उक्त से यह स्पश्ट होता है कि कोषिषें जारी रहीं पर बाढ़ बरकरार रहीं। केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़े को देखें तो 1950 में महज 371 बांध देष में थे। अब इसकी संख्या 5 हजार के इर्द-गिर्द है। पिछले कुछ वर्शों से असम में बाढ़ की विनाषलीला भी तेज हुई है। इसके पीछे प्रमुख कारण अरूणाचल प्रदेष में पन बिजली परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर बांधों को दी गयी मंजूरी है। गौरतलब है कि नदियों पर बनने वाले बांध और तटबंध जल के प्राकृतिक बहाव में बाधा डालते हैं। बारिष की स्थिति में नदियां उफान लेती हैं और इसी तटबंध को तोड़ते हुए मानव बस्ती को डुबो देती हैं। विष्व बैंक ने भी कई बार यह बात कही है कि गंगा और ब्रह्यपुत्र नदियों पर जो बांध बने हैं उसके फायदे के स्थान पर नुकसान अधिक होता है। यह भी रहा है कि तटबंधों में दरार आने और उनके टूटने के चलते पानी अनियंत्रित हुआ है। आम तौर पर ये बाढ़ आने के कारणों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई है। पेड़ लगाने की मुहिम तो दिखाई देती है मगर चोरी-छिपे दषकों पुराने पेड़ को कब काट दिया जाता है इसकी खबर न सरकार को हो रही है और न गैर सरकारी संगठनों को। फैलते षहर, सिकुड़ती नदियां और लगातार हो रहा जलवायु परिवर्तन बाढ़ को बढ़त दे रहा है।
निपटा कैसे जाये?
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि बाढ़ से निपटने के लिए क्या किया जाये? तकनीकी विकास के साथ-साथ मौसम विज्ञान के विषेशज्ञों को मानसून की सटीक भविश्यवाणी करनी चाहिए जबकि अभी यह भविश्यवाणी 50 से 60 फीसद ही सही ठहरती है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में चेतावनी केन्द्र की बात बरसों से लटकी हुई है। सीएजी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि अब तक 15 राज्यों में इसे लेकर कोई प्रगति नहीं हुई है और जहां यह केन्द्र बने हैं वहां की मषीने खराब हैं। ऐसे में असम और बिहार समेत निगरानी केन्द्र सभी बाढ़ इलाकों में नूतन तकनीक के साथ स्थापित होने चाहिए। हालांकि इन दिनों बाढ़ से महाराश्ट्र, गोवा आदि प्रदेष भी चपेट में है। बाढ़ तो जम्मू-कष्मीर में भी भीशण रूप ले लेती है। पिछले कुछ वर्शों से देखा जाये तो भारत का लगभग हिस्सा कहीं कम तो कहीं ज्यादा बाढ़ की वजह से नुकसान में रहा है। ऐसे में जरूरी है कि जल निकासी प्रबंधन को बिना किसी हीला-हवाली के ठीक किया जाये। बाढ़ भारतीय संविधान में निहित राज्य सूची का विशय है। कटाव नियंत्रण सहित बाढ़ प्रबंधन का विशय राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है मगर केन्द्र सरकार राज्यों को तकनीकी मार्गदर्षन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। राज्यों की आर्थिकी को ध्यान में रखते हुए केन्द्र को और दो कदम आगे होना चाहिये। बादल फटना, गाद का संचय होना, मानव निर्मित अवरोधों का उत्पन्न होना और वनों की कटाई जैसे अन्य कारण बाढ़ के लिए जिम्मेदार हैं इस पर भी ठोस कदम हों। गौरतलब है कि चीन, भारत, भूटान और बांग्लादेष में फैले एक बड़े बेसिन क्षेत्र के साथ ब्रह्यपुत्र नदी अपने साथ भारी मात्रा में जल और गाद का मिश्रण लाती है। जिससे असम में कटाव की घटना में वृद्धि होती है और लाखों पानी-पानी हो जाते हैं। कुछ वर्श पहले सरकार की यह रिपोर्ट थी कि साल 1953 से 2017 के बीच बारिष और बाढ़ के चलते 3 लाख 65 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है जो 3 से 4 महीने का सामान्य स्थिति में जीएसटी कलेक्षन के बराबर है और एक लाख लोगों की जान भी गयी है।
भारी बारिष और बाढ़ की वजह से तबाही तो होती है भीशण गर्मी और सूखे भी तबाही के प्रतीक हैं। अंतर्राश्ट्रीय श्रम आयोग की रिपोर्ट तो यह भी कहती है कि 2030 तक प्रचण्ड गर्मी के कारण भारत में करीब साढ़े तीन करोड़ नौकरियां खत्म हो जायेंगी। फिलहाल गर्मी और बाढ़ दोनों जलवायु परिवर्तन और मानव क्रियाकलाप का परिणाम है जिसे रोकते-रोकते दषकों हो गये मगर परिणाम ढाक के तीन पात हैं पर इससे उत्पन्न बाढ़ जैसी तबाही को रोकने के लिए सरकारें ठोस कदम उठा सकती हैं। समझने वाली बात तो यह भी है कि दक्षिण पष्चिम मानसून से ही भारत में पैदावार में बाढ़ आती है। मानसून भी बना रहे और बाढ़ पर नियंत्रण भी पा लिया जाये तो यह सोने पर सुहागा हो।
(27 जुलाई, 2021)
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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