शासन और सत्ता में आम जनमानस की भागीदारी सुषासन की पहली षर्त है तो जनता की इसी भागीदारी को सुनिष्चित करने के लिए विकेन्द्रीकरण एक अनिवार्य उपकरण भी है। विकेन्द्रीकरण को विष्वास, पारदर्षिता एवं दायित्वषीलता का निर्माण करने वाली सरकार के वैकल्पिक माॅडल के रूप में सुझाया गया है जबकि सुषासन उक्त संदर्भों के साथ कहीं अधिक संवेदनषील और अन्तिम व्यक्ति तक नीतियों के माध्यम से खुषियां और षान्ति प्रदान करने से हैं। वैष्विक पटकथा यह है कि बिना जन भागीदारी के किसी प्रकार के विकास की कल्पना जमीनी होना पूरी तरह सम्भव नहीं है। गौरतलब है कि विकेन्द्रित षासन व्यवस्था सुषासन के अंतरसम्बंध को परिलक्षित और परिभाशित भी करता है जहां स्पश्टता, न्याय और सुचिता का अनुपालन निहित है। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के अंतर्गत स्थानीय स्तर पर सत्ता में भागीदारी सुनिष्चित करना तथा अपना विकास और न्याय स्वयं करने के लिए जो व्यवस्था अपनाई गयी है उसे पंचायती राज व्यवस्था का नाम दिया गया। इसके द्वारा जन-जन को सत्ता में भागीदारी का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इस व्यवस्था से सत्ता का विकेन्द्रीकरण होता है जो लोकतंत्र का महत्वपूर्ण सोपान भी है। कोरोना वायरस संक्रमण से भारत समेत पूरी दुनिया प्रभावित हुई है और इसके प्रभाव में सुषासन को भी चुनौतीपूर्ण बनना पड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी अपने कई सम्बोधन में आपदा को अवसर में बदलने की बात कही, मगर यह तभी सम्भव है जब नियोजन और क्रियान्वयन अवसर पर जनता का सीधा सरोकार और सुषासन की दृश्टि से व्यवस्था अधिक खुलापन लिए हो। विष्व बैंक के अनुसार सुषासन एक ऐसी सेवा से सम्बंधित है जो दक्ष है, ऐसी न्यायिक सेवा से सम्बंधित है जो विष्वसनीय है और ऐसे प्रषासन से सम्बंधित है जो जनता के प्रति जवाबदेय है। सामाजिक आत्मनिर्भरता से सामाजिक समस्या, समाधान तक की पहुंच विकेन्द्रीकरण और सुषासन से ही सम्भव है। आत्मनिर्भर भारत को पूरी तरह कसौटी पर कसना है तो यही दोनों उपकरण सार्थक हथियार सिद्ध होंगे।
सुषासन के कुछ निर्धारक तत्व जो सुषासन के साध्य भी हैं और विकेन्द्रीकरण के लिए साधन की भांति हैं। राजनीतिक उत्तरदायित्व का सटीकपन होना, कानून का षासन और स्वतंत्र न्यायपालिका, विनौकरषाहीकरण अर्थात् लालफीताषाही और अकर्मण्य लोक सेवा का अभाव, सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साथ ही कार्यकुषलता और प्रभावषील प्रषासनिक व्यवस्था समेत मानवाधिकारों का संरक्षण व सरकार और सिविल समाज के मध्य सहयोग। विकेन्द्रीकरण को लोकतांत्रिकरण का उपकरण माना जाता है और भारत में 73वां और 74वां संविधान संषोधन इसका बड़ा उदाहरण है। इसके अलावा नागरिक घोशणापत्र, सूचना का अधिकार और सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति अर्थात् ई-गवर्नेंस इत्यादि ने नागरिकों के सषक्तिकरण को बढ़ावा दिया जिसके परिणामस्वरूप प्रषासन और नागरिक अंतरसम्बंध को बढ़ावा मिला। उक्त के चलते प्रषासन अधिक प्रभावी जनोन्मुखी और जनमित्र के मार्ग पर गया। विकेन्द्रीकरण का अभिप्राय अधिकारों को वितरित कर देना है। संविधान संघ और राज्य के अधिकार और दायित्व के बीच इस प्रकार सहःसम्बंधित है जहां से परिसंघीय ढांचे को ताकत मिलती है। संविधान के 7वीं अनुसूची में केन्द्र और राज्यों के बीच निहित कार्यों का बंटवारा विकेन्द्रित भावना के साथ-साथ सुषासन की परिपाटी को भी एक समुच्चय देता है। कोरोना कालखण्ड के अंतर्गत आपदा के भीशण स्वरूप को देखते हुए निर्णय कहां से और कितने लिए जायें इसकी भी एक जद्दोजहद देखी जा सकती है। पिछले साल 2020 में आयी पहली लहर के दौरान पूरे देष में लाॅकडाउन का फैसला एक केन्द्रीय फैसला था जबकि 2021 में व्याप्त दूसरी लहर में ऐसे निर्णयों को राज्यों के माध्यम से संचालित करके विकेन्द्रित स्वरूप का परिचय दिया गया। सुषासन इस बात का हमेषा मोहताज रहा है कि चीजें जितनी समीप से परोसी जायेंगी उतनी ही संवेदनषीलता के साथ लोकहित साधा जा सकेगा। केन्द्र का तात्पर्य एक ऐसा दिमाग जो पूरे देष के लिए अपने हिस्से का मजबूत नियोजन देने के साथ माॅनिटरिंग कर सकता है मगर राज्य वे भुजाएं हैं जो सभी तक आवष्यकता की वस्तुएं वितरित कर सकते हैं और अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचने के लिए इन भुजाओं का मजबूत होना अपरिहार्य है और यही सुषासन और विकेन्द्रीकरण का परिलक्षण भी है।
कौटिल्य के अर्थषास्त्र में अधिक जवाबदेह, उत्तरदायी और परिवर्तनषील इत्यादि से युक्त षासक की कल्पना की गयी है। दरअसल सुषासन एक ऐसी गतिषील अवधारणा है जिसके तहत ऐसे कार्य षामिल हैं जो सभी के लिए हितकारी हों। यह लोकतांत्रिक विधि के षासन पर आधारित जन केन्द्रित अवधारणा है। अर्थषास्त्र के भीतर कौटिल्य ने जो षासकीय विचारधारा को प्रस्फुटित किया है वह सुषासन की ही एक धारा है जिसमें विकेन्द्रीकरण का निहित अर्थ भी षामिल है। हालांकि उस दौर में सत्ता केन्द्रीकरण से युक्त थी मगर परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण जनहित की ओर झुके थे। यह मानना चाहिए कि विकेन्द्रीकरण से केन्द्र सरकारें अस्तित्वहीन नहीं हो जाती बल्कि राज्यों के साथ मिलकर पूरक भूमिकायें निभाती हैं। कोरोना की इस आपदा की घड़ी में यह उदाहरण देखने को मिल सकता है कि केन्द्र और राज्य इससे निपटने के लिए कैसे राजनीतिक उतार-चढ़ाव से परे होकर केवल सुषासन की स्थापना में ही ताकत झोंकी। विकेन्द्रीकरण मौजूदा सांस्कृतिक तत्वों के प्रसंग में भी किया जाना चाहिए। उसे बदलते हुए सम्बंधों के प्रति संवेदनषील होना चाहिए साथ ही साझेदारी के मैकेनिज्म को विकसित करने का प्रयास वाला होना चाहिए। भारत संसदीय प्रणाली प्रजातंत्र के मूल्यों और अच्छे अभिषासन की अवधारणा की प्राप्ति से युक्त है। ये बात और है कि दषकों से इसकी प्राप्ति के प्रयास होते रहे परन्तु चाहे बेहतर राजनीति या नौकरषाही अथवा संसाधनों के अभाव में इसकी चाहत अभी भी अधूरी है। जहां पारदर्षिता और खुलापन है और जहां सर्वोदय के साथ अन्त्योदय है वहीं सुषासन की बयार बहती है और इसमें पूरी तरह स्थिरता तब सम्भव है जब कत्र्तव्य के साथ निर्णय और अधिकार इकाईयों में बांट दिया जाता है। बंटी हुई इकाईयां विकेन्द्रीकरण का उदाहरण है जो जनता के समीप और जन सरोकार से ओत-प्रोत मानी जाती है। गौरतलब है कि विकेन्द्रीकरण सभी का नहीं हो सकता लेकिन समसामयिक विकास को देखें तो भूमण्डलीकरण ने पूरी दुनिया में षासन को रूपांतरित ही नहीं किया बल्कि सवाल यह भी रहा कि इस रूपांतरण की प्रकृति और मात्रा क्या रही है इसकी अभी ठीक से पड़ताल नहीं हुई है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया की एक अन्य विषेशता वैष्विक संविधानवाद तथा नागरिक समाज का भूमण्डलीकरण भी रही है। बाल विकास, महिला विकास, मानवाधिकार, जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में अन्तर्राश्ट्रीय कानून हस्ताक्षर करने वाले देषों को सुषासन के लिए एक संरचना की आवष्यकता रही है और ऐसी आवष्यकतायें केवल केन्द्रीय व्यवस्था में स्थापित करना मुष्किल है ऐसे में विकन्द्रीकरण समय की आवष्यकता बनी जो सुषासन की परिपाटी को भी पुख्ता करने के काम आ रही है।
अच्छे अभिषासन की अभिकल्पना वर्श 1991 में उदारीकरण के बाद देष में प्रस्फुटित हुई जिसे पूरे तीन दषक हो चुके हैं। तब से अनेक सरकारें आईं और गई साथ ही उदारीकरण का वृक्ष न केवल बड़ा हुआ बल्कि भारी भी हो गया परन्तु साथ चलने वाला अच्छा अभिषासन जनमानस के हिसाब से गणना में कहीं पीछे रह गया। साल 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम एक ऐसे विकेन्द्रित विकास की पहल थी जो ग्रामीण विकास की अवधारणा से ओत-प्रोत था मगर बुनियादी विकास के अभाव में उस समय के गांव तक इसकी पहुंच मुमकिन न हो पायी। हालांकि इस हेतु राश्ट्रीय प्रसार सेवा का भी साल 1953 में षुरूआत की गयी मगर यह धरातल पर उतरने से पहले धराषाही हो गया जिसकी पड़ताल के लिए बलवंत राय मेहता समिति का गठन हुआ और इसी समिति की 1957 की सिफारिष से यह साफ हुआ कि जिनका विकास करना है यह काम उन्हीं को देना ठीक रहेगा। यहां से स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की लौ जली। इसका नतीजा राजस्थान के नागौर में पंचायती राज व्यवस्था का उद्घाटन था जो दषकों की यात्रा करते हुए यही व्यवस्था उदारीकरण के बाद 1992 में 73वें और 74वें संविधान संषोधन के तौर पर मील का पत्थर बना। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का ही यह संदर्भ है कि गांवों में छोटी इकाईयां बड़ी सरकार की तरह स्थापित हो गयी जो सुषासन को भी एक नया आयाम दे रही हैं। वैसे औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में विकेन्द्रीकरण की षुरूआत 1861 से दिखायी देती है। गौरतलब है कि स्थायी सरकार और सुषासन एक दूसरे के पर्याय हैं परन्तु इस सच के साथ कि सुषासन केवल सोच के चलते नहीं बल्कि धरातल पर स्पश्ट रूप से बिखरा होना चाहिए और इस बिखराव के लिए विकेन्द्रीकरण को सषक्त करना होता है। विकेन्द्रीकरण की अवधारणा कोई नई नहीं है मगर साख और मूल्य की दृश्टि से इसे केन्द्रीकरण की तुलना में अधिक महत्व मिला है। प्रधानमंत्री मोदी का कुछ समय पहले यह सम्बोधन कि जहां बीमार वहां उपचार सुषासन और विकेन्द्रीकरण दोनों को ताकत से भरता है। डेढ़ वर्श से देष के प्रत्येक नागरिक को कोरोना जैसी जानलेवा बीमारी से बचाने का प्रयास जारी है मगर हर षासकीय हथकंडा से कोरोना बचता जा रहा है। अब तीसरी लहर की बात हो रही है। यह इस बात का परीक्षण है कि हमने सुषासन को कितना बनाये रखने में कामयाबी प्राप्त की और नागरिकों के जीवन का सुरक्षित रखने हेतु उन तक पहुंचने के लिए कैसा रास्ता अपनाया। सुषासन और विकेन्द्रीकरण जितनी ऊँचाई पर होंगे सरकार का जनहित में काम करने वाला आसमान उतना ही खुला और ऊँचा होगा।
(28 जून, 2021)
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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