प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार सत्ता संभालने के एक माह बाद जून 2014 में कहा था “अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा।” गौरतलब है कि लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी मूल्य है और संविधान में इन्हें कहीं अधिक महत्व दिया गया है। भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा और जनता के लिए निहायत उदार दृश्टि से भरा है। इसी संविधान के भीतर अनुच्छेद 19(1)(क) में मूल अधिकार के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है जो न केवल लोक सषक्तिकरण का पर्याय है बल्कि षासन व्यवस्था को लोकहित में समर्पित बनाये रखने का अनूठा काज भी करता है। अर्थषास्त्र में नोबल पुरस्कार पाने वाले भारतीय अर्मत्य सेन की पुस्तक ‘द आर्गुमेंटेटिव इण्डियन‘ इसकी प्रासंगिकता को आज भी उजागर करती है। अभिव्यक्ति को असहमति से जोड़ना उतना ही समुचित है जितना की सहमति से, जिसकी इजाजत संविधान भी देता है और औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में यही सब हासिल करने के लिए वर्शों संघर्श किया गया। दरअसल सहमति और असहमति लोकतंत्र की दो खूबसूरत औजार हैं। एक तभी बेहतर होता है जब दूसरा सक्रिय होता है और जब देष में प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूती के साथ लोकहित की जद्द में अन्तिम व्यक्ति भी षामिल होता है तो देष का नागरिक असहमति से सहमति की ओर स्वयं गमन कर लेता है। जाहिर है असहमतियों का दमन लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है। एक सभ्य और सहिश्णु समाज के निर्माण के लिहाज़ से असहमतियों को भी स्थान मिलना चाहिए।
हालिया परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीष न्यायमूर्ति डी.वाई चन्द्रचूड़ ने असहमतियों के दमन के संदर्भ में जो टिप्पणी की, वह न केवल लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत करने वाली है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को भी नया आसमान देने वाला है। गौरतलब है कि अमेरिकन बार एसोसिएषन, सोसायटी फाॅर इण्डियन लाॅ फर्मस और चार्टड इंस्टिट्यूट आॅफ आर्बिट्रेटर्स द्वारा आयोजित भारत-अमेरिका कानूनी सम्बंधों पर साझा ग्रीश्मकालीन सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि नागरिक असहमतियों को दबाने के लिए आतंकवाद विरोधी कानूनों या आपराधिक अधिनियमों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जाहिर है इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के भीतर असहमति इसकी विषेशता और महत्ता है और संसदीय प्रणाली को आदर्ष से लबालब करना है तो असहमतियों को भी जगह देना होगा। न्यायमूर्ति ने यह भी कहा है कि हमारी अदालतों को यह निष्चित करना चाहिए कि वे नागरिकों को आजादी से वंचित करने के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति बनी रहें। यहां स्पश्ट कर दें कि सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है। वाक् एवं अभिव्यक्ति समेत कई मूल अधिकार नागरिकों और व्यक्तियों को मिले हैं। किसी भी प्रसंग या विशय पर सहमत या असहमत होना यह उनका अधिकार है। मूल अधिकारों के दमन होने की स्थिति में अनुच्छेद 13 के अंतर्गत न्यायिक पुर्नविलोकन के तहत लोगों को सर्वोच्च न्यायालय रक्षा कवच देता है। स्पश्ट है कि विधायिका या न्यायपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकार चोटिल कर सकती हैं मगर न्यायपालिका न केवल रक्षा करती है बल्कि एक सजग प्रहरी की भूमिका भी निभाती है।
भारत में कानून का षासन है और कानून के समक्ष सभी समान हैं साथ ही यहां के लोकतंत्र ने भी एक लम्बा सफर तय किया है। लोकतंत्र में विचार हमेषा स्थिर रहें ऐसा जरूरी नहीं है। षासन के कामकाज और स्थिति के अनुपात में नागरिकों के विचार में भी उथल-पुथल आता है। असहमति भी हो सकती है मगर इसका तात्पर्य न तो अपराध है और न ही राजद्रोह है। देखा जाये तो सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कह चुका है कि सरकार से असहमत होना राश्ट्र से विरोध नहीं है। कानून का राज कायम करने के लिए यह जरूरी है कि लोकतंत्र की मर्यादा अक्षुण्ण बनाये रखा जाये। गौरतलब है कि लोकतांत्रिक देष मसलन भारत में न्याय की अन्तिम आवाज अदालत ही होती है। वाक् एवं अभिव्यक्ति की क्या सीमा हो और असहमति का क्या स्तर हो इसका भी चिंतन और मनन होना चाहिए। वैसे संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कुछ अभिव्यक्तियों में निर्बन्धन की बात है। मौजूदा समय में वाक् एवं अभिव्यक्ति के कई आयाम देखे जा सकते हैं। इंटरनेट के इस युग में सोषल मीडिया जिस तरह से पहुंच में है वह अभिव्यक्ति की असीम ताकत बन गयी है। इसकी अभिव्यक्ति की सीमा को लेकर कई बार सरकार भी असमंजस में रही है और इस पर आंषिक निर्बन्धन का भी संदर्भ प्रकाष में आते रहे हैं। हालांकि इस पर हुआ कुछ नहीं और यह मीडिया बिना रोक-टोक अनवरत् जारी है।
कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल भी किया है। मगर कई ऐसे भी हैं जिन्होंने न्यायोचित असहमति जतायी और उन्हें न्याय के पचड़े में डाल दिया गया। और ऐसे कई उदाहरण भी हैं जहां पत्रकारिता के सटीकपन के चलते उन पर आपराधिक आरोप लगाये गये हैं। हालांकि यह सब पड़ताल का विशय है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ सिंह अर्नब गोस्वामी मामले में अपने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि आतंकवाद विरोधी कानून सहित आपराधिक कानून, नागरिकों का असंतोश या उत्पीड़न को दबाने के लिए दुरूपयोग नहीं किया जा सकता। एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता का हनन होना काफी ज्यादा है। वैसे देखा जाये तो असहमतियां लोकतंत्र के प्रति निश्ठा का ही एक संदर्भ है बषर्ते इसके सहारे राश्ट्र विरोधी गतिविधियों को मौका नहीं मिलना चाहिए। सरकारें आती और जाती रहेंगी मगर लोकतंत्र कायम रहना चाहिए। संविधान के निहित मापदण्ड और न्याय व्यवस्था का विस्तार सघनता से बना रहना चाहिए। कानून की आड़ में असहमति का दम घोटना उचित नहीं है। बल्कि असहमति से प्रभावित होकर जन सषक्तिकरण व लोक कल्याण के हित में सुषासनिक पहल को मजबूत करना चाहिए यही राश्ट्र विकास का षस्त्र भी है और षास्त्र भी।
14 जुलाई, 2021
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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