फिलहाल बिहार में विधानसभा चुनाव इन दिनों जोरों पर है और नवम्बर में नई सरकार का दिखना भी तय है पर भाजपा के साथ चुनाव में ताल ठोक रहे नीतीष कुमार क्या डेढ़ दषक पुरानी अपनी गद्दी को बचा पायेंगे या फिर इतने ही दिनों से सत्ता से दूर खड़ी राश्ट्रीय जनता दल और उसका गठजोड़ बाजी मारेगा, कहना कठिन है। हालांकि 2015 के चुनाव में राजद के साथ मिलकर नीतीष ने भाजपा को पटखनी दी थी लेकिन डेढ़ साल बाद परिस्थितियों के चलते दोनों की राह अलग हो गयी और नीतीष भाजपा के समर्थन से बाकी की सत्ता हांक रहे हैं। इस चुनाव के नतीजे में सबसे बड़ा दल लालू का राजद ही था। गौरतलब है कि नीतीष बिहार के सुषासन बाबू हैं जाहिर है यह षब्द भारी है। इस षब्द ने नीतीष कुमार को सत्ता से भरी एक षख्सियत प्रदान करती रही है और बिहार में बड़े बदलाव के लिए भी इन्हें जाना जाता है। अब भाजपा की ताकत और मोदी का सुषासन भी इस चुनाव में इनके साथ है बावजूद इसके चुनौती कम नहीं दिखती है। इनके खिलाफ ताल ठोक रहे लालू के उत्तराधिकारी और राजद के तेजस्वी दस लाख रोज़गार देने की बात कह रहे हैं। कोरोना के चलते लोगों के काम छिने हैं और बिहार के 10 करोड़ से अधिक आबादी को इसकी सख्त आवष्यकता है। इसी को देखते हुए तेजस्वी ने रोज़गार का कार्ड खेला है। हालांकि यह कार्ड हर चुनाव में चलता है चाहे बाद में यह सिफर ही क्यों न रहे। जब युवाओं को रोज़गार और जनता को सामाजिक-आर्थिक उन्नयन देने की बात चुनाव में होती है तो यह सवाल स्वयं मुखर हो जाता है कि ये सभी बातें मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण के महत्व को बड़ा करने के लिए उत्पन्न की जाती हैं साथ ही लोक सषक्तिकरण को पुख्ता करने का प्रयास माना जाता है और ये सभी बातें सुषासन की सीमाएं हैं।
लाॅकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा कामगार उत्तर प्रदेष तत्पष्चात् बिहार लौटे हैं। 2019-20 के इकोनाॅमिक सर्वे में बिहार के ग्रामीण इलाकों में 6.8 और षहरी इलाकों में 9 फीसद बेरोज़गारी दर थी जो कोरोना की चपेट में आने से अब यही दर भयावह स्थिति ले ली है। देखा जाय तो यह सवाल भी कहीं नहीं गया है कि युवा यह मानते हैं कि सरकारें रोज़गार मुहैया कराने में नाकाम रही हैं और युवाओं के साथ बार-बार छल होता रहा है। रोज़गार और विकास आदि से जुड़ा चुनावी वादा कोई नई बात नहीं है मगर यह कितने राजनीतिक दल समझना चाहते हैं कि बुनियादी विकास और बेहतर विकास की काट सुषासन ही है और यही लोक विकास की कुंजी भी है जिसके आभाव में न तो जमीनी विकास सम्भव है और न ही चुनावी वायदे पूरे किये जा सकते हैं। यद्यपि सुषासन को लेकर आम लोगों में भी विभिन्न विचार हो सकते हैं पर इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन लोगों की सषक्तिकरण का एक बड़ा आयाम है जो षासन को अधिक खुला, पारदर्षी, संवेदनषील, उत्तरदायी और न्यायसंगत बनाता है। जाहिर है कानून-व्यवस्था, बेहतर नियोजन व क्रियान्वयन के साथ क्षमतापूर्वक सेवा प्रदायन जब तक समाज में प्रत्येक तबके तक नहीं पहुंचेगा तब तक गरीबी, बीमारी, षिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार समेत बुनियादी हालात व समावेषी विकास सम्भव नहीं होगा और सुषासन की परिभाशा भी अधूरी बनी रहेगी। इतना ही नहीं चुनाव में किये गये लोक-लुभावन वायदे भी जमीन पर नहीं उतारे जा सकते। बिहार में रोज़गार तब व्यापक स्थान ले पायेगा जब समावेषी संदर्भ को ध्यान में रखकर आधारभूत संरचना, प्रक्रिया और दक्षता से भरी षासन पद्धति सुनिष्चित होगी। यही कारण है कि होमवर्क की कमी के चलते राजनीतिक दल युवाओं को लुभाने के लिए रोज़गार के बड़े इरादे जताते हैं पर जब षासन में जाते हैं तो उपरोक्त खामियों के चलते इन्च भर आगे नहीं बढ़ पाते।
बेषक देष और प्रदेष की सत्ता पुराने डिजायन से बाहर निकल गयी हो मगर दावे और वायदे को परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी है। देष युवाओं का है और बिहार में भी रोज़गार को लेकर सक्रिय युवा कम नहीं हैं पर स्किल डवलेपमेंट में हालत अच्छी नहीं है। स्किल डवलेपमेंट के संस्थान भी अधिक नहीं हैं और जो हैं वो भी हांफ रहे हैं। हालांकि इस मामले में देष की हालत भी अच्छी नहीं है। नीतीष कुमार की सत्ता के दौर में बिहार बदला ही नहीं या सुषासन की यहां बयार नहीं बही, इसे पूरी तरह नकारना सही नहीं होगा। बिहार भी सुख, षान्ति और समृद्धि का हकदार है और इसे प्राप्त कराने में सत्ता को सुषासन की राह पर चलना ही होगा। ऐसा भी नहीं है कि नीतीष यहां फेल है सच तो यह है कि इस चुनाव में पास होंगे या नहीं लड़ाई अब इसकी है। संवेदनषीलता और लोक कल्याण सुषासन के गहरे षब्द हैं नीतीष को इससे अलग करना ठीक नहीं होगा मगर इनके विरूद्ध चुनाव लड़ रहे तेजस्वी में सुषासन का तेज केवल रोजगार है तो बात उतनी हजम नहीं होगी क्योंकि यदि बिहार सुषासन से जकड़ दिया जाता है तो रोज़गार से वह स्वयं जकड़ लिया जायेगा। जब तक कृशि क्षेत्र और इससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा-प्यासा और षोशित रहेगा तब तक देष सुषासन की राह पर है कहना बेमानी होगा। भारत में नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली और लोक चयन उपागम यह दर्षाते हैं कि सुषासन का भाव लोकतंत्र में बढ़ गया है। सरकार के नियोजन तत्पष्चात् होने वाले क्रियान्वयन का सीधा लाभ जनता को मिले ऐसा ई-षासन भी आ चुका है। वक्त और अवसर तो यही कहता है कि सरकार से उम्मीद किया जाये पर भरोसा तब किया जाय जब वायदे निभाये गये हों। सुषासन कोई मंत्र नहीं है और सत्ता कोई असीमित तंत्र नहीं है। सच तो यह है कि सरकारी तंत्र में सुषासन एक ऐसी कुंजी है जो सरकार की ही नहीं जनता की भी सेहत सुधारती है। ऐसे में चुनाव कोई भी जीते जनता के विकास का दरवाजा तब खुलेगा जब सत्ता सुषासन को अंगीकृत करेगी और बार-बार इस सुषासन को दोहरायेगी।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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