Monday, November 9, 2020

दिल्ली के आकाश में तबाही का मंज़र

एक तरफ कोरोना ने सांस को मुसीबत में डाला है तो दूसरी तरफ दूशित हवा ने दिल्ली को घोर संकट में डाल दिया है। जब हम सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का षिकार हो जाय तो वातावरण में ऐसा ही धुंध छाता है जैसा इन दिनों दिल्ली में छाया है। मनुश्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है पर विडम्बना यह है कि भौतिक मनुश्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आकाष है। दिल्ली एनसीआर की हवा दिन ब दिन जहरीली होती जा रही है। जो हाल दिल्ली का दीपावली के बाद होता था वह सप्ताह भर पहले ही हो गया है। दीपावली के बाद यदि पटाखों पर नियंत्रण न रखा गया तो सम्भव है सांस लेना दूभर हो जायेगा। हरियाणा और पंजाब में जलाई जाने वाली पराली प्रदूशण की बड़ी वजह रही हैं मगर केन्द्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड का मानना है कि पंजाब में पराली जलाने की घटनायें कम हुई हैं हालांकि पराली जलाई जा रही है। गौरतलब है कि पराली जलाने से एक्यूआई प्रभावित होती है। दरअसल एक्यूआई हवा के गुणवत्ता का एक पैमाना है जिससे आंका जा सकता है कि स्थिति क्या है। जब यही एक्यूआई 301 से 400 के बीच हो तो स्थिति बेहद खराब हो जाती है और यदि आंकड़ा 500 तक पहुंच गया तो हालत गम्भीर हो जाती है। ऐसे में सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से बढ़ोत्तरी हो जाती है। हांलाकि दिल्ली के अलग-अलग जगहों पर इसका पैमाना अलग-अलग है। मगर स्थिति बेहद खराब और गम्भीर के बीच बनी हुई है। साल 2016 में दिल्ली का दम बहुत घुटा था तब 17 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली बदहाल थी। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है जबकि इस बार तो कोरोना के चलते सांस पहले से ही समस्या में है और अभी दिल्ली में कोरोना की तीसरी लहर बतायी जा रही है। ऐसे में वहां का आसमान में इस कदर प्रदूशण का होना जिन्दगी के लिए बेहद खराब कहा जायेगा।

जब स्थिति बिगड़ती है तो धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता ले लेती हैं। 4 साल पहले दिल्ली में धुंध की स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय को यहां तक कहना पड़ा था कि यह किसी गैस चैम्बर में रहने जैसा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। धुंध की वजह से सड़कें साफ नहीं दिखती जिससे एक्सिडेंट होने के खतरे भी बढ़ जाते हैं। हालांकि दिल्ली की हवा भी गुणवत्ता में बुधवार को थोड़ा सुधार हुआ लेकिन हवा की गुणवत्ता खराब की श्रेणी में ही है। गौरतलब है कि हवा गति बढ़ने के कारण एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) खराब श्रेणी में था। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार होता रहा है। 

देखा जाय तो प्रदूशण के चलते आपे से बाहर हो जाने वाली दिल्ली में सियासत भी रंग बदलती रहती है। आरोप-प्रत्यारोप भी खूब चलते हैं। एतियाती उपाय के तौर पर कह दिया जाता है कि जितना हो सके लोग घरों में रहें। सभी सामान्य रिपोर्टों का निश्कर्श भी यही रहता है कि दिल्ली का प्रदूशण अपनी उस सीमा पर चला गया है जहां से मनुश्य की सहनषीलता जवाब दे देती है। यह महज़ आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि सबके लिए डरावनी स्थिति पैदा करने वाला भी है। दिल्ली सरकार के मुखिया केजरीवाल प्रदूशण को आपातकालीन स्थिति की बात पहले भी कह चुके हैं। बेषक केजरीवाल का ऐसे मामलों में प्रयास कहीं अधिक सराहनीय रहता है मगर एक सरकार के तौर पर उनकी भी सीमाएं हैं। नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूशण के मामले को लेकर दिल्ली सरकार को पहले भी फटकार लगाई है और स्टेटस रिपोर्ट की बात होती रही है। फिलहाल सवाल उठता है कि पर्यावरण की स्वच्छता को लेकर क्या केवल दिल्ली सरकार की लानत-मलानत से पूरा समाधान मिलेगा। प्रदूशण को फैलाने वाले जिम्मेदार लोग कहां गये इस प्रष्न की भी तलाष होनी चाहिए। 

यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। एनसीआर में हवा की गुणवत्ता सुधरने के बजाय हर साल क्यों बिगड़ती है इस पर सिरे से प्रयास करने की आवष्यकता है। जब इस बार पराली कम जलाई गयी तब भी बात क्यों बिगड़ी यह सोचने वाली बात है। साथ ही दिल्ली सरकार आॅड-ईवन का फाॅर्मूला भी अपनाती रही है। हो न हो इसकी जिम्मेदारी तो मानव की ही है परन्तु नियंत्रण के मामले में सरकार पल्ला नहीं झाड़ सकती है। ऐसे में हवाओं में जहर न घुल पाये इसकी जिम्मेदारी सभी की तय होनी चाहिए। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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