आज 5 जुलाई है और नई सरकार अपने नये बजट को नये क्लेवर-फ्लेवर के साथ संसद में पेष करेगी। इसके पहले इसी साल 1 फरवरी को कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूश गोयल ने अन्तरिम बजट पेष किया था हालांकि वह वार्शिक बजट की भांति ही रहा जो लगभग 28 लाख करोड़ का था। बीते 30 मई को नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरी पारी की षुरूआत की और वित्त मंत्री के रूप में निर्मला सीतारमण को जिम्मेदारी दी जो इसके पहले रक्षा मंत्री रह चुकी हैं। हर बजट की अपनी एक चुनौती रही है पर नये भारत का सपना देखने वाली नई सरकार के सामने चुनौती सबका साथ, सबका विकास और सबका विष्वास के नाते यहां दर बढ़ी हुई प्रतीत होती है। निर्मला सीतारमण की परेषानी यह है कि मौजूदा सरकारी वित्त की हालत कुछ हद तक खराब है। गौरतलब है कि आम बजट के दो आयाम होते हैं एक यह कि मौजूदा अर्थव्यवस्था की समस्याओं से निपटने की राह खोजना, दूसरा नई योजनाओं के लिए संसाधन जुटाना यहां सरकार के सामने यदि कोई बड़ी चुनौती है तो वह घटती हुई विकास दर है। जीएसटी के चलते भी नुकसान तो हुआ है। 1 जुलाई 2017 से अब तक 24 महीने केवल 6 बार ही ऐसा रहा जब जीएसटी में उगाही का आंकड़ा एक लाख करोड़ रूपए से अधिक हुआ जबकि सरकार ने अप्रत्यक्ष कर से एक साल में 13 लाख करोड़ रूपए जुटाने का लक्ष्य रखा है। पिछले 8 तिमाही की पड़ताल बताती है कि विकास दर भी कम हो रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था में 45 फीसदी हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र का है। ऐसे में इसका असर संगठित क्षेत्र पर पड़ता है जिसका सरकार के पास कोई इलाज नहीं। कहने के लिए तो मौजूदा विकास दर 7.3 है पर लक्ष्य से यह दूर है।
हालांकि इसकी आहट वित्त वर्श के षुरूआत में ही दिख गयी थी। ऐसे में सबके कल्याण से युक्त बजट पेष करना निर्मला सीतारमण के लिए खासे मषक्कत का काम होगा। यदि पिछले वित्त वर्श पर दृश्टि डाली जाये तो सरकार काॅरपोरेषन टैक्स, आय कर, जीएसटी, उत्पाद षुल्क और सीमा षुल्क से करीब 21.26 लाख करोड़ रूपया जुटाने की आषा रख रही थी पर यह 19.30 लाख करोड़ पर ही आकर रूक गया जो सीधे तौर पर लगभग 2 लाख करोड़ रूपए कम की वसूली का संकेत देता है और यह कुल योग का प्रतिषत में यह 9 फीसदी कम है। आगामी बजट पर इसका असर न हो ऐसा हो नहीं सकता। कई आर्थिक संकेतों से भी जैसे गाड़ी, दोपहिया वाहनों की बिक्री पर दृश्टि डालें तो भी यह स्पश्ट होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तुलनात्मक कमजोर हुई है। ऐसे में सवाल है कि क्या सरकार करों में अधिक छूट दे पायेगी। दूसरा यह कि यदि सरकार का अंतरिम बजट में जिसे 1 बीते एक फरवरी को पेष किया गया था अनुमानित आय कर को कमाना है तो साल 2019-20 में एकत्र किये गये आयकर को 2018-19 की तुलना में 34 फीसदी अधिक करना होगा। ऐसे में दुविधा बड़ी हो जाती है। षिक्षा, स्वास्थ जैसे क्षेत्रों में रोजगार सृजन की अपार सम्भावनाएं हैं परन्तु यह तभी बढ़ेगा जब सरकार इस पर निवेष बढ़ायेगी। जीडीपी का 6 फीसदी सार्वजनिक षिक्षा पर और 3 प्रतिषत स्वास्थ सेवाओं पर खर्च हो तो स्थिति बन सकती है। बजट में इस पर विषेश ध्यान जरूर होगा। बड़ा सवाल यह भी है कि सरकार आय के नये रास्ते बढ़ाये बिना यदि बजट को संभालने का प्रयास करेगी तो स्थिति उछाल वाली नहीं रहेगी। यह हमेषा रहा है कि यदि उगाही कम होगी तो राजकोशीय घाटा बढ़ेगा तत्पष्चात् बजटीय घाटा बढ़ना निष्चित है। ऐसे में सरकारें सबका कल्याण करने के मामले में कमजोर पड़ती हैं। हालांकि लोकतंत्र में घाटे का बजट अच्छा समझा जाता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में सम्बोधन के दौरान कहा था कि कृशि, विनिर्माण और निर्यात क्षेत्र पर विषेश तौर पर ध्यान देने की आवष्यकता है। नई सरकार के लिए मौजूदा कठिन आर्थिक परिस्थितियों में राजकोशीय घाटे के लक्ष्य को हासिल करने योग्य दायरे में स्वयं को रखकर बजट तैयार करने की बड़ी चुनौती होगी। वर्श 2018-19 के बजट में अनुमानित राजकोशीय घाटा 3.4 फीसद के लिए सरकार को कड़ी मषक्कत करनी पड़ी थी। मौजूदा समय में विकास दर 7.3 फीसदी है। विष्व बैंक आगे इसे बेहतर स्थिति में देखता है जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक विकास दर की स्थिति कमजोर पाता है। अभी हाल ही में रिज़र्व बैंक ने रेपो दर में कमी की जो 2010 के बाद सबसे कम के लिए जाना जाता है। इससे यह अनुमान है कि कम ब्याज पर ऋण मिलेगा ओर देष त्वरित विकास की राह पर आगे बढ़ेगा। इसके साथ ही बैंकों में ट्रांजेक्षन को लेकर लगने वाले षुल्क को 1 जुलाई से खत्म कर दिया गया। ऐसा करने से कैषलेस इकोनाॅमी को बढ़ावा मिलेगा साथ ही पारदर्षिता भी आयेगी। मूल चिंता यह है कि अर्थव्यवस्था को उछाल देने के लिए इन्कम टैक्स की सीमा बढ़ाई जा सकती है। एक तरफ आर्थिक सुस्ती तो दूसरी तरफ सरकार द्वारा जनता से किये गये वायदों को पूरा करना। सभी किसानों को 6 हजार रूपए की सम्मान देने का वादा पूरा करना, ढांचागत सुविधाओं और कृशि क्षेत्रों में अगले कुछ सालों के दौरान भारी निवेष की घोशणा का असर भी बजट में रहेगा। न्यूनतम सर्मथन मूल्य कैसे बेहतर और 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी वाले संकल्प की छाया भी बजट पर रहेगी। गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों और बैंक क्षेत्र का संकट समाप्त होता नहीं दिख रहा है। साढ़े दस लाख करोड़ का एनपीए बैंकों के लिए मुसीबत बना हुआ है। सरकार ने इसे कम करने के कदम उठाये हैं पर त्वरित समाधान नहीं दिखाई देता। निजी क्षेत्र की धारणा भी बजट पर टिकती है। उनकी उम्मीदों पर भी खरा उतरना वित्तमंत्री के लिए एक चुनौती रहेगी।
केन्द्र सरकार द्वारा सालाना पेष किया जाने वाला बजट उसका आय-व्यय सम्बंधित दस्तावेज तो है पर यह देष के लिए एक आईना भी होता है। समृद्ध से लेकर गरीबों तक की आस बजट से ही रहती है। अमीरों से ज्यादा कर वसूलकर गरीबों के कल्याण में खर्च करने का सफल प्रयोग कई देषों में होता है। भारत जीडीपी का औसतन 16.7 फीसदी ही टैक्स जुटा पाता जो एक खराब स्थिति को दर्षाता है। विष्लेशण तो यह भी मानते हैं कि इस मामले में भारत की क्षमता 53 फीसदी की है स्पश्ट है कि देष में कराधान प्रणाली बहुत प्रभावषाली नहीं है। कुल करों में प्रत्यक्ष कर की एक-तिहाई ही हिस्सेदारी है। दक्षिण अफ्रीका जैसे देष में जीडीपी का करीब 28 फीसदी कर के माध्यम से जिसमें 50 फीसदी प्रत्यक्ष कर होता है। खास यह भी है कि ऐसे देष जीडीपी का 6 फीसदी से अधिक षिक्षा पर और लगभग 4 फीसदी स्वास्थ पर खर्च करते हैं। स्पश्ट है कि षिक्षा और मानव के स्वास्थ का वहां क्या मोल है। षिक्षा, स्वास्थ और सामाजिक सुरक्षा पर किया जाने वाला खर्च आवष्यक है। पिछले 30 सालों के दौरान 150 देषों में जन सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा में किये गये निवेष से असमानता दूर किये जाने का उदाहरण सामने है। भारत में अभी यहां खर्च मामूली ही होता है 3 फीसदी षिक्षा पर और 1 फीसदी से थोड़ा ही अधिक स्वास्थ पर खर्च होना यह इषारा करता है कि इस बार यह क्षेत्र बजट के केन्द्र में रहेगा। देष में अमीरों-गरीबों के बीच खाई पाटने के लिए भी बजट में कदम जरूर उठेंगे। सम्पत्ति कर के रूप में नया टैक्स भी दिख सकता है जो धनाढ्यों पर असर डालेगा। भूमि सुधार, श्रम सुधार और वित्तीय क्षेत्र में सुधार आदि की परछाई से यह बजट युक्त रहेगा जो भारत को दिषा देने में काम आ सकता है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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