सामान्यतः भारत में चुनाव दलीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। प्रत्येक दल अपनी विचारधारा तथा अपने कार्यक्रम मतदाताओं के समक्ष रखते हैं। देखा जाये तो प्रत्याषियों का चुनाव व्यक्तिगत गुण-दोश के अलावा दलीय आधार पर भी किया जाता रहा है। मगर चुनाव जीतकर विधायक या संसद बनने वाले नेता दूसरी विचारधारा से प्रेरित होकर दल बदलने वाली भूमिका में भी खूब उतरते रहे है। इसी को देखते हुए 52वें संविधान संषोधन के अन्र्तगत 1985 में दलबदल कानून लाया गया। समय के साथ इसे और सषक्त बनाने के लिए 2003 में तुलनात्मक मजबूती दी गई। इस कानून का उल्लेख 10वीं अनुसूची में देखा जा सकता है। देष की सियासत में दलबदल उतनी ही पुरानी बीमारी है जितना पुराना लोकतंत्र। इसकी कहानी 1950 से ही षुरू हो जाती है जब उत्तर प्रदेष में कांगे्रस के 23 विधायकों ने पार्टी से अलग होकर जन कांग्रेस बना लिया था। भारतीय राजनीति में जब तक काग्रेस का वर्चस्व रहा, दलबदल की छिटपुट घटनाएं ही दर्ज की गई। 1967 के आम चुनाव के बाद देष में दलबदल का जो दौर प्रारम्भ हुआ, वह आज दलबदल विरोधी अधिनियम लागू होने के बाद भी षायद समाप्त नहीं हुआ। गौरतलब है कि बीते 14 जुलाई को गोवा विधानसभा के दस कांग्रेसी विधायक भाजपा में षामिल हुए। ऐसे में अब भाजपा 27 विधायकों के साथ 40 के मुकाबले पूरी तरह बहुमत में है। कर्नाटक में भी एक पखवाड़े से सियासी नाटक जारी है। यहां जेडीएस और कांग्रेस वाली सरकार 15 विधायकों के इस्तीफें के कारण कुमार स्वामी कि 14 महीनें पुरानी सरकार खतरें में है और 105 सीटों वाली भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में दिख रही है। हालांकि यहां विधायकों ने दल-बदल नहीं किया बल्कि इस्तीफा देकर स्वयं दरबदर हो गए। पर लकीर बताती है कि एक दल को सत्ता तक पहुंचाने के लिए यहां दूसरे दल ने परोक्ष मदद की कोषिष की है।
षैक्षणिक परिपेक्ष्य में देखा जाए तो दलबदल भारतीय लोकतंत्र में बीते सात दषकों से बेजोड़ समस्या के रूप आज भी बना हुआ है। निदान हेतु दलबदल विधि लायी गई पर चुनौतियां बरकरार रही। दलबदल वैसे पहली बड़ी घटना 1979 में और दूसरी अद्भूत घटना 1990 में देखी जा सकती है। उसके बाद भी क्रमिक तौर पर राज्यों में दलबदल की घटनाएं घटती रही, गोवा इसी घटना का हालिया स्वरूप है। हालांकि इसके प्रति संवेदनषीलता 80 के दषक में उजागर हुई। इसे रोकने के लिए सबसे पहले लोकसभा में एक समिति के गठन का सुझाव श्री वेंकट सुबैया द्वारा लाया गया। साल 1973 और 1978 में इस आषय का एक संषोधन विधायक भी लाने का प्रयास हुआ पर संसद में जरूरी बहुमत नहीं मिल पाया। जब 1985 में प्रचंड बहुमत के साथ राजीव गांधी की सरकार आयी तब दलबदल विधेयक, को कानूनी रूप मिला। जिसके लिए 52वां संविधान संषोधन किया गया। इसी के तहत संविधान के अनुच्छेद 102 तथा 191 में परिवर्तन किया गया और 10वीं अनुसूची जोड़ी गयी। उक्त से यह बात पोख्ता हो गयी कि देष में अब दलबदल पर विराम लग जाएगा पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि इस कानून ने फुटकर दलबदल पर रोक जरूर लगा दी थी। दरअसल दलबदल को लेकर बनाया गया ये कानून समय के साथ सषक्त नहीं रहा ऐसे में एक बार फिर इसमें संषोधन कर इसे मजबूती देने का प्रयास किया गया।
1985 में जो कानून बने उसमें यह था कि यदि कोई सदस्य राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है, बिना अनुमति के सदन में मतदान करता है या अनुपस्थित रहता है और उसे 15 दिन के भीतर दल ने माफ नहीं किया है तो सदस्यता जा सकती है। इसके अलावा यदि कोई किसी अन्य दल में षामिल हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है। इसी कानून मे यह भी है यदि दल के विभाजन के फलस्वरूप यदि एक-तिहाई सदस्य सदस्यता छोड़ देते है तो दलबदल कानून उन पर लागू नहीं होगा। इसके अतिरिक्त भी दो और बिंदु है जिसमें एक यह कि मूल राजनीतिक दल का किसी अन्य दल में विलय हो जाये और उसके दो-तिहाई सदस्य इसकी स्वीकृति दे दें। दूसरे यदि कोई सदस्य सदन का अध्यक्ष या उपाध्यक्ष निर्वाचित होने पर अपने दल की सदस्यता छोड़ देता है तो उस पर यह कानून लागू नहीं होगा। देखा जाये तो छोटे-छोटे राजनीतिक दलो के उदय के चलते 90 के दषक के बाद दलबदल को कहीं अधिक बढ़ावा मिला और दलबदल विराधी विधि खामियों से ग्रस्त हो गयी जिसे देखते हुए 2003 में 91वें संविधान संषोधन के तहत कुछ अमूल-चूल परिर्वन कियें गये। दल विभाजन की मान्यता को अब समाप्त कर दिया गया और एक-तिहाई सदस्य की दल छोड़ने वाली मान्यता को दो-तिहाई में तब्दील कर दिया गया। पर दल के विलय के सम्बन्ध में यह कानून अभी भी मौन है। ऐसे में इस कानून में अभी भी कई त्रुटियां है जिनमें स्थिति को देखतें हुए सुधार की अपेक्षा की जा सकती है।
दरअसल दलबदल मुख्यतः राजनीतिक लाभ या सत्ता प्राप्त करने के लिए किया जाता रहा है। इतना तो स्पश्ट है कि दलबदल से राजनीतिक ब्लैकमेल का कारोबार भी होता है और इससे कहीं न कहीं भ्रश्टाचार को भी ंबढ़ावा मिलता है। इतना ही नहीं जो राजनीतिक अस्थिरता इससेे पनपती है उससे लोकतंत्र भी घाटे में जाता है, मतदाताओं के साथ भी छल होता है साथ ही दलबदल कानून की चपेट में आने से जब सदस्यता निरस्त होती है तो एक नया चुनाव भी सिर पर मंडराने लगता है इससे देष भी आर्थिक तौर पर खोखला होता है। भारतीय संविधान में संसदीय षासन प्रणाली अपनायी गयी है तथा इसके लिए बहुदलीय पद्धति को अपनाया गया पर दलबदल के कारण एक अच्छी प्रणाली को कुछ चंद महत्वकांक्षी नेताओं ने इसे मुसीबत में डाल दिया है। खास यह भी है कि अब छोटे दल ही दलबदल नही कर रहे हैं बल्कि सत्ता की चाहत के चलते राश्ट्रीय दल भी इस दल-दल में उतरने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। परेषानी यह है की कौन सा कानून लाया जाए जिससें इस बीमारी का इलाज किया जा सकें। फिलहाल स्वतंत्र भारत के राजनीतिक जीवन में कई ऐसे दृश्टांत आये है। जब दल के कारण लोकतंत्र कलंकित हुआ है। अब लोकतंत्र के 7 दषक बीत चुके है ऐसे में इसकी गरिमा का ध्यान रखते हुए इसकी तस्वीर को उजली बनायें रखने के लिए सफेद पोष धारकों को एक बार अपने भीतर झांकने चाहिए।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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