Tuesday, September 24, 2019

कानून के बावजूद रुका नहीं दलबदल

सामान्यतः भारत में चुनाव दलीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। प्रत्येक दल अपनी विचारधारा तथा अपने कार्यक्रम मतदाताओं के समक्ष रखते हैं। देखा जाये तो  प्रत्याषियों का चुनाव व्यक्तिगत गुण-दोश के अलावा दलीय आधार पर भी किया जाता रहा है। मगर चुनाव जीतकर विधायक या संसद बनने वाले नेता दूसरी विचारधारा से प्रेरित होकर दल बदलने वाली भूमिका में भी खूब उतरते रहे है। इसी को देखते हुए 52वें संविधान संषोधन के अन्र्तगत 1985 में दलबदल कानून लाया गया। समय के साथ इसे और सषक्त बनाने के लिए 2003 में तुलनात्मक मजबूती दी गई। इस कानून का उल्लेख 10वीं अनुसूची में देखा जा सकता है। देष की सियासत में दलबदल उतनी ही पुरानी बीमारी है जितना पुराना लोकतंत्र। इसकी कहानी 1950 से ही षुरू हो जाती है जब उत्तर प्रदेष में कांगे्रस के 23 विधायकों ने पार्टी से अलग होकर जन कांग्रेस बना लिया था। भारतीय राजनीति में जब तक काग्रेस का वर्चस्व रहा, दलबदल की छिटपुट घटनाएं ही दर्ज की गई। 1967 के आम चुनाव के बाद देष में दलबदल का जो दौर प्रारम्भ हुआ, वह आज दलबदल विरोधी अधिनियम लागू होने के बाद भी षायद समाप्त नहीं हुआ। गौरतलब है कि बीते 14 जुलाई को गोवा विधानसभा के दस कांग्रेसी विधायक भाजपा में षामिल हुए। ऐसे में अब भाजपा 27 विधायकों के साथ 40 के मुकाबले पूरी तरह बहुमत में है। कर्नाटक में भी एक पखवाड़े से सियासी नाटक जारी है। यहां जेडीएस और कांग्रेस वाली सरकार 15 विधायकों के इस्तीफें के कारण कुमार स्वामी कि 14 महीनें पुरानी सरकार खतरें में है और 105 सीटों वाली भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में दिख रही है। हालांकि यहां विधायकों ने दल-बदल नहीं किया बल्कि इस्तीफा देकर स्वयं दरबदर हो गए। पर लकीर बताती है कि एक दल को सत्ता तक पहुंचाने के लिए यहां दूसरे दल ने परोक्ष मदद की कोषिष की है।
       षैक्षणिक परिपेक्ष्य में देखा जाए तो दलबदल भारतीय लोकतंत्र में बीते सात दषकों से बेजोड़ समस्या के रूप आज भी बना हुआ है। निदान हेतु दलबदल विधि लायी गई पर चुनौतियां बरकरार रही। दलबदल वैसे पहली बड़ी घटना 1979 में और दूसरी अद्भूत घटना 1990 में देखी जा सकती है। उसके बाद भी क्रमिक तौर पर राज्यों में दलबदल की घटनाएं घटती रही, गोवा इसी घटना का हालिया स्वरूप है। हालांकि इसके प्रति संवेदनषीलता 80 के दषक में उजागर हुई। इसे रोकने के लिए सबसे पहले लोकसभा में एक समिति के गठन का सुझाव श्री वेंकट सुबैया द्वारा लाया गया। साल 1973 और 1978 में इस आषय का एक संषोधन विधायक भी लाने का प्रयास हुआ पर संसद में जरूरी बहुमत नहीं मिल पाया। जब 1985 में प्रचंड  बहुमत के साथ राजीव गांधी की सरकार आयी तब दलबदल विधेयक, को कानूनी रूप मिला। जिसके लिए 52वां संविधान संषोधन किया गया। इसी के तहत संविधान के अनुच्छेद 102 तथा 191 में परिवर्तन किया गया और 10वीं अनुसूची जोड़ी गयी। उक्त से यह बात पोख्ता हो गयी कि देष में अब दलबदल पर विराम लग जाएगा पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि इस कानून ने फुटकर दलबदल पर रोक जरूर लगा दी थी। दरअसल दलबदल को लेकर बनाया गया ये कानून समय के साथ सषक्त नहीं रहा ऐसे में एक बार फिर इसमें संषोधन कर इसे मजबूती देने का प्रयास किया गया। 
1985 में जो कानून बने उसमें यह था कि यदि कोई सदस्य राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है, बिना अनुमति के सदन में मतदान करता है या अनुपस्थित रहता है और उसे 15 दिन के भीतर दल ने माफ नहीं किया है तो सदस्यता जा सकती है।  इसके अलावा यदि कोई किसी अन्य दल में षामिल हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है। इसी कानून मे यह भी है यदि दल के विभाजन के फलस्वरूप यदि एक-तिहाई सदस्य सदस्यता छोड़ देते है तो दलबदल कानून उन पर लागू नहीं होगा। इसके अतिरिक्त भी दो और बिंदु है जिसमें एक यह कि मूल राजनीतिक दल का किसी अन्य दल में विलय हो जाये और उसके दो-तिहाई सदस्य इसकी स्वीकृति दे दें।   दूसरे यदि कोई सदस्य सदन का अध्यक्ष या उपाध्यक्ष निर्वाचित होने पर अपने दल की सदस्यता छोड़ देता है तो उस पर यह कानून लागू नहीं होगा। देखा जाये तो छोटे-छोटे राजनीतिक दलो के उदय के चलते 90 के दषक के बाद दलबदल को कहीं अधिक बढ़ावा मिला और दलबदल विराधी विधि खामियों से ग्रस्त हो गयी जिसे देखते हुए 2003 में 91वें संविधान संषोधन के तहत कुछ अमूल-चूल परिर्वन कियें गये। दल विभाजन की मान्यता को अब समाप्त कर दिया गया और एक-तिहाई सदस्य की दल छोड़ने वाली मान्यता को दो-तिहाई में तब्दील कर दिया गया। पर दल के विलय के सम्बन्ध में यह कानून अभी भी मौन है। ऐसे में इस कानून में अभी भी कई त्रुटियां है जिनमें स्थिति को देखतें हुए सुधार की अपेक्षा की जा सकती है। 
दरअसल दलबदल मुख्यतः राजनीतिक लाभ या सत्ता प्राप्त करने के लिए किया जाता रहा है। इतना तो स्पश्ट है कि दलबदल से राजनीतिक ब्लैकमेल का कारोबार भी होता है और इससे कहीं न कहीं भ्रश्टाचार को भी ंबढ़ावा मिलता है। इतना ही नहीं जो राजनीतिक अस्थिरता इससेे पनपती है उससे लोकतंत्र भी घाटे में जाता है, मतदाताओं के साथ भी छल होता है साथ ही दलबदल कानून की चपेट में आने से जब सदस्यता  निरस्त होती है तो एक नया चुनाव भी सिर पर मंडराने लगता है इससे देष भी आर्थिक तौर पर खोखला होता है। भारतीय संविधान में संसदीय षासन प्रणाली अपनायी गयी है तथा इसके लिए बहुदलीय पद्धति को अपनाया गया पर दलबदल के कारण एक अच्छी प्रणाली को कुछ चंद महत्वकांक्षी नेताओं ने इसे मुसीबत में डाल दिया है। खास यह भी है कि अब छोटे दल ही दलबदल नही कर रहे हैं बल्कि सत्ता की चाहत के चलते राश्ट्रीय दल भी इस दल-दल में उतरने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। परेषानी यह है की कौन सा कानून लाया जाए जिससें इस बीमारी का इलाज किया जा सकें। फिलहाल स्वतंत्र भारत के राजनीतिक जीवन में कई ऐसे दृश्टांत आये है। जब दल के कारण लोकतंत्र कलंकित हुआ है। अब लोकतंत्र के 7 दषक बीत चुके है ऐसे में इसकी गरिमा का ध्यान रखते हुए इसकी तस्वीर को उजली बनायें रखने के लिए सफेद पोष धारकों को एक बार अपने भीतर झांकने चाहिए। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

अर्थ स्पष्ट है अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय के फैसले का

देखा जाय तो कुलभूशण जाधव के मामले में अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के फैसले का अर्थ बिल्कुल स्पश्ट है जिसके चलते पाकिस्तान बैकफुट पर है और भारत की कूटनीति फ्रंट पर। फैसले का अर्थ यह है कि पाकिस्तान मानवाधिकार और वियना समझौते का उल्लंघन करते हुए न केवल एक तरफा फैसला लिया बल्कि जाधव को फांसी की सजा देने पर तुला हुआ था। मई 2017 से जाधव को बचाने का अभियान अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय में चल रहा है। गौरतलब है कि उन्हीं दिनों अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय ने आष्वासन दिया था कि जल्द से जल्द इस मामले में अपना फैसला वह सुना देगा। बीते 17 जुलाई को जो फैसला आया तब दो साल से अधिक वक्त हो चुका था पर वह जाधव को राहत देने वाला था और काफी हद तक भारत की कूटनीति को भी इससे बल मिलता है। भारत की ओर से पैरवी कर रहे हरीष साल्वे ने सुनवाई के पहले दिन ही मई 2017 में अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय को यह आगाह कर दिया था कि फैसला आने से पहले पाकिस्तान जाधव को फांसी दे सकता है। ऐसे में इस मामले को गम्भीरता से लेना चाहिए। फिलहाल जाधव पर फैसले से पाकिस्तान एक बार फिर बेनकाब हुआ है। ध्यानतव्य हो कि अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के इस न्यायालय को मानने के लिए पाकिस्तान बाध्य नहीं है। हरीष साल्वे का मानना है कि वैसे तो पाकिस्तान इस दिषा में बढ़ेगा नहीं, यदि बढ़ता भी है तो संयुक्त राश्ट्र में मामला उठाने का विकल्प खुला हुआ है। गौरतलब है कि 16 जजों की बेंच में 15 ने फैसले के पक्ष में मत दिया जबकि एक ने विरोध में, विरोधी जज स्वयं पाकिस्तानी था। न्यायालय ने हालांकि की जाधव को रिहा करने के भारत के अनुरोध को खारिज कर दिया है पर पाकिस्तान से अपने फैसले की समीक्षा करने का उसने जो आदेष दिया उससे अर्थ स्पश्ट है कि पाकिस्तान मानवाधिकार का उल्लंघन करके मनमानी फैसला नहीं ले सकता। 
कुलभूशण जाधव के पूरे मामले की पड़ताल की जाये तो इसमें पाकिस्तान की पूरी नाटकीय पटकथा के साथ झूठ गढ़ने वाली व्यवस्था का चित्रण होता है जो अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय तक बादस्तूर जारी रहा। जबसे यह मामला प्रकाष में आया तब से भारत जाधव को बचाने के मामले में न केवल अपनी कूटनीतिक रफ्तार बढ़ा दी बल्कि उनके देष वापसी को लेकर जनता को आष्वासन देती रही। पाकिस्तान द्वारा फांसी की सजा सुनाये जाने से यह भी साफ था कि अपील और दलील को पाकिस्तान से कोई वास्ता नहीं है और न ही इस बात से उससे कोई मतलब कि जाधव आखिर कसूरवार है भी या नहीं। उसे तो इसलिए फांसी देनी थी क्योंकि वह भारत का नागरिक है। जाहिर है यह भारत की नाक का सवाल भी हो गया था। अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय जाकर भारत ने यह भी स्पश्ट किया कि पाकिस्तान की करतूतों से वह ऊब चुका है। साथ ही न्याय व्यवस्था में उसका विष्वास कहीं अधिक मजबूत है। सात दषक से लोकतांत्रिक देष होने की वाहवही लूटने वाला देष पाकिस्तान नियमों को कैसे ताक पर रखता है इसकी भी कलई इस घटना ने खोली है। अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर गलत बयानबाजी करके दुनिया को गुमराह करके पाक की अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय में एक न चली। सुनवाई के दौरान पाकिस्तान का कच्चा चिट्ठा जब सामने रखा गया और न्यायालय को जब यह बताया गया कि पड़ोसी देष में गठित सैन्य अदालतें किस तरह सबूतों के आभाव में मानवाधिकार और वैष्विक संधियों की धज्जियां उड़ा रही हैं। जो देष आतंक से पटा है उस पाकिस्तान की अदालतें खतरनाक आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करती बल्कि उन्हें संरक्षण देने का काम करती हैं। यह संयोग ही है कि जब अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय जाधव की फांसी की सजा रोक लगा रहा था तब मुम्बई आतंकी घटना का मास्टर माइंड हाफिज सईद को पाकिस्तान की जेल में डाला जा रहा था। हालांकि इसके पीछे पाक प्रधानमंत्री इमरान खान की चली गयी दूर की चाल है जिस पर भारत ही नहीं अमेरिका समेत दुनिया की नजर है। 
अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान एक बार फिर अलग-थलग पड़ गया है। भारत के पक्ष में अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय का फैसला उसके लिए उसकी दनिया में किरकिरी करा रही है। पाकिस्तान ने भारत की अपील के खिलाफ जो आपत्तियां उठायी वह असल में स्वीकार करने लायक ही नहीं थी। पाक की इस आपत्ति को न्यायालय ने खारिज कर दिया और कहा कि भारत का आवेदन स्वीकार करने लायक है। हैरत की बात यह है कि पाकिस्तान के लिए पाकिस्तान का गहरा मित्र चीन इस मामले में उसके साथ नहीं था। यहां चीन ने भारत का साथ दिया। एक अर्थ यह भी है कि पाकिस्तान की दोस्ती की कीमत अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर चीन तभी चुकायेगा जब उसके दामन पर ऐसा करने से कोई दाग नहीं लगेगा। हालांकि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों पर वीटो करके चीन ने अपनी खूब किरकिरी कराई थी और जब अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने चीन की इस फितरत को उसकी आदत समझ लिया तब मसूद अजहर के मामले में दबाव के साथ उसे अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित करने में एकजुटता दिखाई। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर यह पाकिस्तान की दूसरी हार है। गौरतलब है 1999 को वायुसेना ने गुजरात के कक्ष में पाकिस्तानी नौसेना के विमान अटलांटिक को मार गिराया जिसमें सभी 16 सैनिकों की मौत हो गयी। पाकिस्तान का दावा था कि विमान को उसके एयर स्पेस में गिराया गया और भारत से इस मामले में 6 करोड़ डाॅलर का मुआवजा मांगा। मामला अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय में गया और 16 जजों की पीठ ने जून 2000 में इसे खारिज कर दिया। इस मामले में 14 जज भारत की तरफ जबकि 2 पाकिस्तान के दावे के साथ थे। इस घटना से यह भी साफ है कि अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के भीतर पाकिस्तान पहले भी किरकिरी करा चुका है और अलग-थलग पड़ना उसकी सामान्य आदत है। 
कुछ बातें कुलभूशण जाधव के बारे में भी कर लेना यहां सही रहेगा। महाराश्ट्र के जाधव भारतीय नौसेना के पूर्व अधिकारी रहे हैं। पाकिस्तान ने इन्हें जासूस बताते हुए मार्च 2016 में ईरान से अगवा किया था लेकिन उसके 25 दिन बाद उसने भारतीय उच्चायोग को इस बारे में सूचित किया था। सूचना 25 दिन बाद क्यों दी जा रही है इसका उसके पास कोई स्पश्ट कराण नहीं था। जाधव को भारतीय उच्चायोग से सम्पर्क स्थापित करने देने का अनुरोध 16 बार खारिज किये जाने के बाद जब यह मुद्दा भारत अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय में ले गया तब पाक ने कहा कि यह मामला उसके दायरे में नहीं आता। इसी समय पाकिस्तान का तत्कालीन विदेष मंत्री ने यह भी स्वीकार किया था कि जाधव के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं है। हालांकि उसी दिन इसी बात का खण्डन भी किया गया। मामला यहीं तक नहीं रूका जब पाकिस्तान में जाधव से उनका परिवार मिलने गया तब भी उनके साथ अनाप-षनाप बर्ताव किये गये। पाकिस्तान पहले से ही जानता था कि अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय में उनकी एक नहीं चलेगी और अपने गलत फैसले को दूसरी गलती से ठीक करने की पिछले दो साल से अधिक समय से कोषिष कर रहा है जिसका नतीजा आज दुनिया के सामने है। हालांकि यह जाधव की रिहाई का फैसला नहीं है पर जाधव के साथ अब न्याय की सम्भावना बढ़ती दिखाई देती है। मानवाधिकार और वियना समझौते के उल्लंघन के चलते पाकिस्तान की नकेल कस दी गयी है। गौरतलब है कि वियना संधि के तहत राजनयिकों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। इस संधि के अन्तर्गत 54 आर्टिकल हैं। फरवरी 2017 में इस संधि पर हस्ताक्षर कर 191 देषों ने इसे पालन के लिए अपनी सहमति जताई थी। यह संधि 1961 में वियना में हुए सम्मेलन में अंतिम रूप ली थी। फिलहाल दो साल, दो महीने तक चले इस मुकदमे में भारत की जीत हुई और पाकिस्तान पर षिकंजा कसा गया। फांसी रूक गयी है पर रिहाई के लिए कानूनी लड़ाई अभी षेश है। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

समावेशी विकास में सुशासन की भूमिका

समावेषी विकास के लिए यह आवष्यक है कि लोक विकास की कुंजी सुषासन कहीं अधिक पारंगत हो। प्रषासन का तरीका परंपरागत न हो बल्कि ये नये ढांचों, पद्धतियों तथा कार्यक्रमों को अपनाने के लिए तैयार हो। आर्थिक पहलू मजबूत हों और सामाजिक दक्षता समृद्धि की ओर हों। स्वस्थ नागरिक देष के उत्पादन में वृद्धि कर सकता है इसका भी ध्यान हो। समावेषी विकास पुख्ता किया जाय, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, षिक्षा और चिकित्सा जैसी तमाम बुनियादी आवष्यकताएं पूरी हों। तब सुषासन की भूमिका पुख्ता मानी जायेगी। सुषासन का षाब्दिक अभिप्राय एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा जो जनता को सषक्त बनाये। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिष्चित करे। मोदी सरकार का दूसरा संस्करण 30 मई 2019 से षुरू हो गया। आर्थिक आईना कहे जाने वाला बजट नई सरकार में नये रूप-रंग के साथ 5 जुलाई को पेष किया। बजट के माध्यम से सुषासन की धार मजबूत करने की कोषिष की क्योंकि उसने इसके दायरे में समावेषी विकास को समेटने का प्रयास किया। अगले पांच वर्शों में बुनियादी ढांचे पर सौ लाख करोड़ का निवेष, अन्नदाता को बजट में उचित स्थान देने, हर हाथ को काम देने के लिए स्टार्टअप और सूक्ष्म, मध्यम, लघु उद्योग पर जोर देने के अलावा नारी सषक्तीकरण, जनसंख्या नियोजन और गरीबी उन्मूलन की दिषा में कई कदम उठाने की बात कही गयी है। सुसज्जित और स्वस्थ समाज यदि समावेषी विकास की धारा है तो सुषासन इसकी पूर्ति का मार्ग है।
दषकों पहले कल्याणकारी व्यवस्था के चलते नौकरषाही का आकार बड़ा कर दिया गया था और विस्तार भी कुछ अनावष्यक हो गया था। 1991 में उदारीकरण के फलस्वरूप प्रषासन के आकार का सीमित किया जाना और बाजार की भूमिका को बढ़ावा देना सुषासन की राह में उठाया गया बड़ा कदम है। इसी दौर में वैष्विकरण के चलते दुनिया अमूल-चूल परिवर्तन की ओर थी। विष्व की अर्थव्यवस्थाएं और प्रषासन अन्र्तसम्बन्धित होने लगे जिसके चलते सुषासन के मूल्य और मायने भी उभरने लगे। 1992 की 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास को लेकर आगे बढ़ी और सुषासन ने इसको राह दी। मन वांछित परिणाम तो नहीं मिले पर उम्मीदों को पंख जरूर लगे। विष्व बैंक के अनुसार सुषासन एक आर्थिक अवधारणा है और इसमें आर्थिक न्याय किये बगैर इसकी खुराक पूरी नहीं की जा सकती। प्रधानमंत्री मोदी नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक कई आर्थिक निर्णय लिये और बार-बार यह दावा किया कि सुषासन उनकी प्राथमिकता है और समावेषी विकास देष की आवष्यकता। खजाने की खातिर उन्होंने कई जोखिम लिए पर सवाल यह है कि क्या सभी को मन-माफिक विकास मिल पाया। गौरतलब है कि आज भी देष में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और गरीबी रेखा के नीचे है। बेरोज़गारी दर 45 साल की तुलना में सर्वाधिक है और अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन भी यह मानता है कि भारत में बेरोज़गारी दर आगे भी बढ़ेगी। डिग्रीधारी हैं पर कामगार नहीं हैं, विकास दर में इनकी भूमिका निहायत कमजोर है और भारत की जीडीपी 5.8 फीसदी तक बामुष्किल से पहुंच पायी है। इस बजट में 7 फीसदी का लक्ष्य रखा गया है। 
सुषासन की कसौटी पर मोदी सरकार कितनी खरी है इसका अंदाजा किसानों के विकास और युवाओं के रोज़गार के स्तर से पता किया जा सकता है। किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य 2022 है पर कटाक्ष यह है कि किसानों की पहले आय कितनी है यह सरकार को षायद नहीं पता है। बजट में किसानों के कल्याण के लिए गम्भीरता दिखती है। गांव, गरीब और किसानों के लिए कई प्रावधान हैं जो समावेषी विकास के लिए जरूरी भी हैं। 60 फीसदी से अधिक किसान अभी भी कई बुनियादी समस्या से जूझ रहे हैं। बजट में करीब डेढ़ लाख करोड़ रूपए का प्रावधान गांव और खेत-खलिहानों के लिए किया गया है। पीएम किसान योजना के तहत 75 हजार करोड़ रूपए का आबंटन स्वागत योग्य है जो सुषासन के रास्ते को चैड़ा कर सकता है। कई सुधारों की सौगात समावेषी विकास को अर्थ दे सकता है। 5 वर्शों में 5 करोड़ नये रोज़गार के अवसर छोटे उद्यम में विकसित करने का दम उचित कदम है। 25 सौ से अधिक स्टार्टअप खोले जाने की योजना भी रोज़गार की दिषा में अच्छा कदम है। नये निवेष और षोध के लिए की गयी पहल न केवल समावेषी विकास को बड़ा करेगा बल्कि लक्ष्य हासिल होता है तो देष को सुषासनमय भी बना देगा। हालांकि जितनी बातें कहीं जा रही हैं वे जमीन पर उतरेंगी या नहीं कहना मुष्किल है। पर जो सपने बोये गये हैं उसे काटने की फिराक में कुछ समावेषी तो कुछ सुषासन जैसा तो होगा ही। 
सुषासन की क्षमताओं को लेकर ढ़ेर सारी आषायें भी हैं। काॅरपोरेट सेक्टर, उद्योग, जल संरक्षण, जनसंख्या नियोजन, पर्यावरण संरक्षण भी बजट में बाकायदा स्थान लिये हुए है। असल में सुषासन लोक विकास की कुंजी है। जो मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाओं को जन केन्द्रित बनाने के लिए उकसाती हैं। एक नये डिज़ाइन और सिंगल विंडो संस्कृति में यह व्यवस्था को तब्दील करती है। लगभग तीन दषक से देष सुषासन की राह पर है और इतने ही समय से समावेषी विकास की जद्दोजहद में लगा है। एक अच्छी सरकार और प्रषासन लोक कल्याण की थाती होती है और सभी तक इसकी पहुंच समावेषी विकास की प्राप्ति है। इसके लिए षासन को सुषासन में तब्दील होना पड़ता है। मोदी सरकार स्थिति को देखते हुए सुषासन को संदर्भयुक्त बनाने की फिराक में अपनी चिंता दिखाई। 2014 से इसे न केवल सषक्त करने का प्रयास किया बल्कि इसकी भूमिका को भी लोगों की ओर झुकाया। वर्तमान भारत डिजिटल गवर्नेंस के दौर में है। नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली से संचालित हो रहा है। सब कुछ आॅनलाइन करने का प्रयास हो रहा है। ई-गवर्नेंस, ई-याचिका, ई-सुविधा, ई-सब्सिडी आदि समेत कई व्यवस्थाएं आॅनलाइन कर दी गयी हैं। जिससे कुछ हद तक भ्रश्टाचार रोकने में और कार्य की तीव्रता में बढ़ोत्तरी हुई है। फलस्वरूप समावेषी विकास की वृद्धि दर भी सम्भव हुई है। साल 2022 तक सबको मकान देने का मनसूबा रखने वाली मोदी सरकार अभी भी कई मामलों में संघर्श करते दिख रही है। मौजूदा आर्थिक हालत बेहतर नहीं है, जीएसटी के चलते तय लक्ष्य से राजस्व कम आ रहा है। प्रत्यक्ष करदाता की बढ़ोत्तरी हुई पर उगाही में दिक्कत है। राजकोशीय घाटा न बढ़े इसकी चुनौती से भी सरकार जूझ रही है। फिलहाल इस बार के बही खाते से देष को जो देने का प्रयास किया गया वह समावेषी विकास से युक्त तो है पर पूरा समाधान नहीं है। दो टूक यह भी है कि सुषासन जितना सषक्त होगा समावेषी विकास उतना मजबूत। और इसकी जिम्मेदारी षासन की है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com

अदालत की चौखट पर अनुच्छेद 370


वैसे देखा जाय तो अनुच्छेद 370 तब से एक समस्या है जब से देष का संविधान है। इसे हटाने को लेकर कई सरकारों ने वायदे किये पर इसे राह देने में असफल रहे। उच्चत्तम न्यायालय संविधान का संरक्षक है ऐसे में उसकी चिंता भी समय-समय पर इस मामले में देखी जा सकती है। इस मसले में षीर्श अदालत द्वारा अनुच्छेद 370 पर सुनवाई के लिए तैयार होना इसलिए भी उल्लेखनीय बात है क्योंकि उसके समक्ष अगस्त 2018 से जम्मू-कष्मीर से ही जुड़ा एक और विवादास्पद अनुच्छेद 35ए विचाराधीन है। जो राज्य सरकार को यह निर्धारित करने का अधिकार देता है कि यहां का स्थायी नागरिक कौन है। भारतीय संविधान में जम्मू-कष्मीर राज्य को विषेश दर्जा प्राप्त है और यह विषेश स्थिति अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत है और अनुच्छेद 35ए भी ऐसे ही कुछ पेंच लिए हुए है। संविधान का भाग 6 में अनुच्छेद 152 के अन्तर्गत राज्य में जम्मू-कष्मीर राज्य षामिल नहीं है जिसका तात्पर्य यह है कि राज्यों के संविधान में वर्णित उपबन्ध जम्मू-कष्मीर राज्य पर लागू नहीं होंगे। संविधान की पहली अनुसूची में जम्मू-कष्मीर को 15वें राज्य के रूप में देखा जा सकता है। अनुच्छेद 35ए इसलिए सवालों के घेरे में है क्योंकि उसे राश्ट्रपति के आदेष के अन्तर्गत संविधान में जोड़ा गया था। गौर करने वाली बात है कि यह अनुच्छेद कई भेदभावों से भरा हुआ है। इसके चलते जम्मू-कष्मीर के बाहर के लोग न तो यहां अचल सम्पत्ति खरीद सकते हैं और न ही सरकारी नौकरी हासिल कर पाते हैं। इसके अलावा भी कई और समस्याएं इसकी वजह से हैं। इसमें यह भी है कि अगर जम्मू-कष्मीर की लड़की किसी बाहर के लड़के से षादी करे तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जायेंगे। इतना ही नहीं उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं। गौरतलब है कि जब 1956 में जम्मू कष्मीर का संविधान बनाया गया था तब स्थायी नागरिकता को कुछ इस प्रकार परिभाशित किया गया था। संविधान के अनुसार स्थायी नागरिक वह व्यक्ति है जो 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक रहा है या फिर उसके पहले के 10 वर्शों से राज्य में रह रहा हो और वहां सम्पत्ति हासिल की है। इसी दिन तत्कालीन राश्ट्रपति डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद ने एक आदेष पारित किया जिसके तहत संविधान अनुच्छेद 35ए जोड़ा गया था। अब सवाल है कि क्या अनुच्छेद 35ए अनुच्छेद 370 का ही हिस्सा है? और अनुच्छेद 370 केा हटाने से 35ए स्वयं हट जायेगा। षीर्श अदालत ने 35ए को लेकर पहले 6 अगस्त 2018 को बाद में तिथि को आगे बढ़ाकर 27 अगस्त को सुनवाई की बात कही। हालांकि तिथि आगे बढ़ाने के पीछे तीन न्यायाधीषों की पीठ में एक अनुपस्थिति का होना था। गौरतलब है कि उसी समय जम्मू कष्मीर में खूब बयानबाजी हो रही थी और घाटी में अलगाववादियों की ओर से बुलाई गयी हड़ताल के चलते दुकानें बंद रही। दरअसल ये सभी अनुच्छेद 35ए को हटाये जाने के विरोध में थे और अभी भी हैं। 
अनुच्छेद 370 जम्मू कष्मीर पर लागू एक अस्थायी व्यवस्था थी जो आज भी अस्थायी है पर इसकी आयु देखकर मानो इसकी प्रकृति स्थायी हो गयी हो। अब सवाल यह है कि क्या यह संविधान की भावना के प्रतिकूल है या नहीं। एक अस्थायी अनुच्छेद को स्थायी क्यों माना जाय या फिर उसके लिए जो जिद्द कर रहे हैं उनके सामने क्यों झुका जाय। जब सवाल देष की एकता और अखण्डता का हो तो जम्मू कष्मीर का अलग दर्जा बनाये रखना उचित प्रतीत नहीं होता। किसी राज्य को विषेश का दर्जा देना कोई गैरवाजिब बात नहीं है पर भारतीयता से कटा हुआ राज्य हो और उसे मुख्य धारा में लाना हो तो वापसी होनी चाहिए। जम्मू कष्मीर की परिस्थितियां 50 के दषक में ऐसी रहीं होंगी कि अनुच्छेद 370 यहां अधिरोपित किया जाय पर 21वीं सदी के दूसरे दषक में भी यही परिस्थिति बनी हुई है यह वाजिब प्रतीत नहीं होता। एक सच्चाई यह भी है कि अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर भाजपा हमेषा तेवर में रही है और उसकी हटाने को लेकर पुरानी मांग है। उसी भाजपा के केन्द्र में 2014 से सरकार चल रही है जबकि जनवरी 2015 से पीडीपी के साथ मिलकर जम्मू-कष्मीर  में सरकार भी बनायी थी पर 370 का मामला यथावत ही रहा। हालांकि अब वहां राज्यपाल षासन लागू है। देखने वाली बात यह भी है कि अनुच्छेद 370 पर सुनवाई की स्थिति में मोदी सरकार अपना पक्ष किस तरह रखती है? सुप्रीम केार्ट ने अनुच्छेद 35ए की सुनवाई करते समय जब जम्मू-कष्मीर के राज्यपाल षासन से इस बारे में राय मांगी थी तो उसकी ओर से यह कहा गया कि इस मामले में कोई फैसला नई सरकार लेगी। वैसे बड़ा सच यह है कि अनुच्छेद 35ए को लेकर इसका सियासी खेल भी चरम पर रहा है। इस अनुच्छेद के मामले में एक गैर सरकारी संगठन वी द पीपुल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है जिसमें कहा गया है कि इस अनुच्छेद के चलते भारतीय संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार के अलावा मानवाधिकार का भी घोर हनन हो रहा है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 35ए के तहत पष्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे षरणार्थियों और पंजाब से यहां लाकर बसाये गये बाल्मीकि समुदाय नागरिकता से वंचित है। वहां के नेता भी नहीं चाहते कि इसे हटाया जाय। यहां तक कि सीपीआई(एम) भी इसके हटाने के पक्ष में नहीं है। पर कष्मीरी पण्डित इसके हटाने के पक्ष में हमेषा से रहे हैं। उनकी दलील है कि इस अनुच्छेद से हमारी बेटियों को दूसरे राज्यों में विवाहित होने के बाद अपने सभी अधिकार जम्मू-कष्मीर से खोना पड़ रहा है। 
अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कष्मीर सात दषक से विषेश राज्य के दर्जे के साथ कई बाध्यतायें समेटे हुए है यथा नीति निर्देषक तत्व का यहां लागू न होना जबकि देष के हर राज्य में यह लागू होते हैं। वित्तीय आपात यहां लागू नहीं किया जा सकता। अवषिश्ट षक्तियां राज्य को प्राप्त हैं। सम्पत्ति का अधिकार राज्य में अभी भी लागू है। जबकि अन्य प्रान्तों में यह अनुच्छेद 300(क) के अन्तर्गत एक वैधानिक अधिकार है। इतना ही नहीं अनुच्छेद 352 के अधीन आपात की घोशणा राज्य सरकार की सहमति से ही किया जा सकता है। ऐसी तमाम बातें इसे विषिश्ट बनाती हैं और सुविधापरक भी हैं। बहुत कुछ जम्मू-कष्मीर के हक में होने के बावजूद यहां मामला बेपटरी ही रहा है। आतंक की चपेट में घाटी अक्सर रही है। घाटी बर्बाद करने में यहां के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। अनुच्छेद 35ए के मोह में यहां के सभी स्थानीय दल फंसे दिखाई देते हैं। जम्मू-कष्मीर से आईएएस टाॅपर रहे षाह फैसल भी विवादित ट्विट कर चुके हैं। हालांकि अब वे इस सेवा से बाहर होकर सियासी सफर में है। उपरोक्त से यह संदर्भित होता है कि जम्मू कष्मीर के भीतर दो विचार चल रहे हैं। एक अनुच्छेद 35ए के पक्ष में दूसरा विरोध में। मगर असल में चिंता विरोधियों को अनुच्छेद 35ए की नहीं है और न ही 370 की बल्कि उन्हें वहां की फिजा में फैली उनकी रसूख की है। देष की षीर्श अदालत ने अनुच्छेद 370 की सुनवाई के लिए तैयार होना कई उम्मीदों को जन्म देता है। फैसला क्या होगा पता नहीं जो होगा, अच्छा होगा। अनच्छेद 35ए कष्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह वहां स्थायी नागरिक की परिभाशा तय कर सके। अब यह भी बीते वर्श से न्यायालय की षरण में है। फिलहाल जिस तर्ज पर समस्या बढ़ी है उसका हल भी उतना आसान प्रतीत नहीं होता। दो टूक यह कि जब भी दन दोनों अनुच्छेदों से जम्मू-कष्मीर को मुक्ति मिलेगी तो इसमें कोई दो राय नहीं कि यह संविधान की सबसे बड़ी खामी को दूर करने जैसा होगा।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

बजट की चुनौती में रहेंगे बुनियादी सवाल

आज 5 जुलाई है और नई सरकार अपने नये बजट को नये क्लेवर-फ्लेवर के साथ संसद में पेष करेगी। इसके पहले इसी साल 1 फरवरी को कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूश गोयल ने अन्तरिम बजट पेष किया था हालांकि वह वार्शिक बजट की भांति ही रहा जो लगभग 28 लाख करोड़ का था। बीते 30 मई को नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरी पारी की षुरूआत की और वित्त मंत्री के रूप में निर्मला सीतारमण को जिम्मेदारी दी जो इसके पहले रक्षा मंत्री रह चुकी हैं। हर बजट की अपनी एक चुनौती रही है पर नये भारत का सपना देखने वाली नई सरकार के सामने चुनौती सबका साथ, सबका विकास और सबका विष्वास के नाते यहां दर बढ़ी हुई प्रतीत होती है। निर्मला सीतारमण की परेषानी यह है कि मौजूदा सरकारी वित्त की हालत कुछ हद तक खराब है। गौरतलब है कि आम बजट के दो आयाम होते हैं एक यह कि मौजूदा अर्थव्यवस्था की समस्याओं से निपटने की राह खोजना, दूसरा नई योजनाओं के लिए संसाधन जुटाना यहां सरकार के सामने यदि कोई बड़ी चुनौती है तो वह घटती हुई विकास दर है। जीएसटी के चलते भी नुकसान तो हुआ है। 1 जुलाई 2017 से अब तक 24 महीने केवल 6 बार ही ऐसा रहा जब जीएसटी में उगाही का आंकड़ा एक लाख करोड़ रूपए से अधिक हुआ जबकि सरकार ने अप्रत्यक्ष कर से एक साल में 13 लाख करोड़ रूपए जुटाने का लक्ष्य रखा है। पिछले 8 तिमाही की पड़ताल बताती है कि विकास दर भी कम हो रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था में 45 फीसदी हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र का है। ऐसे में इसका असर संगठित क्षेत्र पर पड़ता है जिसका सरकार के पास कोई इलाज नहीं। कहने के लिए तो मौजूदा विकास दर 7.3 है पर लक्ष्य से यह दूर है।
हालांकि इसकी आहट वित्त वर्श के षुरूआत में ही दिख गयी थी। ऐसे में सबके कल्याण से युक्त बजट पेष करना निर्मला सीतारमण के लिए खासे मषक्कत का काम होगा। यदि पिछले वित्त वर्श पर दृश्टि डाली जाये तो सरकार काॅरपोरेषन टैक्स, आय कर, जीएसटी, उत्पाद षुल्क और सीमा षुल्क से करीब 21.26 लाख करोड़ रूपया जुटाने की आषा रख रही थी पर यह 19.30 लाख करोड़ पर ही आकर रूक गया जो सीधे तौर पर लगभग 2 लाख करोड़ रूपए कम की वसूली का संकेत देता है और यह कुल योग का प्रतिषत में यह 9 फीसदी कम है। आगामी बजट पर इसका असर न हो ऐसा हो नहीं सकता। कई आर्थिक संकेतों से भी जैसे गाड़ी, दोपहिया वाहनों की बिक्री पर दृश्टि डालें तो भी यह स्पश्ट होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तुलनात्मक कमजोर हुई है। ऐसे में सवाल है कि क्या सरकार करों में अधिक छूट दे पायेगी। दूसरा यह कि यदि सरकार का अंतरिम बजट में जिसे 1 बीते एक फरवरी को पेष किया गया था अनुमानित आय कर को कमाना है तो साल 2019-20 में एकत्र किये गये आयकर को 2018-19 की तुलना में 34 फीसदी अधिक करना होगा। ऐसे में दुविधा बड़ी हो जाती है। षिक्षा, स्वास्थ जैसे क्षेत्रों में रोजगार सृजन की अपार सम्भावनाएं हैं परन्तु यह तभी बढ़ेगा जब सरकार इस पर निवेष बढ़ायेगी। जीडीपी का 6 फीसदी सार्वजनिक षिक्षा पर और 3 प्रतिषत स्वास्थ सेवाओं पर खर्च हो तो स्थिति बन सकती है। बजट में इस पर विषेश ध्यान जरूर होगा। बड़ा सवाल यह भी है कि सरकार आय के नये रास्ते बढ़ाये बिना यदि बजट को संभालने का प्रयास करेगी तो स्थिति उछाल वाली नहीं रहेगी। यह हमेषा रहा है कि यदि उगाही कम होगी तो राजकोशीय घाटा बढ़ेगा तत्पष्चात् बजटीय घाटा बढ़ना निष्चित है। ऐसे में सरकारें सबका कल्याण करने के मामले में कमजोर पड़ती हैं। हालांकि लोकतंत्र में घाटे का बजट अच्छा समझा जाता है।  
प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में सम्बोधन के दौरान कहा था कि कृशि, विनिर्माण और निर्यात क्षेत्र पर विषेश तौर पर ध्यान देने की आवष्यकता है। नई सरकार के लिए मौजूदा कठिन आर्थिक परिस्थितियों में राजकोशीय घाटे के लक्ष्य को हासिल करने योग्य दायरे में स्वयं को रखकर बजट तैयार करने की बड़ी चुनौती होगी। वर्श 2018-19 के बजट में अनुमानित राजकोशीय घाटा 3.4 फीसद के लिए सरकार को कड़ी मषक्कत करनी पड़ी थी। मौजूदा समय में विकास दर 7.3 फीसदी है। विष्व बैंक आगे इसे बेहतर स्थिति में देखता है जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक विकास दर की स्थिति कमजोर पाता है। अभी हाल ही में रिज़र्व बैंक ने रेपो दर में कमी की जो 2010 के बाद सबसे कम के लिए जाना जाता है। इससे यह अनुमान है कि कम ब्याज पर ऋण मिलेगा ओर देष त्वरित विकास की राह पर आगे बढ़ेगा। इसके साथ ही बैंकों में ट्रांजेक्षन को लेकर लगने वाले षुल्क को 1 जुलाई से खत्म कर दिया गया। ऐसा करने से कैषलेस इकोनाॅमी को बढ़ावा मिलेगा साथ ही पारदर्षिता भी आयेगी। मूल चिंता यह है कि अर्थव्यवस्था को उछाल देने के लिए इन्कम टैक्स की सीमा बढ़ाई जा सकती है। एक तरफ आर्थिक सुस्ती तो दूसरी तरफ सरकार द्वारा जनता से किये गये वायदों को पूरा करना। सभी किसानों को 6 हजार रूपए की सम्मान देने का वादा पूरा करना, ढांचागत सुविधाओं और कृशि क्षेत्रों में अगले कुछ सालों के दौरान भारी निवेष की घोशणा का असर भी बजट में रहेगा। न्यूनतम सर्मथन मूल्य कैसे बेहतर और 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी वाले संकल्प की छाया भी बजट पर रहेगी। गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों और बैंक क्षेत्र का संकट समाप्त होता नहीं दिख रहा है। साढ़े दस लाख करोड़ का एनपीए बैंकों के लिए मुसीबत बना हुआ है। सरकार ने इसे कम करने के कदम उठाये हैं पर त्वरित समाधान नहीं दिखाई देता। निजी क्षेत्र की धारणा भी बजट पर टिकती है। उनकी उम्मीदों पर भी खरा उतरना वित्तमंत्री के लिए एक चुनौती रहेगी। 
केन्द्र सरकार द्वारा सालाना पेष किया जाने वाला बजट उसका आय-व्यय सम्बंधित दस्तावेज तो है पर यह देष के लिए एक आईना भी होता है। समृद्ध से लेकर गरीबों तक की आस बजट से ही रहती है। अमीरों से ज्यादा कर वसूलकर गरीबों के कल्याण में खर्च करने का सफल प्रयोग कई देषों में होता है। भारत जीडीपी का औसतन 16.7 फीसदी ही टैक्स जुटा पाता जो एक खराब स्थिति को दर्षाता है। विष्लेशण तो यह भी मानते हैं कि इस मामले में भारत की क्षमता 53 फीसदी की है स्पश्ट है कि देष में कराधान प्रणाली बहुत प्रभावषाली नहीं है। कुल करों में प्रत्यक्ष कर की एक-तिहाई ही हिस्सेदारी है। दक्षिण अफ्रीका जैसे देष में जीडीपी का करीब 28 फीसदी कर के माध्यम से जिसमें 50 फीसदी प्रत्यक्ष कर होता है। खास यह भी है कि ऐसे देष जीडीपी का 6 फीसदी से अधिक षिक्षा पर और लगभग 4 फीसदी स्वास्थ पर खर्च करते हैं। स्पश्ट है कि षिक्षा और मानव के स्वास्थ का वहां क्या मोल है। षिक्षा, स्वास्थ और सामाजिक सुरक्षा पर किया जाने वाला खर्च आवष्यक है। पिछले 30 सालों के दौरान 150 देषों में जन सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा में किये गये निवेष से असमानता दूर किये जाने का उदाहरण सामने है। भारत में अभी यहां खर्च मामूली ही होता है 3 फीसदी षिक्षा पर और 1 फीसदी से थोड़ा ही अधिक स्वास्थ पर खर्च होना यह इषारा करता है कि इस बार यह क्षेत्र बजट के केन्द्र में रहेगा। देष में अमीरों-गरीबों के बीच खाई पाटने के लिए भी बजट में कदम जरूर उठेंगे। सम्पत्ति कर के रूप में नया टैक्स भी दिख सकता है जो धनाढ्यों पर असर डालेगा। भूमि सुधार, श्रम सुधार और वित्तीय क्षेत्र में सुधार आदि की परछाई से यह बजट युक्त रहेगा जो भारत को दिषा देने में काम आ सकता है। 




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com