अमेरिका की सड़कों पर इन दिनों रंगभेद के चलते जो ताण्डव देखा जा रहा है। उसका कारण केवल पुलिस की एक मात्र हैवानियत नहीं बल्कि इसके पीछे सैकड़ों वर्शों से यहां विद्यमान गोरे और काले का भेदभाव है। गौरतलब है कि इस रंगभेद के चलते समय-समय पर अमेरिका के कल-पुर्जे ढ़ीले होते रहे हैं और दुनिया में इस बदनामी के दाग को ढ़ोने से वह मुक्त नहीं हो पा रहा है। ऐतिहासिक पड़ताल यह दर्षाती है कि जब संयुक्त राज्य अमेरिका 240 साल पहले स्वतंत्र हुआ था तब उसकी अर्थव्यवस्था अपने षैषव काल में थी उसका स्वरूप कुछ आदिम अर्थव्यवस्था जैसा था। तब अमेरिका निर्मित माल और पूंजीगत सहायता के लिए यूरोप पर आश्रित था। मगर एक षताब्दी के भीतर उसकी अर्थव्यवस्था की गाड़ी अपनी पटरियों पर तेजी से दौड़ने लगी। यही नहीं आर्थिक सर्वोच्चता की दौड़ में उसने कई देषों को पीछे छोड़ दिया। यह बात और है कि गोरे और कालों के भेद के साथ यह दौड़ निरंतरता लिए हुए थी। 20वीं षताब्दी के आरम्भिक वर्शों में अन्य देषों की तुलना में अमेरिका का जीडीपी सबसे अधिक हो गयी और समय के साथ इस सर्वोच्चता को बनाये रखने में वो सफल भी रहा। मौजूदा समय में जिस नस्लवाद से अमेरिका गुजर रहा है उससे एक बार यह विष्वास करना मुष्किल होता है कि यह दुनिया का सबसे षक्तिषाली देष है। हालांकि कोरोना वायरस के चलते भी इसकी बुनियादी विकास और जन सुरक्षा के मामले में कितना निपुण और दक्ष है इसकी भी पोल खुल चुकी है। हैरत यह है कि एक अष्वेत को एक ष्वेत पुलिस वाला गर्दन को तब तक दबा कर रखता है जब तक उसके प्राण निकल नहीं जाते। वैसे भी सभ्य समाज में सजा देने का ऐसा कोई प्रावधान षायद ही किसी को स्वीकार है। बस यहीं से एक बार फिर नस्लभेद की भेंट अमेरिका चढ़ गया। इस घटना ने कोरोना से व्यापक पैमाने पर जूझ रहे अमेरिका को एक नई आग में झोंक दिया जिसकी लपटें 150 षहरों तक देखी जा सकती है। आग इतनी तेजी से विस्तार ले चुकी है कि व्हाइट हाउस की सुरक्षा भी दांव पर लगी हुई है। स्थिति तो यह हो गयी कि राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को बंकर में छिपना पड़ा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अष्वेतों का गुस्सा कोई एकाएक न होकर सैकड़ों वर्शों का परिणाम है।
अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के प्रमुख षहरों में हो रहे हिंसक प्रदर्षनों को रोकने का आह्वान कर रहे हैं। उन्होंने चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि यदि राज्यों के गवर्नर नेषनल गार्ड को लगाने से मना किया तो वह सेना की तैनाती करेंगे। गौरतलब है कि ट्रम्प समस्या से निकलने के लिए नई समस्या को विकसित करने में माहिर हैं। जो उनके लिए मुसीबत का सबब भी बनता रहा है। इन दिनों चैतरफा घिरे ट्रम्प एक बार फिर कईयों के निषाने पर हैं। माइक्रोसाॅफ्ट कम्पनी के सीईओ सत्या नडेला, गूगल के सुन्दर पिचई और पेप्सिको कम्पनी की पूर्व सीईओ इन्दिरा नूई समेत पूर्व अमेरिका राश्ट्रपति बराक ओबामा ट्रम्प के रवैये पर प्रष्न उठा रहे हैं। समस्या को जिस तरह ट्रम्प दबाव के साथ हल करने का प्रयास करते हैं षायद यही कारण है कि उनकी चैतरफा आलोचना होती रही है। कोरोना महामारी के बीच विष्व स्वास्थ संगठन से नाराजगी के चलते उससे नाता तोड़ने वाले ट्रम्प के इस कृत्य पर भी अमेरिका के भीतर और बाहर कई सवाल उठे हैं। गौरतलब है कि इसी साल नवम्बर में अमेरिकी राश्ट्रपति का चुनाव होना है और ट्रम्प इस चुनाव में एक बार फिर व्हाइट हाउस का रास्ता तलाषना चाहेंगे मगर कोरोना और बाद में नस्लभेद की आग ने उनके रास्ते को एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। विषेशज्ञ की राय यह बताती है कि जो आग इन दिनों अमेरिका में सुलगी है उसमें ट्रम्प झुलस सकते हैं। इस समय पूरी दुनिया की निगाह अमेरिका पर बनी हुई है। पहले महामारी की वजह से और अब नस्लीय हिंसा के कारण ऐसा है। करीब एक सप्ताह से अमेरिका जल रहा है। लोग सड़कों पर हैं और ट्रम्प सेना का सहारा लेने की बात कह रहे हैं। नस्लवाद अमेरिका की सबसे बड़ी महामारी है जिसका टीका अब तक नहीं खोजा जा सका है। नई-नई बीमारियों से निजात पाने वाला अमेरिका नस्लवाद को मानो असाध्य बीमारी मान लिया हो। 13 फीसदी अष्वेत जिस भेदभाव से गुजरते हैं और इससे जुड़ी घटनायें आये दिन सुर्खियों में रहती हैं लेकिन ऐसा अवसर कभी-कभी ही आता है जब रंगभेद का रंग सड़कों पर सैलाब बन कर उतरता है। गौरतलब है यह पहली बार नहीं है। अमेरिका में रंगभेद का इतिहास बहुत पुराना है। 1619 में जब पहली बार अमेरिका ने अफ्रीकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर लाया गया था तब से इसकी कड़ी जुड़ती है। इस घटना को हुए 400 साल हो गये पर यह जिन्न आज भी सभ्य अमेरिका में जिन्दा है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की उद्देषिका में कहा गया है कि यह संविधान संयुक्त राज्य की जनता ने तैयार किया है मगर संविधान तैयार करने वाली जनता ने समतामूलक बातें मानो यहां कोई मायने नहीं रखती हैं। इतिहास की पड़ताल करें तो कहानी षीषे की तरह साफ हो जाती है। अमेरिका बरसों तक उपनिवेषवाद में रहा है और इसी उपनिवेषवाद के पहले चरण के दौरान 1619 में कुछ अष्वेत लोगों को लाकर जेन्सटाउन में बसाया गया था। षुरू-षुरू में तो ये लोग वेस्ट इंडीज़ से लाये गये किन्तु बाद में सन् 1674 में राॅयल अफ्रीकन कम्पनी ने काले लोगों को अफ्रीका से जहाजों में भर-भरकर लाना षुरू कर दिया। आरम्भ के वर्शों में सारे अष्वेत मज़दूर, दास बनाकर लाये गये मगर ज्यों-ज्यों विकासषील आर्थिक कारणों से मजदूरों की मांग बढ़ती गयी त्यों-त्यों अष्वेत लोगों की स्थिति बद् से बद्त्तर होती गयी। 17वीं षताब्दी के उत्तरार्ध में वर्जीनिया में एक दास नियमावली बन चुकी थी जिसके चलते दासों को उस व्यक्तिगत सम्पत्ति की तरह माना जाने लगा जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जा सकता है। अष्वेत लोगों की इस दयनीय स्थिति के दुश्परिणाम तो निकलने ही थे। इसी वजह से अष्वेत और गोरे अमेरिकियों में विभाजन की रेखा अस्तित्व में आयी और जिसमें अमेरिका में नस्लवादी और रंगभेदी इतिहास को जन्म दिया। जिसका कच्चा चिट्ठा आज भी अमेरिका की सड़कों पर एक दस्तावेज के रूप में उभरा हुआ है। हैरत तो यह भी है कि सैकड़ों साल बीतने के बाद अमेरिकी स्वतंत्रता के घोशणापत्र में गुलामों के व्यापार के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। उसमें स्वतंत्रता और समानता के सिद्धान्त पर जो बल दिया गया था वो गुलामों के लिए नहीं था। अमेरिका के संविधान में भी उनको नागरिकता के अधिकार नहीं मिले। बस इतना उल्लेख किया गया कि प्रतिनिधित्व के मामले में नीग्रो की गणना वास्तविक संख्या यदि 500 होगी तो 300 मानी जायेगी जो हर लिहाज़ से बड़े भेद को दर्षाता है। अमेरिकी राज्य में नये-नये राज्य षामिल होते गये और राज्य दास प्रथा के पक्ष में या विरोध में बंटते गये और यहां यह इतिहास बन गया कि कभी एक पक्ष का जोर रहता था तो कभी दूसरे पक्ष की षक्ति बढ़ जाती थी। अमेरिका के उत्तरी भाग में अप्रवासियों का आगमन अधिक था। हालांकि 1808 में अष्वेतों को लाने में रोक लगायी गयी। पहले राश्ट्रपति जाॅर्ज वांषिंगटन से लेकर ट्रम्प तक सत्ता यदा-कदा छोड़कर ष्वेतों के हाथ में रही। राश्ट्रपति अब्राहम लिंकन की 1865 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद हत्या कर दी गयी थी जिन्हें दासों को आजाद करने के लिए जाना जाता है। ट्रम्प से पहले बराक ओबामा अष्वेत राश्ट्रपति थे। फिलहाल सुलग रहे अमेरिका की दासतां नई नहीं है और न ही षीघ्र समाधान की ओर जाते दिखती है।
अमेरिका के इतिहास में आंदोलन का बड़ा चेहरा रहे मार्टिन लूथर किंग जूनियर जो राश्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्ष मानते हैं उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में क्या इसकी सम्भावना पूरी तरह होगी कि जब मेरे चारों बच्चे नस्लभेद से मुक्त अमेरिका में सांस लेंगे। मार्टिन लूथर किंग का यह भी दृश्टिकोण था कि आंदोलनों में हिंसा की कोई जगह नहीं है और एक बार उन्होंने यह भी कहा था कि दंगे वे लोग करते हैं जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती है। उक्त कथन के आलोक में घटे प्रकरण को देखें तो मार्टिन लूथर किंग के कथन सत्यता की पुश्टि करते हैं। एक पुलिसवाला एक अष्वेत के गर्दन को अपने घुटने से 8 मिनट तक दबाये रखता है और तिल-तिल कर उसकी सांस उखड़ रही है, आवाज़ बंद हो रही है पर षायद वह पुलिसवालायह इंतजार कर रहा है कि इसका षरीर षिथिल पड़े, स्थिर हो और यह प्राण से हाथ धो ले तब वह उसकी दबोची हुई गर्दन छोड़ेगा। यदि यह हकीकत है तो मार्टिन लूथर किंग की बातें अमेरिका की फिजा की हिसाब से कहीं अधिक पुख्ता सबूत की तरह है। अमेरिका में हो रहे दंगे और प्रदर्षन यही बताते हैं कि अष्वेतों को वह न्याय और वह स्थान नहीं मिला जो असल में मिलनी चाहिए। गौरतलब है कि जिस अमेरिका के संविधान से भारत ने मूल अधिकार का अनुसरण करते हुए अपने संविधान का हिस्सा बनाया अभी भी उसी अमेरिका में रंगभेद सर चढ़ कर बोल रहा है जबकि उसके संविधान को बने 230 साल से अधिक हो चुके हैं। हालांकि अमेरिका ने मूल अधिकार को पहले से 10वें संविधान संषोधन के भीतर समावेष किया था। फिलहाल अमेरिका में 50-60 के दषक में बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे। गौरतलब है कि अष्वेत नागरिकों को यहां तरक्की के अवसर किसी छोर पर छूट गये हैं मगर यहां रंगभेद इतनी मजबूती से खड़ा है कि अधिकतर अष्वेत नागरिक आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्श कर रहे हैं।
अमेरिका में जो दंगे चल रहे हैं उसमें अमेरिका और चीन के बीच की तल्खी को भी एक वजह समझा जा रहा है। बात छन-छन कर यह भी आ रही है कि चीन के प्रति अमेरिका का कड़ा रूख ट्रम्प के लिए एक मुसीबत बन गया। व्हाइट हाउस के घेराव और हमले के दौरान कुछ विरोधियों को चीनी भाशा में बात करते हुए सुने जाने की बात कही गयी। सम्भव है कि चीन ने ट्रम्प विरोधी गुट को हवा देने का काम किया होगा। फिलहाल नस्लभेद की इस लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान में अमेरिका रहेगा और दुनिया में इसका संदेष बिल्कुल गलत जायेगा जो ट्रम्प के व्यक्तित्व के लिहाज़ से कहीं अधिक नकारात्मक है। अमेरिका और चीन कोरोना के चलते जिस तरह आमने-सामने हैं उसे देखते हुए कुछ भी घटित हो सकता है। इतना ही नहीं जब दुनिया इस महामारी से जूझ रही है तब चीन लद्दाख में भारत के लिए मुसीबत का सबब बन गया है और एक बार फिर द्विपक्षीय सम्बंध रसातल में चले गये हैं। चीन अपनी आन्तरिक समस्याओं से जूझने का रास्ता फिलहाल भारत से उलझने के मार्ग से निकाल रहा है। जबकि अमेरिका नासूर बनी समस्या से इन दिनों दो-चार हो रहा है। अगस्त 1965, जुलाई 1967 और अप्रैल 1968 के दौर को देखें तो यहां रंगभेद की लड़ाई जिस उठान पर थी उसमें अमेरिका नस्लभेद की स्याही को कहीं अधिक गाढ़ी कर रहा था। जिस तर्ज पर हाल में अमेरिका में घटना घटी है उसी तर्ज पर दिसम्बर 1979 में चार ष्वेत पुलिस अधिकारियों ने अष्वेत मोटरसाइकिल सवार को पीट-पीटकर मार दिया था। हालांकि सुनवाई के बाद पुलिसकर्मी को बरी कर दिया गया तब भी अष्वेतों द्वारा हिंसा की गयी थी पर इसका साइज़ छोटा था। 1992 में अष्वेत रंगभेद की हिंसा ने 59 लोगों की जान ली थी और ठीक इसके 19 साल बाद ऐसी घटना के चलते सिन सिनेटी षहर में कफ्र्यू लगाना पड़ा था। अगस्त 2014 में भी एक पुलिसवाले निहत्थे अष्वेत किषोर को मौत के घाट उतार दिया। इसके कारण भी हिंसा और तनाव का कारण बना था। पड़ताल बताती है कि ष्वेत पुलिसकर्मियों के निषाने पर अष्वेत अक्सर रहे हैं और हजारों की तादाद में मौत इसी तरह हुई है। जिसके चलते अमेरिका हिंसा की चपेट में और रंगभेद के षिकार होने से स्वयं को कभी बचा नहीं पाया।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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