मनुष्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है पर विडम्बना यह है कि भौतिक मनुश्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आसमान है जबकि इस बार तो देष की षीर्श अदालत ने दीपावली के पहले से ही पटाखों पर रोक भी लगा दी थी तब भी राजधानी और उसके इर्द-गिर्द के इलाके धुंध से नहीं बच नहीं पाये। गौरतलब है कि पिछले वर्श भी दिल्ली इसी दुर्दषा से गुजरी थी और 17 साल का रिकाॅर्ड टूटा था। फिलहाल स्माॅग के चलते सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता लिए हुए है। प्रदूशण की स्थिति को देखते हुए स्कूलों में छुट्टी भी की जा रही है। स्कूल खुलने के दौरान अध्यापकों और छात्रों को कक्षा के बाहर न जाने और प्रार्थना मैदान के बजाय कक्षा में ही कराने के निर्देष भी दिये गये पर मानव निर्मित और मिश्रित इस प्राकृतिक कहर से कैसे बचें इसका कोई खास उपाय किसी को सूझ नहीं रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। अब यह जहरीली धुंध नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम समेत हरियाणा तथा पंजाब आदि को भी चपेट में ले लिया है। अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तस्वीरों में भी उत्तर भारत के वायुमण्डल में आगजनित धुंए के वायुमण्डल को दर्षाया गया है। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। तीन सौ हवाई उड़ानों को रद्द करना पड़ा, सैकड़ों उड़ानों में लेत-लतीफी और सुबह 7 से 8 बजे के बीच हवाई पट्टी पर दृष्यता दो सौ मीटर तक भी न होना इसके गहरे होने को पुख्ता करता है। स्थिति स्पश्ट करती है कि मानो यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा सकता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने पड़ोसी राज्यों से प्रदूशण स्तर में कमी करने के लिए जरूरी उपाय करने को कहा है। इन दिनों पर्यावरण मंत्री हर्शवर्धन जलवायु परिवर्तन से जुड़े सम्मेलन में जर्मनी में हैं। जब पिछले साल दिल्ली इसी दुर्दषा से जूझ रही थी तब पर्यावरण मंत्री ने कहा था कि राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है क्योंकि 80 प्रतिषत से अधिक प्रदूशण दिल्ली के कचरे को जलाने से हुआ है।
फिलहाल नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा है कि दिल्ली में इमरजेंसी जैसी स्थिति है। दिल्ली के कई इलाकों में पीएम 2.5 का स्तर 400 से पार कर गया है जबकि 50 से 100 के बीच इसे होना चाहिए। जाहिर है हवा के साथ जब यह धूल कण फेफड़ों में जायेंगे तो षरीर का क्या हाल होगा। एक वाजिब तर्क यह भी है कि दुनिया के कई देषों में ऐसी स्थिति में इमरजेंसी लागू हो जाती है। न केवल स्कूल, काॅलेज बंद किये जाते हैं बल्कि ट्रैफिक पर भी रोक लगायी जाती है। खास यह भी है कि कई कम्पनियों को यह मालूम है कि दिवाली के बाद दिल्ली की हवा बड़े बाजार को जन्म देगी ऐसे में आॅकसीजन सलेंडर की खूब बिकवाली होगी। लोगों को अब एयर प्यूरीफायर और डाॅक्टर की फीस, दवाई का खर्च आदि पर निवेष करना मजबूरी हो गयी है। हवा के असर से बचने के लिए वे ज्यादा खर्च बढ़ गया है। यहां तक कि छः सौ का एक आॅक्सीजन सलेंडर भी बिकने लगा है। सेंटर फाॅर एन्वायरमेंट साइंस की निदेषक सुनीता नारायण का कहना है कि एयर प्यूरीफायर कोई विकल्प नहीं है। दिल्ली में बीते मंगलवार को हवा में घुले जहरीले तत्वों की मात्रा अधिक हो गयी है। मौसम विभाग के मुताबिक यह जहरीली हवा अगले तीन दिनों तक और अधिक गहराने की आषंका है। मौसम विभाग के मुताबिक तापमान में गिरावट और हवा के थमने की वजह से धुंध छटने की सम्भावना बिल्कुल कम हो गयी है। वजह जो भी हो पर करोड़ों की आबादी वाली दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाके इन दिनों बड़ी मुसीबत का सामना कर रहे हैं और ऐसे में सरकारी तंत्र भी बौना है।
यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है। पिछले साल तो धुंध ने 17 साल का रिकाॅर्ड तोड़ा था पर इस साल तो यह और गम्भीर रूप ले लिया है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशनन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। अब यह जहरीली धुंध नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम समेत हरियाणा तथा पंजाब आदि को भी चपेट में ले लिया है। अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तस्वीरों में भी उत्तर भारत के वायुमण्डल में आगजनित धुंए के वायुमण्डल को दर्षाया गया है। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। तीन सौ हवाई उड़ानों को रद्द करना पड़ा, सैकड़ों उड़ानों में लेत-लतीफी और सुबह 7 से 8 बजे के बीच हवाई पट्टी पर दृष्यता दो सौ मीटर तक भी न होना इसके गहरे होने को पुख्ता करता है। स्थिति स्पश्ट करती है कि मानो यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा सकता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने पड़ोसी राज्यों से प्रदूशण स्तर में कमी करने के लिए जरूरी उपाय करने को कहा है। इन दिनों पर्यावरण मंत्री हर्शवर्धन जलवायु परिवर्तन से जुड़े सम्मेलन में जर्मनी में हैं। जब पिछले साल दिल्ली इसी दुर्दषा से जूझ रही थी तब पर्यावरण मंत्री ने कहा था कि राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है क्योंकि 80 प्रतिषत से अधिक प्रदूशण दिल्ली के कचरे को जलाने से हुआ है।
फिलहाल नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा है कि दिल्ली में इमरजेंसी जैसी स्थिति है। दिल्ली के कई इलाकों में पीएम 2.5 का स्तर 400 से पार कर गया है जबकि 50 से 100 के बीच इसे होना चाहिए। जाहिर है हवा के साथ जब यह धूल कण फेफड़ों में जायेंगे तो षरीर का क्या हाल होगा। एक वाजिब तर्क यह भी है कि दुनिया के कई देषों में ऐसी स्थिति में इमरजेंसी लागू हो जाती है। न केवल स्कूल, काॅलेज बंद किये जाते हैं बल्कि ट्रैफिक पर भी रोक लगायी जाती है। खास यह भी है कि कई कम्पनियों को यह मालूम है कि दिवाली के बाद दिल्ली की हवा बड़े बाजार को जन्म देगी ऐसे में आॅकसीजन सलेंडर की खूब बिकवाली होगी। लोगों को अब एयर प्यूरीफायर और डाॅक्टर की फीस, दवाई का खर्च आदि पर निवेष करना मजबूरी हो गयी है। हवा के असर से बचने के लिए वे ज्यादा खर्च बढ़ गया है। यहां तक कि छः सौ का एक आॅक्सीजन सलेंडर भी बिकने लगा है। सेंटर फाॅर एन्वायरमेंट साइंस की निदेषक सुनीता नारायण का कहना है कि एयर प्यूरीफायर कोई विकल्प नहीं है। दिल्ली में बीते मंगलवार को हवा में घुले जहरीले तत्वों की मात्रा अधिक हो गयी है। मौसम विभाग के मुताबिक यह जहरीली हवा अगले तीन दिनों तक और अधिक गहराने की आषंका है। मौसम विभाग के मुताबिक तापमान में गिरावट और हवा के थमने की वजह से धुंध छटने की सम्भावना बिल्कुल कम हो गयी है। वजह जो भी हो पर करोड़ों की आबादी वाली दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाके इन दिनों बड़ी मुसीबत का सामना कर रहे हैं और ऐसे में सरकारी तंत्र भी बौना है।
यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है। पिछले साल तो धुंध ने 17 साल का रिकाॅर्ड तोड़ा था पर इस साल तो यह और गम्भीर रूप ले लिया है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशनन
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