Monday, November 6, 2017

उच्च शिक्षा में सुशासन की दरकार

उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चतर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं। दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार है। तमाम ऐसे और कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी। वर्तमान में तो इसे बाजारवाद और व्यक्तिवाद के संदर्भ में परखा और जांचा जा रहा है। तमाम ऐसे कारकों के चलते उच्च षिक्षा सवालों में घिरती चली गयी। यूजीसी द्वारा जारी विष्वविद्यालयों की सूची में 291 निजी विष्वविद्यालय पूरे देष में फिलहाल विद्यमान हैं जो आधारभूत संरचना के निर्माण में ही पूरी ताकत झोंके हुए हैं। यहां की षिक्षा व्यवस्था अत्यंत चिंताजनक है जबकि फीस उगाही में ये अव्वल है। भारत में उच्च षिक्षा की स्थिति चिंताजनक क्यों हुई ऐसा इसलिए कि इस क्षेत्र में उन मानकों को कहीं अधिक ढीला छोड़ दिया गया जिसे लेकर एक निष्चित नियोजन होना चाहिए था। उच्च षिक्षा में गुणवत्ता तभी आती है जब इसे षोधयुक्त बनाने का प्रयास किया जाता है न कि रोजगार जुटाने मात्र का जरिया बनाया जाता है। निजी विष्वविद्यालय बेषक फीस वसूलने में पूरा दम लगाये हुए हैं पर उच्च षिक्षा के प्रति मानो इनकी प्रतिबद्धता ही न हो। यहां षिक्षा एक पेषा है, इसका अपना एक आकर्शण से भरा लाभ है और युवकों और संरक्षकों में यह कहीं अधिक पसंद भी की जाती है। इसके पीछे कोई विषेश कारण न होकर इनका सुविधाप्रदायक होना है।
विष्वविद्यालय के कई प्रारूप हैं जहां से उच्च षिक्षा को संचालित किया जाता है। सेन्ट्रल एवं स्टेट यूनिवर्सिटी के अतिरिक्त प्राईवेट तथा डीम्ड यूनिवर्सिटी के प्रारूप फिलहाल देखे जा सकते हैं। पड़ताल बताती है कि अन्तिम दोनों विष्वविद्यालयों में मानकों की खूब धज्जियां उड़ाई जाती हैं। बीते 3 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में डीम्ड विष्वविद्यालयों के दूरस्थ षिक्षा पाठ्यक्रमों को लेकर चाबुक चलाया है। सुप्रीम कोर्ट ने यहां से संचालित होने वाले ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगा दी। गौरतलब है कि उड़ीसा हाईकोर्ट के इस फैसले को कि पत्राचार के जरिये तकनीकी षिक्षा सही है। जिसे खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पश्ट कर दिया है कि किसी भी प्रकार की तकनीकी षिक्षा दूरस्थ पाठ्यक्रम के माध्यम से उपलब्ध नहीं करायी जा सकती। देष की षीर्श अदालत के इस फैसले से मेडिकल, इंजीनियरिंग और फार्मेसी समेत कई अन्य पाठ्यक्रम जो तकनीकी पाठ्यक्रम की श्रेणी में आते हैं इसे लेकर विष्वविद्यालय मनमानी नहीं कर पायेंगे। इतना ही नहीं इस फैसले से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस निर्णय को भी समर्थन मिलता है जिसमें कम्प्यूटर विज्ञान पत्राचार के माध्यम से ली गयी डिग्री को नियमित तरीके से हासिल डिग्री की तरह मानने से इंकार कर दिया गया था। हर पढ़ा-लिखा तबका यह जानता है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से डिग्री कितनी सहज तरीके से घर बैठे उपलब्ध हो जाती है। हालांकि इग्नू जैसे विष्वविद्यालय इसके अपवाद हैं। कचोटने वाला संदर्भ यह भी है कि उच्च षिक्षा के नाम पर जिस कदर चैतरफा अव्यवस्था फैली हुई है वह षिक्षा व्यवस्था को ही मुंह चिढ़ा रहा है। बीते डेढ़ दषक में दूरस्थ षिक्षा को लेकर गली-मौहल्लों में व्यापक दुकान खुलने का सिलसिला जारी हुआ। तमाम कोषिषों के बावजूद कमोबेष यह प्रथा आज भी कायम है।
वर्श 2004 में उत्तर प्रदेष के कई नामी-गिरामी विष्वविद्यालय भी इसके आकर्शण से नहीं बच पाये। स्नातक, परास्नातक समेत कई व्यावसायिक डिग्रियां दूरस्थ माध्यम से दूरस्थ क्षेत्रों में बिना किसी खास कसौटी के मामूली फीस लेकर न केवल उन्होंने सेंटर खोलने की अनुमति दी बल्कि स्वयं के साथ इससे जुड़े ठेकेदारों को भी खूब लाभ कमवाने का काम करने लगे। इतना ही नहीं बीटेक से लेकर एमबीए तक कि डिग्रियां भी दूरस्थ माध्यम से ऐसे केंद्रों से सहज रूप से उपलब्ध होने लगी। उत्तर प्रदेष का पूर्वांचल विष्वविद्यालय जौनपुर, चैधरी चरण सिंह विष्वविद्यालय मेरठ समेत इलाहाबाद एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट तब वह डीम्ड विष्वविद्यालय हुआ करता था धड़ल्ले से प्रदेष और प्रदेष के बाहर सेंटर संचालित करने लगे। हद तब हो गयी जब 1960 में विदेषी तर्ज पर बनने वाले उत्तर प्रदेष में स्थापित आचार्य नरेन्द्र देव कृशि एवं तकनीकी विष्वविद्यालय फैजाबाद ने बीटेक और एमबीए को दूरस्थ पाठ्यक्रम के माध्यम से संचालित करने का कार्य आरम्भ किया जो निहायत चिंताजनक बात थी। षिक्षा की बिगड़ती इस व्यवस्था को देखते हुए कोई कठोर कदम तो उठाया जाना ही था। वर्श 2005 के मई में उत्तर प्रदेष के तत्कालीन राज्यपाल एवं कुलाधिपति टी0वी0 राजेष्वर ने विष्वविद्यालयों द्वारा चलाये जा रहे दूरस्थ पाठ्यक्रमों पर रातोंरात रोक लगा दी और तब वसूली गयी फीस भी विद्यार्थियों को वापस करनी पड़ी थी। ये विष्वविद्यालय तो बानगी मात्र हैं देष भर में इसकी फहरिस्त काफी लम्बी मिल जायेगी। उक्त के परिप्रेक्ष्य में यह सुनिष्चित है कि उच्च षिक्षा को लेकर हमारी षिक्षण संस्थाओं ने व्यवसाय अधिक किया जबकि नैतिक धर्म का पालन करने में कोताही बरती है। जब देष की आईआईटी और आईआईएम निहायत खास होने के बावजूद दुनिया भर के विष्वविद्यालयों एवं षैक्षणिक संस्थाओं की रैंकिंग में ये सभी 200 के भीतर नहीं आ पाते हैं तो जरा सोचिए कि मनमानी करने वाली संस्थाओं का क्या हाल होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के माध्यम से यह जता दिया कि उसे षिक्षा को लेकर कितनी चिंता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस लिहाज़ से भी अहम है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान से या तो विमुख होता है या तो बहुत कम होता है। खास यह भी है कि तकनीकी षिक्षा के लिए आॅल इण्डिया काउंसिल आॅफ टेक्निकल एजुकेषन (एआईसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था जिसकी खूब अवहेलना हुई है और समय के साथ विष्वविद्यालय अनुदान आयोग भी नकेल कसने में कम ही कामयाब रहा है।
भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी। असल में षिक्षा कोई रातों-रात विकसित होने वाली व्यवस्था नहीं है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं। इतना ही नहीं कुछ क्षेत्रों में बिना किसी नीति के कमाने की फिराक में बेतरजीब तरीके से षिक्षण संस्थाओं की बाढ़ भी आयी। इंजीनियरिंग काॅलेज इसी तर्ज पर विकसित हुए और यह बात तब और पुख्ता हो जाती है जब आंकड़े बताते हैं कि देष के 4 में से 3 ग्रेजुएट किसी काम के नहीं। सवाल चैतरफा उठता है कि षिक्षक, षिक्षार्थी और षैक्षणिक वातावरण का हमारे देष में क्या ढर्रा है। देष में विद्यमान कुछ निजी और कुछ सरकारी संस्थायें भरपाई मात्र हैं न कि षिक्षा की गुणवत्ता के लिए जानी जाती हैं साथ ही समय के साथ इस क्षेत्र में चुनौतियां घटने के बजाय बढ़ रही हैं। अब तो मांग यही है कि अधकचरी मनोदषा वाली षिक्षा से बाहर निकलकर आषा और सुषासन के मार्ग की ओर इस यवस्था को धकेला जाय।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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